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तालिबान ने अफ़गान जंगी सरदारों को रास्ते से हटाया

क्या अशरफ़ गनी द्वारा देरी से पेश किए गए तालिबान विरोधी 'संयुक्त मोर्चे' का प्रस्ताव काम करेगा? आखिर सभी जंगी सरदार कभी न कभी तो विदेशी ताकतों का प्रश्रय ले ही चुके हैं।
तालिबान ने अफ़गान जंगी सरदारों को रास्ते से हटाया

अफ़गान राष्ट्रपति अशरफ़ गनी ने बुधवार को देश के उत्तर में स्थित शहर मजार-ए-शरीफ़ की यात्रा की। राष्ट्रपति की यह नाटकीय यात्रा उस वक़्त में हुई है, जब तालिबान की मारधाड़ लगातार जारी है और वह मजार-ए-शरीफ़ के काफ़ी पास पहुंच चुका है। पारंपरिक तौर पर यह शहर तालिबान विरोधी क्षेत्र रहा है। यह ऐतिहासिक शहर अब पूरे देश से कट चुका है और कुछ सबसे बुरा होने का इंतज़ार कर रहा है।

लेकिन यहां गनी का मुख्य एजेंडा तालिबान विरोधी मोर्चा बनाने का है, जिसमें सरकारी फौज़ और व्याकुल जंगी सरदारों के सशस्त्र समूह शामिल होंगे, जो तालिबान के हमले को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। क्या अब इतनी देर से तालिबान विरोधी संयुक्त मोर्चे का समीकरण काम करेगा?

गनी अपने साथ उज्बेक नेता राशिद दोस्तुम को साथ लेकर गए थे। फिलहाल दोनों के हित समान हैं, क्योंकि दोस्तुम काबुल में फंसे हुए हैं। गनी का प्राथमिक लक्ष्य दोस्तुम और मजार-ए-शरीफ़ पर शासन करने वाले ताजिक नेता मोहम्मद अट्टा के बीच सुलह करवाना है।

मजार-ए-शरीफ़ की 5 लाख की आबादी में ताजिक (45 फ़ीसदी) और पश्तून (40 फ़ीसदी) मुख्य जातीय समूह हैं। वहीं उज्बेक (10-12 फ़ीसदी) अल्पसंख्यक हैं। लेकिन सोवियत दौर से ही यहां दोस्तुम और उनके गुर्गे फ़ैसले लेते आए हैं। अमेरिकी लोगों के आने के बाद ताकत अपने हाथ में लेने के लिए दोस्तुम, अट्टा को कभी माफ़ नहीं कर सकते।

दोस्तुम एक अनियंत्रित परिघटना है। कोई अंदाजा ही लगा सकता है कि 1990 के दशक के आखिर में उत्तरी गठबंधन के समूहों में होने वाले टकराव को रोकने के लिए ईरान के उप विदेश मंत्री अलाएद्दीन बरौजेर्दी ने तब के तालिबान शासित अफ़गानिस्तान में कितनी बार घुसपैठ की थी।

अब बरौजेर्दी की भूमिका कौन निभाएगा? गनी शासनकाल में मुख्य कार्यकारी निदेशक की भूमिका निभाने वाले अब्दुल्ला-अब्दुल्ला जन्म से आधे ताजिक और आधे पश्तून हैं। वे अकेले ही ऐसे शख़्स नज़र आते हैं, जो अलग-अलग सशस्त्र समूहों के नेताओं से बातचीत करने में सक्षम हैं। अहमद शाह मसूद मुश्किल राजनीतिक मिशन, दिवंगत अब्दुल रहमान (जिन्होंने नजीबुल्लाह कैंप से दोस्तुम को अलग करने पर बातचीत की थी) को सौंपा करते थे। अब यहां इन अनियंत्रित समूहों के बीच मध्यस्थता करने में सिर्फ़ यूनुस कानूनी ही सक्षम नज़र आते हैं, लेकिन फिलहाल उन्हें हाशिए पर डाला हुआ है।

सशस्त्र समूहों के यह सरदार पैसों को लेकर बहुत लालची रहे हैं। 2001 में अमेरिका ने यहां इन नेताओं को "प्रोत्साहन" देने के लिए डॉलरों की बरसात कर दी। तभी से ये जंगी सरदार इस पैसे के आदी हो चुके हैं। इन लोगों ने दुबई और दूसरी जगह बड़ी मात्रा में संपत्ति खरीद रखी हैं और करोड़पति हो चुके हैं। इसलिए जब अफ़गानिस्तान के वित्तमंत्री आराम से इस्तीफ़ा देकर विदेश निकल गए, तब हमें यह देखकर आश्चर्य नहीं हुआ।

क्या राष्ट्रपति बाइडेन सशस्त्र गुटों के नेताओं को फिर से काम पर रखेंगे? बहुत मुश्किल लगता है।

नृजातीय नज़रिए से देखें, तो कोई भी पश्तून जंगी सरदार तस्वीर में दिखाई नहीं देता। गनी की तरफ़ मौजूद दो 'ताकतवर' शख्स- उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह और रक्षामंत्री बिस्मिल्ला खान मोहम्मदी पहले ही ताजिक हैं। दोनों ही 'पंजशीरी' हैं। पंजशीर अफ़गानिस्तान के 34 राज्यों में से एक राज्य है (जिसकी आबादी 3.8 करोड़ के अफ़गानिस्तान में महज 1.75 लाख है)।

यह तस्वीर सही दिखाई नहीं पड़ती। हालांकि कोई भी सार्वजनिक तौर पर नृजातीयता पर बात नहीं करता। इसलिए बड़ा सवाल है कि कोई भी काबुल में मौजूदा सत्ता को बचाने के लिए अपनी जिंदगी दांव पर क्यों लगाएगा? अफ़गान बाज़ार में जब कहा जाएगा कि यह लोग लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं, तो लोग हंसेंगे। ना ही सशस्त्र समूहों के जंगी सरदार गनी को लेकर बहुत मजबूत राय रखते हैं। उनका पुराना इतिहास अस्थिर दिमाग वाले शख़्स का रहा है। मंगलवार को ही उन्होंने अफ़गान सेना के प्रमुख को हटाया है।

फिर यहां एक अतिवादी पहलू भी है। सशस्त्र समूहों के लगभग सभी जंगी सरदारों को कभी न कभी विदेशी ताकतों का प्रश्रय मिलता रहा है। यह अफ़गान जिहाद की विरासत है। उनके मन में विदेशी मदद की बात भीतर तक बैठी हुई है। इन जंगी नेताओं की वफ़ादारी सबसे ऊंची कीमत लगाने वाले के प्रति होती है।

दोस्तुम पेशे से एक कार मैकेनिक थे, जिन्हें सोवियत रूस की KGB ने बनाया था। सोवियत रूस के विघटन के बाद वे ताशकंद की शरण में चले गए थे। तबसे अब तक वे पाकिस्तान की ISI (तालिबान को 1995 में हेरात पर कब्ज़ा करने में मदद की) और तुर्की की सेवा करते आए हैं। उनके लिए विचारधारा या राजनीति कभी परेशानी का सबब नहीं बनी। फिलहाल उनके ऊपर तुर्की का नियंत्रण है।

इसलिए दोस्तुम द्वारा तालिबान को चुनौती देते देखना बेहद दिलचस्प नज़र आ रहा है। क्योंकि तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान उनके और तालिबान नेताओं के बीच सम्मेलन की योजना बना रहे हैं! हाल में दोस्तुम अंकारा की यात्रा पर गए थे और निश्चित तौर पर तुर्की के गुप्तचर विभाग ने उनसे बातचीत कर स्थिति साफ़ की ही होगी।

लेकिन एर्दोगान भी राष्ट्रीय टीवी पर साफ़ कह चुके हैं कि तालिबान की मौजूदा प्रक्रिया "समस्याग्रस्त" है। एर्दोगान ने कहा था, "हम इस मामले में काम कर रहे हैं, इसमें कुछ तालिबानी नेताओं से बातचीत भी शामिल है। यह इतनी आगे है कि मेरी मुलाकात एक ऐसे व्यक्ति से हो सकती है, जो उनका नेता बनेगा। ऐसा क्यों? क्योंकि अगर हम उच्च स्तर पर उन्हें नियंत्रण में नहीं ला सकते, तो हम अफ़गानिस्तान में शांति स्थापित नहीं कर पाएंगे।"

एर्दोगान ने आगे जोड़ा, "क्या हमारे अफ़गानिस्तान में खून के रिश्ते नहीं हैं? हमारे हैं। इन चीजों को देखते हुए हम कुछ कदम उठाएंगे और देखेंगे कि हम किसे अपने पक्ष में ला सकते हैं।"

दोस्तुम दो अलग-अलग उद्देश्यों के साथ एर्दोगान के साथ काम नहीं कर रहे होंगे। तब क्या होगा, जब एर्दोगान तालिबान से दोस्तुम की जगह बनाने के लिए कोई समझौता कर लें? अट्टा और गनी को यहां चिंता करने की जरूरत है।

ईरान की प्राथमिकता भी शिया बहुल हजारात क्षेत्र की सुरक्षा और कल्याण के साथ-साथ ताजिक प्रभुत्व वाली अफ़गानिस्तान की पश्चिमी सीमा की सुरक्षा की है। तेहरान ने संतुष्टि जताते हुए कहा है कि वे तालिबान के साथ संपर्क में हैं।

अगस्त, 1998 में मजार-ए-शरीफ़ में ईरान की कॉन्सुलेट पर तालिबान द्वारा हमला किए जाने के बाद पैदा हुई गर्मी में ईरान ने उत्तरी गठबंधन के साथ गठजोड़ कर लिया था। इस हमले में 11 ईरानी अधिकारी मारे गए थे। लेकिन आज हालात अलग हैं।

जहां तक रूस और चीन की बात है, तो उत्तरी इलाकों में तालिबान की मजबूती से स्थिरता और सुरक्षा आएगी। बुधवार को रूस के रक्षामंत्री सर्जी शोइगु ने कहा, "हमारे लिए यह अहम है कि उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के साथ सीमा को भी तालिबानी नियंत्रण में लिया जा चुका है।"

शोइगु ने तालिबान की मध्य एशियाई देशों में घुसपैठ ना करने की घोषणा पर भी गौर किया है। इतना कहना पर्याप्त होगा कि रूस, चीन, मध्य एशियाई देशों, ईरान और पाकिस्तान के पास अफ़गानिस्तान के जंगी सरदारों को प्रश्रय देने की कोई वज़ह नहीं है। मतलब अब गनी को इन जंगी सरदारों को 'प्रोत्साहन' देना होगा। क्या इसके लिए गनी के पास ताकत और संसाधन उपलब्ध हैं?

यहीं तालिबान द्वारा पुल-ए-खुमरी (बाघलान राज्य में) पर कब्ज़े की रणनीतिक अहमियत को समझना होगा। इस कदम के बाद प्रभावी तौर पर तालिबान का तथाकथित 'आउटर रिंग रोड' पर कब्ज़ा हो गया है, जो काबुल को 6 राज्यों- उत्तरपूर्व में पंजशीर, तखर और कुंदुज, पश्चिम में समानगन और बामियान व दक्षिण में परवान से जोड़ती है।

मतलब पुल-ए-खुमरी पर तालिबान के कब्ज़े से काबुल की आपूर्ति श्रंखला कमज़ोर हो गई है। साफ़ है कि तालिबान का गुप्तचर विभाग सटीक ढंग से जानता था कि गनी के खेमे में क्या हो रहा है।

एक बार मजार-ए-शरीफ़ के हारने के बाद, प्रतिरोध के कुछ-कुछ छोटे-छोटे क्षेत्र बचेंगे, जहां तालिबान आराम से राजनीतिक तरकीबों या दबाव का सहारा लेकर काम चला लेगा। ऐतिहासिक तौर पर अफ़गानिस्तान ने बमुश्किल ही कभी अपने साथ शांति बनाई है।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Taliban Neutralises Afghan Warlords

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