Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

ज़ाकिया एहसान जाफ़री बनाम गुजरात सरकार : सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला लोकतंत्र के लिए है हानिकारक

2002 गुजरात दंगे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हत्याओं को 'आधुनिक नीरो' से जोड़ने से लेकर न्याय के लिए संघर्ष को 'हर कार्यकर्ता की अखंडता पर सवाल उठाने' के 'दुस्साहस' के रूप में देखने तक का लंबा सफ़र तय किया है।
ज़ाकिया एहसान जाफ़री बनाम गुजरात सरकार : सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला लोकतंत्र के लिए है हानिकारक

सुप्रीम कोर्ट ने हत्याओं को 'आधुनिक नीरो' से जोड़ने से लेकर न्याय के लिए संघर्ष को 'हर कार्यकर्ता की अखंडता पर सवाल उठाने' को 'दुस्साहस' के रूप में देखने तक का लंबा सफर तय किया है।

वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस. नरीमन ने नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार तीस्ता सीतलवाड़ को "भारतीय संविधान के पैदल सैनिक" के रूप में वर्णित किया है। आज, उसी पैदल सैनिक को स्वतंत्र भारत की सबसे गंभीर गलतियों में से एक खिलाफ न्याय की गुहार लगाने  के लिए गिरफ्तार किया गया है, अर्थात् गुजरात नरसंहार, जिसे 27 फरवरी, 2002 को गोधरा ट्रेन जलने के बाद अंज़ाम दिया गया था।

सीतलवाड़ की गिरफ्तारी को सहज बनाने के लिए, पिछले शुक्रवार (यानि आपातकाल की 47 वीं वर्षगांठ से एक दिन पहले) सुप्रीम कोर्ट के दिए गए फैसले में एक पैराग्राफ है, जिसमें पूर्व सांसद एहसान जाफरी की विधवा जकिया जाफरी की अपील को खारिज कर दिया गया था, जिन्हे  नरसंहार के दौरान उनके सामने मार दिया गया था। जाफरी ने नरसंहार के पीछे की साजिश को उजागर करने की जांच के लिए याचिका दायर की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने जाफरी की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि "गुजरात राज्य के असंतुष्ट अधिकारियों के साथ-साथ अन्य लोगों का मिलाजुला प्रयास इस तरह के खुलासे करके सनसनी पैदा करना था जो खुलासे उनके अपनी जानकारी में झूठे थे।"

इस फैसले में उन लोगों का वर्णन किया गया है जिन्होंने 16 साल से अधिक लंबे समय तक अल्पसंख्यक होने के कारण लक्षित लोगों निशाना बनाना और उनके लिए न्याय की प्रक्रिया का इस्तेमाल कर "हर अफ़सर की अखंडता पर सवाल उठाने" के "दुस्साहस" के रूप में वर्णित किया है।

निर्णय तब उन लोगों का वर्णन करता है, जिन्होंने 2002 के पीड़ितों के लिए 16 से अधिक वर्षों तक न्याय की प्रक्रिया का इस्तेमाल कर "हर अफ़सर की अखंडता पर सवाल उठाने" का  "दुस्साहस" किया था। कोर्ट ने नोट किया कि उनके उद्देश्यों में "दुर्भावना से छिपा उद्देश्य" शामिल था। कोर्ट ने कहा कि "प्रक्रिया के इस तरह के दुरुपयोग में शामिल सभी लोगों को कटघरे में खड़ा होना चाहिए और कानून के अनुसार कार्यवाही की जानी चाहिए।"

फैसला सुनाए जाने के एक दिन बाद, (आपातकाल की वर्षगांठ पर) केंद्रीय गृह मंत्री, अमित शाह ने एक साक्षात्कार दिया जिसमें उन्होंने कहा कि फैसले में सीतलवाड़ के नाम का उल्लेख किया गया है, और उनके द्वारा संचालित एनजीओ ने पुलिस द्वारा दंगे के बारे में निराधार जानकारी दी है।" कुछ घंटे बाद गुजरात आतंकवाद निरोधी दस्ते ने सीतलवाड़ को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया। पहली सूचना रिपोर्ट ('एफआईआर') में दर्ज किया गया है कि जिन अपराधों का आरोप उन पर लगाया गया है उनमें जालसाजी, दोषसिद्धि हासिल करने के इरादे से झूठे सबूत देना और साजिश शामिल है। एफआईआर, सीतलवाड़ के साथ-साथ भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी संजीव भट्ट और आरबी श्रीकुमार के खिलाफ इन अपराधों को करने की साजिश में साथ देने के लिए दर्ज़ की गई है।

तीनों ने आख़िर क्या किया?

सीतलवाड़ न्याय के लिए लड़ने वाली एक अथक योद्धा हैं, जिन्होंने नरसंहार के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए सभी कानूनी रास्ते अपनाए हैं।

भट्ट गुजरात इंटेलिजेंस ब्यूरो में पूर्व डिप्टी कमिश्नर ऑफ इंटेलिजेंस हैं, जिन्होंने 2011 में नरेंद्र मोदी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया था, जो 2002 के दंगों के दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री थे, जो हलफनामा नरसंहार में मोदी की कथित भूमिका के बारे में थे। उन्होंने उस वर्ष सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की थी, जिसमें एक स्वतंत्र एजेंसी से नरसंहार की जांच करने या वैकल्पिक रूप से मामले को गुजरात के बाहर स्थानांतरित करने का अनुरोध किया गया था। उन्हें 2015 में 'अनधिकृत अनुपस्थिति' के कारण पुलिस सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था, और वर्तमान में जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं, उन्हें 2019 में 1990 के एक हिरासत में मौत के मामले में सज़ा सुनाई गई थी। 

आरबी श्रीकुमार गुजरात में एक पूर्व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (खुफिया) हैं, जिन्होंने जांच आयोग के समक्ष हलफनामा दायर किया था जिस आयोग को जस्टिस जी.टी. नानावटी और ए.एच. मेहता की अध्यक्षता में गुजरात के 2002 में गोधरा ट्रेन में आग लगने और उसके बाद हुए नरसंहार की जांच के लिए नियुक्त किया गया था, जिसे मोदी के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में गुजरात प्रशासन की चूक और कृत्यों का विवरण इकट्ठा करने के लिए गठित किया गया था।

सवाल यह है कि, इस तरह के 'निर्देशों' के बावजूद गुजरात में हिंसा क्यों हुई, इस सवाल की जांच न तो एसआईटी ने की और न ही सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच की।

निर्णय में रिकॉर्ड किया गया कि भट्ट ने दावा किया था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री ने एक आधिकारिक बैठक में, डीजीपी, तत्कालीन मुख्य सचिव और राज्य के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों को संबोधित करते हुए, निर्देश दिया था कि गोधरा कांड के बाद अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंदू क्रोध को बाहर निकलने दिया जाए।  

हालांकि न्याय मित्र, वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने खुद की सहायता के लिए नियुक्त किया था, ने नरसंहार के पीड़ितों के प्रति न्याय सुनिश्चित करने के मामले में कठिनाई की ओर इशारा किया था। उनका कहना था कि, "27.02.2002 की बैठक में श्री मोदी के सामने मौजूद किसी भी अधिकारी, विशेषकर नौकरशाह और पुलिस अधिकारियों का उनके खिलाफ बोलना असंभव होगा"।

सर्वोच्च न्यायालय अपने फ़ैसले में किस बात पर विचार करने में विफल रहा है

सुप्रीम कोर्ट 'राज्य में उच्चतम स्तर पर रची गई साजिश' की संभावना को खारिज करने में काफी समय लगाता है। जबकि अदालत के सामने सबूतों ने शायद ही कोई साजिश दिखाई हो (न्याय मित्र द्वारा बताए गए कारणों की वजह से), सवाल यह है कि हिंसा क्यों हुई। राज्य  सरकार ने हिंसा को जल्दी और प्रभावी ढंग से नियंत्रण क्यों नहीं किया? अदालत तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी के इस बयान से संतुष्ट दिख रही थी कि उन्होंने "किसी भी कीमत पर शांति और सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के साफ और स्पष्ट निर्देश दिए थे।"

इस तरह के 'निर्देशों' के बावजूद, गुजरात में हिंसा क्यों हुई, इस सवाल की एसआईटी ने जांच नहीं की या सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच नहीं की। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए न्यायालय यह निष्कर्ष निकाल सकता था कि साजिश रची नहीं गई थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई अपराध नहीं किया गया था। कोर्ट सिफारिश कर सकता था कि संसद, भारतीय दंड संहिता में आदेश या उच्च जिम्मेदारी की धारणा को शामिल करने पर विचार करे ताकि भविष्य में इस तरह की गलतियां (हजारों निर्दोष पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को किसी की निगरानी में मारे जाने की अनुमति देना) अभियोजन योग्य अपराध बन जाएं।

इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट की रोम संविधि, अनुच्छेद 28 (बी) बताती है कि जब मानवता के खिलाफ अपराध, नरसंहार और शांति के खिलाफ अपराध अधीनस्थ अफसरों द्वारा किए जाते हैं, तो उनके वरिष्ठ अधिकारोयोन को आपराधिक रूप से जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए यदि "अपराध से संबंधित गतिविधियां जो प्रभावी जिम्मेदारी और वरिष्ठ के नियंत्रण के भीतर" थी और "वही वरिष्ठ, ऐसे अपराधों को रोकने या दबाने के लिए अपनी शक्ति के भीतर सभी आवश्यक और उचित उपाय करने में विफल रहा है तो उसे जिम्मेदार ठहराना होगा"।

मुख्यमंत्री की सर्वोच्च जिम्मेदारी या संवैधानिक जिम्मेदारी के बारे में सवाल पूछने वाले एकमात्र न्याय मित्र राजू रामचंद्रन हैं।

मुख्यमंत्री की सर्वोच्च जिम्मेदारी या संवैधानिक जिम्मेदारी के बारे में सवाल पूछने वाले एकमात्र न्यायमित्र रामचंद्रन थे। सुप्रीम कोर्ट को प्रस्तुत नोट में रामचंद्रन कहते हैं, और जिसे फैसले के पहले अनुलग्नक के रूप में प्रस्तुत किया गया है, कि "ऐसा दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है कि सीएम ने 28.02.2002 को दंगों को रोकने के लिए हस्तक्षेप किया था, तब-जब दंगे हो रहे थे। श्री मोदी का कार्यक्रम और 28.02.2002 को उनके द्वारा दिए गए निर्देश यह साबित करने के लिए निर्णायक होते कि उन्होंने अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए सभी कदम उठाए थे... न तो मुख्यमंत्री ने और न ही उनके निजी अधिकारियों ने यह बताया कि उन्होंने 28.02.2002 को क्या किया। न तो शीर्ष पुलिस और न ही नौकरशाहों ने सीएम द्वारा किसी निर्णायक कार्रवाई के बारे में बात की है।

मुख्यमंत्री की संवैधानिक जिम्मेदारी अपर विचार किए बिना और यह जांच किए बिना कि क्या इस मामले में मुख्यमंत्री ने 2002 के अपराधों को रोकने के लिए अपनी शक्ति के भीतर सब कुछ किया था, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का निष्कर्ष खोखला है। तथ्य यह है कि साजिश का अपराध नहीं बनाया गया है, यह इस बात का सबूत नहीं है कि राज्य मशीनरी के नियंत्रण और कमान के लोगों द्वारा कोई अपराध नहीं किया गया था।

अफसोस की बात है यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने आगे बढ़कर इस सिद्धांत पर अपनी मुहर लगा दी कि गोधरा के बाद जो हुआ वह एक स्वतःस्फूर्त घटना थी, और निचले स्तर के अधिकारी हिंसा के लिए जिम्मेदार थे। स्वतःस्फूर्त घटना के विचार को नागरिक समाज द्वारा तैयार की गई, उन कई तथ्य-खोज रिपोर्टों को खारिज कर दिया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर शामिल थे। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 2004 के फैसले में 'बेस्ट बेकरी केस' में कहा था कि, "आधुनिक 'नीरोज' कहीं और देख रहे थे जब बेस्ट बेकरी और मासूम बच्चे और असहाय महिलाएं जल रही थीं, और शायद वे यह विचार कर रहे थे कि कैसे अपराध के अपराधियों को बचाया या संरक्षित किया जा सकता है।"

गुजरात 2002 के अपराधों के लिए जवाबदेही मांगने का यह लंबा इतिहास है (जिसमें खुद सुप्रीम कोर्ट का काम भी शामिल है) जिसे अदालत ने अपने फैसले में खारिज कर दिया है। राज्य प्रशासन में विश्वास की कमी के कारण, सुप्रीम कोर्ट ने प्रमुख दंगों के मामलों को गुजरात से बाहर स्थानांतरित करने को प्रेरित किया था। पीड़ित परिवारों, नागरिक समाज, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सर्वोच्च न्यायालय के इन सभी प्रयासों के परिणामस्वरूप निचली अदालतों में 100 से अधिक व्यक्तियों को दोषी ठहराया जा सका था। 

गुजरात 2002 के अपराधों के लिए जवाबदेही मांगने का यह लंबा इतिहास है (जिसमें खुद सुप्रीम कोर्ट का काम भी शामिल है) जिसे अदालत ने अपने फैसले में खारिज कर दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने हत्याओं को 'आधुनिक नीरो' से जोड़ने से लेकर न्याय के संघर्ष के 'हर कार्यकर्ता की अखंडता पर सवाल उठाने' के 'दुस्साहस' के रूप में देखने तक का लंबा सफर तय किया है।

यह फ़ैसला और गिरफ्तारियां भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए खतरा/हानिकारक हैं।

Courtesy: The Leafket

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest