नेकी कर और चुल्लू भर पानी में डाल !
एक कहावत है, नेकी कर और दरिया में डाल। पुरानी कहावत है। उस जमाने की कहावत है जब दरियों में बहुत पानी होता था। आजकल तो दरियों में या तो बहुत ही पानी होता है या फिर सूखे पड़े रहते हैं। चौमासे के दो तीन महीने तो उफनते रहते हैं और बाकी के नौ दस महीने सूखे पड़े रहते हैं। हमने स्थितियां ही ऐसी बना दी हैं।
पहले लोग नेकी हर समय, हर मौसम में कर लेते थे। दरिया भी हर मौसम में बहा करते थे। नेकी की और फटाफट दरिया में डाल आए। नेकी को संभाल कर नहीं रखना पड़ता था कि जब दरियां में पानी होगा तब बहा कर आएंगे। तब नेकियां भी बडी़-बडी़ होती थीं क्योंकि दरिया में पानी की कमी जो नहीं होती थी। अब नेकियां छोटी छोटी होती हैं। दरिया में पानी जो इतना कम होने लगा है। कई बार तो दरियां सूखे होते हैं तो नेकियों को तब तक संभाल कर रखना पड़ता है जब तक दरिया में बाढ़ न आ जाए।
तो अब लोग को नेकियों को लंबे समय तक संभाल कर रखने की आदत ही पड़ गई है। पांच पांच साल तक संभाल कर रखते हैं और फिर तब कभी चुनावी दरिया में बहाते हैं। एक चुनावी दरिया में नहीं बहाया तो अगले चुनावी दरिया में बहाने के लिए संभाल कर रखनी पड़ जाती हैं या फिर उससे अगले के लिए। दस पन्द्रह वर्ष तक नेकियों को संभाल कर रखने के लिए बड़े बड़े मकान बंगले चाहिए होते हैं। इसीलिए हमारे सरकार जी ने भी इस साल एक बड़ा मकान बनवाया है।
एक मित्र हैं। निगम पार्षद हैं। सहपाठी रहे हैं तो मित्रता मानते हैं। उनकी मित्रता भी दरिया की तरह से है। चुनावी मौसम में उफान मारने लगती है और बाकी समय ठंडी पड़ी रहती है। जब हमारे मोहल्ले में चुनावी सभा के लिए आते हैं तो हमें साथ लेकर चलते हैं। लोगों को बताते हैं कि डॉक्टर साहब और हम तो एक ही स्कूल में पढ़े हैं। एक साथ ही क्लासें बंक की हैं और एक साथ ही बैठ कर एग्जाम की तैयारी की है। बाकी समय कोई जिक्र भी कर दे तो पूछते हैं, कौन डॉक्टर से डॉक्टर साहब? अच्छा फलाने मोहल्ले वाला। हां, हां ठीक है।
हां तो, उन निगम पार्षद मित्र को एक ही शौक है। नित नई कमीज पहनने का। हर रोज कमीज पर दाग जो लग जाता है तो नित नई पहनते हैं। वैसे भी उनके पास सरकारी फंड बस इतना ही है कि रोज एक नई कमीज ही पहन सकें। इसके चलते उनके पास हजारों कमीजें इकट्ठी हो गई हैं। कुछ लोगों के पास इतना सरकारी फंड होता है कि दिन में चार छह कमीजों पर दाग लग जाता है और उन्हें दिन में चार छह बार कमीज बदलनी पड़ती है। इच्छा तो हमारे मित्र की भी है कि वे एमएलए, एमपी बन सकें तो ज्यादा कमीजों पर दाग लगें और रोज ज्यादा कमीज बदल सकें।
एक बार अकेले में मिले। बोले, नया मकान बनवा रहा हूं। मैंने कहा, क्यों इतना बड़ा, मकान तो है ही। और रहते भी अकेले ही हो। भाभी जी को तो गांव में ही छोड़ा हुआ है। बच्चा भी कोई नहीं है। फिर नया मकान किस लिए? बोले, डॉक्टर, तुझसे क्या छिपाना। मैं तो फकीर आदमी हूं, छोटी सी कुटिया में भी रह लूंगा। पर क्या करें, कमीजें बहुत इकट्ठी हो गई हैं। इस पुराने घर में नहीं समा रही हैं। बस उन्हीं के लिए नया घर चाहिये।
मैंने सुझाया, अरे, इसमें मकान बनाने जैसी क्या बात है। मुझे पता है, एक बार पहनी कमीज तुम दोबारा पहनते नहीं हो। तो तुम कमीजों को बांट क्यों नहीं देते हो। अब तो दस वर्ष होने आए, रोज नई कमीज बदलते हुए। तीन हजार से अधिक कमीजें इकट्ठी हो गई होंगी। एक कमीज बांटने का मेला लगा दो अपने क्षेत्र में। नेकी भी हो जाएगी और नाम भी। और इन कमीजों से भी निजात मिल जाएगी।
देखो भई, राज की बात है। नेता बिना चुनाव के तो छींकता भी नहीं है। तुम देखते नहीं हो, जैसे ही चुनावों की आहट आती है, कामों की और वादों की लाइन लग जाती है। अबकी बार चुनाव आएगा तो कमीजों का भी मेला लगा देंगे। पिछले चुनाव में ही लगाना तय था पर वह तो माता जी का स्वर्गवास काम आ गया। कमीजें बांटनी ही नहीं पड़ीं। सहानुभूति वोट मिल गए और कमीजें बच गईं। मैं सोचता हूं, इस बार भी कमीजें बच गईं तो अगली बार और अधिक बांट पाऊंगा। इसीलिए नए मकान की जरुरत है। और इस बार तो वह ठेकेदार, वही एक ही तो है जिसे मैंने सारे के सारे ठेके दिए हैं, मकान बनवाने के लिए तैयार भी है।
मुझे पता है, जब चुनाव आने वाले होंगे तो वे ऐसी ऐसी नेकियां करेंगे, और ऐसी ऐसी नेकियों का बखान करेंगे, जिन्हें डालने के लिए चुल्लू भर पानी भी बहुत हो। वोट के लिए वायदों की बाढ़ लगा देंगे। पुरुषों के लिए तो एक ठो ठर्रा ही काफी है, महिलाओं के लिए भी कुछ वायदा करेंगे।
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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