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गर्भपात को लेकर विवाहित और अविवाहित महिला में फ़र्क़ नहीं, क़ानून में पति नहीं पार्टनर शब्द का इस्तेमाल!

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में 24 सप्ताह की गर्भवती अविवाहित महिला को गर्भपात की इजाज़त दे दी है। कोर्ट के मुताबिक जो क़ानून बनाया गया है उसका मकसद पूरा नहीं होगा अगर विवाहित और अविवाहित में फ़र्क़ किया जाएगा।
Right to abortion
Image courtesy : Realtimeindia

दशकों से गर्भपात देश-विदेश में महिलाओं के लिए संघर्ष का मुद्दा रहा है। विकसित देश हो या विकासशील, हर जगह अबॉर्शन को लेकर एक जैसी मानसिकता देखने को मिलती है। भारत में जहां रूढ़िवादी, पितृसत्तात्मक मानसिकता के तहत गर्भपात वैध होने के बावजूद एक अपराध माना जाता रहा है, वहीं अविवाहित यानी कुवांरी लड़कियों के लिए ये बाक़ी सबसे कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण माना जाता है। हालांकि अब देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में 24 सप्ताह की गर्भवती अविवाहित महिला को गर्भपात की इजाजत दे दी है। इससे पहले महिला को दिल्ली हाईकोर्ट ने इजाजत देने से इनकार कर दिया था।

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अपनेे फैसले के दौरान देश में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट को लेकर एक जरूरी बात कही। कोर्ट ने कहा कि साल 2021 में संशोधन के बाद इस एक्ट में धारा 3 के स्पष्टीकरण में पति के बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा है, जो इस अधिनियम के तहत अविवाहित युवती को कवर करने के विधायी इरादे को दर्शाता है। इसलिए याचिकाकर्ता को केवल इस आधार पर लाभ से वंचित नहीं किया जाना चाहिए कि वह एक अविवाहित महिला है। कोर्ट के मुताबिक जो कानून बनाया गया है उसका मकसद पूरा नहीं होगा अगर विवाहित और अविवाहित में फर्क किया जाएगा।

क्या है पूरा मामला?

जानकारी के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में एक 25 वर्षीय महिला ने अपने 24 सप्ताह के गर्भ के लिए समापन यानी अबॉर्शन से संबंधित याचिका दायर की थी। महिला अविवाहित है और अपने पार्टनर के साथ लिव इन रिलेशनशिप में थी। दोनों ने सहमति से संबंध बनाए जिस कारण वह गर्भवती हुई थी। अब वो कुछ कारणों के चलते इस बच्चे को जन्म नहीं देना चाहती, इसके लिए वो पहले दिल्ली हाई कोर्ट पहुंची।

दिल्ली हाई कोर्ट ने 15 जुलाई को इस मामले में फैसला सुनाते हुए महिला को 23 हफ्तों का गर्भ गिराने की इजाजत देने में आपत्ति जताई थी। कोर्ट ने कहा था कि ऐसा करना भ्रूण की हत्या के समान होगा। हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि कानून अविवाहित महिलाओं को मेडिकल प्रक्रिया के जरिए गर्भपात के लिए समय देता है। विधायिका ने आपसी सहमति से संबंध को किसी मकसद से ही उन मामलों की श्रेणी से बाहर रखा है जहां 20 हफ्तों से 24 हफ्तों के बीच गर्भपात की इजाजत है।

चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की अध्यक्षता वाली बेंच ने ये सुझाव दिया था कि याचिकाकर्ता को तब तक कहीं सुरक्षित जगह पर रखा जा सकता है, जब तक कि वह बच्चे को जन्म न दे दे। बाद में वह उसे गोद लेने के लिए छोड़ सकती है। महिला ने हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी थी।

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार, 21 जुलाई को मामले पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट का फैसला पलट दिया। महिला को गर्भपात की इजाजत के साथ ही कोर्ट ने कोर्ट ने दिल्ली एम्स के डॉयरेक्टर को 22 जुलाई तक एक मेडिकल बोर्ड बनाने का निर्देश दिया है। अगर मेडिकल बोर्ड अपनी रिपोर्ट में कहेगी कि अविवाहित महिला के जीवन को कोई खतरा नहीं है तो गर्भपात कराया सकता है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को भी नोटिस जारी किया है ताकि कानून की विस्तार से व्याख्या हो सके।

सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान क्या-क्या कहा?

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने अपने फैसले में कहा कि दिल्ली हाई कोर्ट ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी एक्ट के प्रावधान को अनावश्यक तौर पर प्रतिबंधात्मक बताने का गलत दृष्टिकोण अपनाया और महिला को गर्भपात की इजाजत देने से इनकार कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी एक्ट 2021 में जो बदलाव किया गया है उसके तहत एक्ट में महिला और उसके पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया गया है। वहां पार्टनर शब्द का इस्तेमाल है न कि पति शब्द का। ऐसे में एक्ट के दायरे में अविवाहित महिला भी कवर होती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता महिला को इसलिए एक्ट के बेनिफिट से वंचित नहीं किया जा सकता है कि वह अविवाहित महिला है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि कोर्ट विधायिका के कानून के मकसद के मामले में अविवेकहीन नहीं हो सकता है। रूल्स के एक्सप्लनेशन में कहा गया है कि अगर अनचाहा गर्भ है और वह महिला या फिर उनके पार्टनर द्वारा इस्तेमाल उपाय के फेल होने के कारण हुआ है तो वह अनचाहा गर्भ माना जाएगा। यहां पार्टनर शब्द का इस्तेमाल है और यह दिखाता है कि कानून में अविवाहित महिला को भी कवर किया गया है और यह संविधान के अनुच्छेद-14 के मद्दनेजर है।

जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि विधायिका ने जो कानून बनाया है उसका मकसद सिर्फ वैवाहिक रिलेशनशिप से अनचाही प्रिगनेंसी तक मामला सीमित नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता महिला अनचाहा गर्भधारण से सफर कर रही है और यह कानून की भावना के खिलाफ है। अदालत के मुताबिक जो कानून बनाया गया है उसका मकसद पूरा नहीं होगा अगर विवाहित और अविवाहित में फर्क किया जाएगा।

अबॉर्शन का मुद्दा स्वास्थ्य से बढ़कर रूढ़िवाद और पितृसत्ता का बना दिया गया है

गौरतलब है कि कानून की वैधता के बावजूद भी हमारे देश में गर्भपात या अबॉर्शन के मुद्दे को स्वास्थ्य से न जोड़कर इसके रुढ़िवादी सामाजिक पहलू को ज्यादा तरहीज दी जाती है। महिला आंदोलन के लंबे संघर्ष के बाद भारत सरकार ने 2021 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी यानी एमटीपी अधिनियम 1971 में संशोधन किया था। इसके तहत कुछ विशेष मामलों में गर्भपात की ऊपरी समय सीमा को बीस हफ्ते से बढ़ाकर 24 हफ्ते कर दिया गया है। इन श्रेणियों में बलात्कार पीड़ित, अनाचार की शिकार और अन्य कमजोर महिलाओं को रखा गया है। दंड संहिता के तहत गर्भपात कराना अपराध है, लेकिन एमटीपी के तहत ऐसे मामलों में अपवादों को अनुमति है। अन्य लोग भी इसका फायदा उठा सकते हैं यदि उनके पास 20 सप्ताह से पहले गर्भपात के लिए डॉक्टर की सहमति है।

बहरहाल, अबॉर्शन करवाना एक महिला का मूलभूत अधिकार है और यह नारीवादी आंदोलन की एक प्रमुख मांग रही है। अनचाहे और असुरक्षित अबॉर्शन और गर्भधारण दोनों ही महिलाओं के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहे हैं। पितृसत्तात्मक समाज में जहां महिलाओं का अपने शरीर और प्रजनन पर कोई अधिकार नहीं है ऐसे में अनचाहे गर्भधारण महिलाओं के शोषण का एक और ज़रिया बन चुके हैं। राजनीतिक और सामाजिक प्रक्रियाओं में प्रभावी रूप से भाग लेने में सक्षम होने के लिए, महिलाओं के पास अपने शरीर पर नियंत्रण होना चाहिए फिर वो चाहें विवाहित हो या अविवाहित।

जाहिर है एमटीपी एक्ट में महिला का विवाहित या अविवाहित होना मायने नहीं रखता। लेकिन हमारे पितृसत्तात्मक समाज में अविवाहित औरतों और लड़कियों के अबॉर्शन को आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता है। तथ्य यह है कि अविवाहित लड़कियों का अबॉर्शन अस्वीकार्य है, परिणामस्वरूप यह सुरक्षित अबॉर्शन में रुकावटें पैदा करता है और कभी-कभी अबॉर्शन के मूल उद्देश्य यानी अबॉर्शन कराने वाली महिला के स्वास्थ्य को दरकिनार कर देता है। कई बार इस अधिनियम की अबॉर्शन की ऊपरी सीमा रेप सर्वाइवर्स को मजबूरन इस अपराध से उपजे या अनचाहे गर्भ को दुनिया में लाने को भी मजबूर कर देता है। अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद एक बेहतर कल की नई उम्मीद जागी है।

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