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मौसम परिवर्तन और आशा की किरण

करीब 45 देशों ने पेरिस समझौते में किए गए वायदे से आगे, 2030 तक अपने कार्बन उत्सर्जन में और ज़्यादा कटौती करने का वायदा किया है। इनमें 24 बड़े कॉर्बन उत्सर्जक देश शामिल हैं। कोरोना महामारी द्वारा पैदा की गई आर्थिक मंदी के बावजूद, यह वायदे या तो पिछले कुछ महीनों में किए गए हैं या फिर इन्हें सम्मेलन में किया गया।
मौसम परिवर्तन और आशा की किरण

12 दिसबंर को पेरिस समझौते की पांचवी वर्षगांठ पर "क्लाइमेट एम्बीशन समिट, 2020" नाम की वर्चुअल समिट हुई, इसमें 70 सरकारों के नेताओं ने हिस्सा लिया। सम्मेलन का आयोजन यूएन, फ्रांस और ब्रिटेन ने करवाया था। अगले साल कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (COP 26) से पहले इस समिट में पेरिस समझौते में सरकारों द्वारा किए गए वायदे से आगे, और ज़्यादा कटौती करने पर सहमति बनने की उम्मीद लगाई जा रही थी।

अच्छी ख़बर यह है कि करीब़ 45 देशों ने, जिनमें 24 उच्च उत्सर्जन वाले देश हैं, उन्होंने 2030 तक पेरिस समझौते में तय किए गए उत्सर्जन से ज़्यादा की कटौती का वायदा किया है। यह वायदे या तो समझौते में किए गए हैं या फिर पिछले कुछ महीनों में। जबकि इस दौरान कोविड महामारी के चलते बड़े स्तर की आर्थिक बाधाएं सामने आई हैं। इसके बावजूद 45 देशों का यह कदम, दुनिया के कई हिस्सों में पर्यावरण परिवर्तन के जवाब में ज़्यादा आपात औऱ तीखी प्रतिक्रिया को राजनीतिक और जन समर्थन का स्तर दर्शाता है।

कई देशों ने 2050 या इसके कुछ बाद तक, "कुल शून्य उत्सर्जन" का वायदा किया है। मतलब उनका उत्सर्जन उतना ही होगा, जितना उनके जंगल, ज़मीन, पानी के स्त्रोत आदि वहन कर सकें। यह वैज्ञानिक अनुमानों से मेल खाती है, जो कहते हैं कि सन 2100 तक अगर हमें बढ़ते औसत तापमान को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना है, तो वैश्विक उत्सर्जन को 2030 तक 50 फ़ीसदी और 2050 तक कुल शून्य तक पहुंचाना होगा।

बड़ी घोषणा

कई देशों द्वारा कुल शून्य उत्सर्जन का वायदा किया गया है, जिनमें कुछ निम्न और मध्यम आय वाले देश जैसे- बाराबडोस, फिजी, मलावी, नेपाल और अर्जेंटीना शामिल हैं। लेकिन जो सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ेगा वह चीन, यूरोपीय संघ और यूरोप-एशिया के दूसरे ऊंची आय वाले देशों द्वारा कुल शून्य उत्सर्जन को हासिल करने से पड़ेगा। 

सितंबर में दुनिया में सबसे बड़े उत्सर्जक देश चीन के राष्ट्रपति संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा को संबोधित करते हुए 2060 तक चीन को कुल शून्य उत्सर्जन हासिल करने वाला देश बनाने की प्रतिबद्धता जताई है। चीन ने उत्सर्जन प्रबलता (EI) या जीडीपी में प्रति ईकाई उत्सर्जन को 65 फ़ीसदी घटाने और 2030 तक 1200 गीगावॉट की सौर और पवन ऊर्जा क्षमता लगाने का वायदा कर, दूसरे NDC लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भी कोशिशें चालू कर दी हैं।

दुनिया का सबसे बड़ा उत्सर्जक यूरोपीय संघ है। EU ने 2030 तक, 1990 की तुलना में उत्सर्जन को 55 फ़ीसदी कम करने का वायदा किया है। यह पेरिस समझौते में किए गए 40 फ़ीसदी उत्सर्जन कम किए जाने के वायदे से ज़्यादा है, जिसे बड़े पैमाने पर अपर्याप्त माना गया था। इस साल सितंबर में इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए EU आयोग ने एक ब्लूप्रिंट भी पेश किया, जिसमें नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं को फिलहाल 40 फ़ीसदी के स्तर से 66 फ़ीसदी किए जाने की बात थी। साथ में जीवाश्म ईंधन की ऊर्जा क्षमताओं को मौजूदा 34 फ़ीसदी से घटाकर 20 फ़ीसदी पर लाने का वायदा था। इसके लिए ऊर्जा में सालाना 350 बिलियन यूरो का निवेश करना होगा। यूरोपीय संघ के मौसम संबंधी कार्रवाईयों और वित्तीय मदद के दीर्घकालीन बजट का 30 फ़ीसदी हिस्सा कोयले पर निर्भर पोलैंड के पास जाएगा।

ब्रिटेन ने तो GHG उत्सर्जन को घटाने का और भी ज़्यादा बड़ा लक्ष्य रखा है। ब्रिटेन का कहना है कि वह 1990 की तुलना में 2030 तक उत्सर्जन को 68 फ़ीसदी कम करेगा। ब्रिटेन के व्यापार, उद्योग और ऊर्जा मंत्री आलोक शर्मा, जो COP-26 के अध्यक्ष और सह आयोजक हैं, उन्होंने COP-26 उत्सर्जन पर और भी ज़्यादा लगाम लगाने की बात कही है। अपने भाषण में तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने घोषणा में कहा कि ब्रिटेन “पवन ऊर्जा का सऊदी अरब बनेगा” और इतनी पवन ऊर्जा पैदा करेगा जो ब्रिटेन के सभी घरों के लिए पर्याप्त होगी। उन्होंने हाइड्रोजन ऊर्जा के पक्ष में आक्रामकता से अपनी बात रखी।

जापान, दक्षिण कोरिया, कनाडा और दक्षिण अफ्रीका ने भी 2050 तक कुल शून्य उत्सर्जन करने का लक्ष्य रखा है, हालांकि कनाडा और दक्षिण अफ्रीका का अपने वायदों को पूरा करने का मिला-जुला इतिहास रहा है, इन देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन भी ज़्यादा है।

किसी भी तरह देखें, तो 63 फ़ीसदी वैश्विक उत्सर्जन करने वाले कुल 127 देशों ने कुल शून्य उत्सर्जन की स्थिति लाने का वायदा किया है या फिर ऐसा करने के लिए सक्रियता से हिस्सा ले रहे हैं। लेकिन यह केवल आधी कहानी है। हमें आगे देखना चाहिए।

अमेरिका और दूसरे आनाकानी करने वाले देश

आने वाले सम्मेलन की बड़ी आशा बाइडेन प्रशासन के अंतर्गत अमेरिका की भूमिका है, जिसने अपने पहले दिन ही पेरिस समझौते में दोबारा शामिल होने की घोषणा की थी। बाइडेन ने जोर देकर कहा था कि मौसम परिवर्तन से जुड़ी कार्रवाईयां उनके एजेंडे में अहम होंगी। बाइडेन ने 1.7 ट्रिलियन डॉलर की स्वच्छ ऊर्जा योजना का वायदा भी किया था। यह 2035 तक बनने वाली एक ऐसी बिजली ग्रिड होगी, जो जीवाश्म ईंधन से स्वतंत्र होगी। इससे इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बड़ा प्रोत्साहन मिलेगा। अहम बात यह है कि बाइडेन ने भी 2050 तक अमेरिका को शून्य उत्सर्जन की ओर ले जाने का वायदा किया है।

यह साफ तौर पर पेरिस समझौते में दर्शाई गई प्रतिबद्धता से आगे की बात है, जिसमें 2050 तक उत्सर्जन को 80 फ़ीसदी तक कम किए जाने का वायदा किया गया था (इसके लिए आधार वर्ष अभी घोषित नहीं है, लेकिन यह संभावित तौर पर 2005 हो सकता है)। यह अमेरिका द्वारा पेरिस समझौते में 2025 तक 26 से 28 फ़ीसदी उत्सर्जन कटौती से भी आगे की बात है, जिसके लिए आधार वर्ष ज़्यादातर यूरोपीय देशों द्वारा अपनाए गए 1990 के बजाए 2005 बनाया गया था। अगर इस कटौती की 1990 से तुलना करें, तो अमेरिका द्वारा वायदा की गई इस कटौती की मात्रा सिर्फ़ 9 से 11 फ़ीसदी ही होती है। जबकि यूरोपीय संघ की कार्बन उत्सर्जन की यह कटौती 40 फ़ीसदी तक है। 

कटौती में औपचारिक बढ़ोत्तरी के लिए, बाइडेन-हैरिस प्रशासन के सामने घरेलू स्तर पर सीनेट में रिपब्लिकन बहुमत होने से राजनीतिक चुनौती पैदा हो सकती है। हालांकि बढ़ी हुई कटौती की मात्रा को हासिल करना कठिन नहीं होगा, हमने ओबामा के दौर में भी देखा कि नियामक कदम और प्रशासनिक आदेशों के साथ-साथ कुछ राज्यों और शहरों द्वारा उत्सर्जन पर लगाम लगाने वाले कदमों से कटौती की जा सकती है। अमेरिका में कुछ राज्य हरित विकास नीतियां अपना रहे हैं, इन राज्यों में ऊंची विकास और रोज़गार दर देखी गई है, जिससे दूसरों को प्रोत्साहन मिला है।

जहां बाइडेन-हैरिस प्रशासन में ऊंची कटौती से दुनिया अपने दो डिग्री वाले लक्ष्य के ज़्यादा करीब पहुंच सकेगी, लेकिन इससे उन देशों पर भी प्रभाव पड़ेगा, जो उत्सर्जन दर में कटौती करने में आनाकानी करते थे, अब उनके पास अमेरिका का ताकतवर प्रभाव नहीं होगा। इस बात की भी कुछ संभावना है कि ओबामा प्रशासन के वक़्त अमेरिका ने मौसम निवेश के तहत जिस तीन बिलियन डॉलर का वायदा किया था, वह दोबारा शुरू हो सकती है, इस निवेश पर कई LDCs और द्वीपीय देश आश्रित हैं।

फिर भी उत्सर्जन में कटौती में आनाकानी करने वाले कुछ देश अब भी सक्रिय हैं। रूस और सऊदी अरब के अलावा दक्षिणपंथी जॉयर बोलसोनारो के नेतृत्व में ब्राजील भी ऐसा ही एक देश है। बोलसोनारो के कार्यकाल में ही अमेजॉन वर्षावनों का एक बड़ा हिस्सा बागवानी के लिए काट दिया गया। ऑस्ट्रेलिया की कंजर्वेटिव सरकार का रवैया भी ऐसा ही है, जिसको पेरिस समझौते के NDC उत्सर्जन कटौती में खराब प्रदर्शन के चलते वर्चुअल समिट में बोलने से रोक दिया गया था।

क्या कोई वैश्विक लक्ष्य पास है या फिर यह मिराज है?

यूएन एनवॉयरनमेंटल प्रोग्राम की “एमिशन्स गैप रिपोर्ट, 2020” इस साल सितंबर में जारी हुई है। इसका अनुमान है कि इस शताब्दी के अंत तक तापमान 3.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने का जो अंदाजा लगाया गया है, वह गिरकर 2.9 डिग्री सेल्सियस पर आ सकता है।

एक और उम्मीद भरा अनुमान प्रतिष्ठित क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर (CAT) से आता है। नवंबर में संस्थान ने अनुमान लगाया था कि 2100 तक तापमान में 2.6 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हो जाएगा। लेकिन वर्चुअल समिट के बाद CAT ने अपने अनुमान को 2.1 डिग्री सेल्सियस कर दिया है, यह वैश्विक लक्ष्य 2 डिग्री सेल्सियस के करीब है। हालांकि यह महत्वकांक्षी 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य से थोड़ा सा दूर है। चूंकि EGR और CAT अलग-अलग तकनीक इस्तेमाल करते हैं, अगर हम CAT के अनुमान को EGR की तकनीक के हिसाब से लगाएं, तो 2100 तक 2.3 डिग्री सेल्सियस तापमान का इज़ाफा मिलता है।

यह अध्ययन बताते हैं कि पेरिस समझौते के बाद से उत्सर्जन के कम होने की प्रवृत्ति में सुधार हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि देशों ने अच्छा प्रदर्शन किया है या दूसरे तरीके से कहें तो तो देशों ने अपनी क्षमता से ज़्यादा के NDCs ज़मा किए हैं।

लेकिन अब ज़्यादा बड़ी चुनौती अमेरिका समेत कुछ विकसित देशों को उनके “2030 तक के उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को 2050 तक कुल शून्य उत्सर्जन लक्ष्य से तालमेल” बिठाने की होगी। अगर अभी उत्सर्जन में बड़े स्तर की कटौती नहीं की गई, तो 2030 के बाद, 2050 तक कुल शून्य उत्सर्जन हासिल करने के लिए ज़्यादा बड़ी कटौती की जरूरत होगी, जिसकी ज़्यादा ऊंची कीमत होगी।

भारत की स्थिति

सौभाग्य से भारत के साथ ऑस्ट्रेलिया जैसा व्यवहार नहीं हुआ, क्योंकि पीएम के भाषण में पेरिस समझौते के ऊपर भी कुछ ठोस वायदे शामिल थे। लेकिन दूसरी तरफ पीएम के भाषण से एक अहम लक्ष्य को हासिल करने में हमारा कमजोर प्रदर्शन झलका और उसमें एक खोखला वायदा किया गया, जिसके मुताबिक़, 2022 तक भारत की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमताओं को मौजूदा 175 गीगावॉट से बढ़ाकर 450 गीगावॉट किए जाने का वायदा किया गया।

पीएम ने कहा कि भारत ने अपनी उत्सर्जन प्रबलता को 2005 से अब तक 21 फ़ीसदी घटा लिया है, जबकि भारत ने 2030 तक इसमें 33 से 35 फ़ीसदी कटौती का वायदा किया था। यह सालाना लगभग 1.4 फ़ीसदी बैठता है। इस दर से भारत 2030 तक आराम से अपने लक्ष्य तक पहुंच जाएगा। लेकिन 2015 में भारत ने जो NDC जमा किया था, उससे पता चलता है कि 2010 से 2015 के बीच भारत की उत्सर्जन प्रबलता 12.5 फ़ीसदी गिरी। मतलब हर साल करीब़ 2.5 फ़ीसदी। यह आंकड़ा कमजोर जीडीपी विकास दर और हाल के सालों में धीमा उत्सर्जन ढलान दर्शाता है।

भारत के NDC ने बीजेपी सरकार के पुराने वायदे, 2022 तक 175 गीगावॉट की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को माना है, जिसमें से 100 गीगावॉट सौर ऊर्जा होगी। पीएम के भाषण में बताया गया है कि भारत अब तक नवीकरणीय ऊर्जा में केवल 36 गीगावॉट तक ही पहुंच पाया है, जो हमारे वायदे से काफ़ी कम है। शुरुआती उछाल के बाद अब सौर ऊर्जा क्षमता में आई मंदी को ध्यान में रखते हुए देखें, तो पीएम मोदी द्वारा 2030 तक 450 गीगावॉट का जो लक्ष्य रखा गया है, वह बड़बोला और बिना आधार का नज़र आता है।

पीएम का दूसरा दावा है कि NDC लक्ष्यों में मौजूदा 24 फ़ीसदी वन क्षेत्र को 33 फ़ीसदी वन क्षेत्र में बढ़ाने की दिशा में भारत अच्छा विकास कर रहा है। इसके लिए भी कोई मजबूत सबूत मौजूद नहीं हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि सरकार अकसर फॉरेस्ट/ट्री कवर के घालमेल का इस्तेमाल करती है, जिसमें हाईवे के किनारे लगे हुए पेड़ भी गिने जाते हैं। जबकि पेड़ों का कोई झुंड मिलकर जंगल नहीं बना देता, ना ही जंगल की तरह पर्यावरणीय सेवाएं, जैसे मृदा और जल संरक्षण, जैव विविधता, ईंधन, चारा और अन्य आजीविका सहायता उपलब्ध करता है। अब सरकार संस्थागत तरीके से पर्यावरण प्रभाव विश्लेषण को नज़रंदाज कर रही है और धड़ल्ले से खनन, वन क्षेत्रों में औद्योगिक और विनिर्माण गतिविधियों की अनुमति दे रही है। इसलिए ऐसे में वन क्षेत्र में बढ़ोत्तरी के दावों की गहरी जांच की जानी चाहिए।

भारत की NDC और घरेलू पर्यावरण नीति के आलोचक अकसर इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि भारत ने कम कॉर्बन उत्सर्जन की कोशिशों को सिर्फ नवीकरणीय और हरित क्षेत्रों तक सीमित कर दिया है। कई ऐसे मौके, जिनसे ना केवल उत्सर्जन कम होता, बल्कि दूसरी आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक पहलुओं में मदद मिलती, उन्हें नज़रंदाज कर दिया गया। बड़े स्तर का सार्वजनिक यातायात, खासकर विद्युत संचालित यातायात, ना केवल उत्सर्जन को कम करता, बल्कि वायु प्रदूषण को भी घटाता और कम आय वर्ग के लोगों को ज़्यादा पहुंच उपलब्ध करवाता।

इसी तरह शहरी क्षेत्र में दोबारा संरचनागत् फेरबदल कर पैदल पथ और गैर-मोटर ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा दिया जाता। साथ ही ठोस और तरल अपशिष्ट पदार्थों का वैज्ञानिक पद्धति से निष्पादन करने और घरेलू बिल्डिंगों में भी हरित निर्माण जैसे दूसरे कदमों से कई तरह के फायदे होते। ऊपर से शहरी बाढ़, समुद्र तल का ऊपर उठना, तटीय अपरदन और कृषि जैसे मुद्दों पर पर्यावरण सहनशीलता और संयोजन की बड़ी चुनौती की दिशा में भी कोई कदम नहीं उठाया गया, जबकि बाद में इनसे निपटने की कोशिश में ज़्यादा कीमत ही चुकानी पड़ेगी।

भारत को गंभीरता से एक अलग कम उत्सर्जन वाला विकास का रास्ता बनाने की जरूरत है, जो ना केवल अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए होगा, बल्कि हमारे खुद के लोगों और भविष्य के लिए भी यह जरूरी है।

 इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

The Climate Cloud and a Thin Silver Linin

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