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यूक्रेन में चल रहे संघर्ष और युद्ध-विरोधी आंदोलन के परिपेक्ष्य

शांति के लिए काम करने वाले एबी मार्टिन और ब्रायन बेकर रूस-यूक्रेन संघर्ष के सिलसिले में युद्ध विरोधी आंदोलन की दिशा में चर्चा करने के लिए आपस में मिले
ukraine

यूक्रेन के हालिया घटनाक्रमों ने दुनिया भर के लोगों को झकझोरकर रख दिया है और लोग अवाक हैं।इसके साथ ही इसने दुनिया भर के उन तमाम लोगों के सामने एक अहम परेशानी पैदा कर दी है, जो शांति के लिए लड़ते रहे हैं। युद्ध-विरोधी कार्यकर्ताओं और जनांदोलनों ने पिछले कुछ महीनों से इस बात को सामने रखने की कोशिश की है कि संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो ने रूस और यूक्रेन के बीच के तनाव को बढ़ाने में किस तरह योगदान दिया है। आज की स्थिति का विश्लषण करने वाले कई जानकार नाटो और अमेरिका की ऐतिहासिक भूमिका को कम करने और रूस को ही दोष देने का प्रयास करते हैं।

ANSWER (Act Now to Stop War and End Racism) गठबंधन के लंबे समय से युद्ध-विरोधी कार्यकर्ता रहे ब्रायन बेकर और द एम्पायर फ़ाइल्स फ़िल्म के निर्माता और साम्राज्यवाद-विरोधी एबी मार्टिन नाटो के और इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और यूक्रेन संकट पर गहन चर्चा में शामिल हुए। शांति कार्यकर्ता मार्टिन और बेकर, जो संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे "बदगुमान" देश में संगठित हैं, उनका मक़सद इस युद्ध-विरोधी आंदोलन की तरफ़ से दुनिया भर के मज़बूत तबके को शांति के पक्ष में करने के लिए ज़रूरी जानकारी मुहैया कराने में मदद करना है। मार्टिन ने जिन अहम सवालों के साथ इस चर्चा को आगे बढ़ाया,वे सवाल थे: "हम यहां तक पहुंचे कैसे ? हम यहां से जायेंगे कहां ? और हमें उस आंदोलन में लगे उन लोगों को जानने की ज़रूरत ही क्या है, जो युद्ध का विरोध करते हैं और शांति का आह्वान करना चाहते हैं ?"

इस टकराहट की नौबत की वजह क्या?

सोवियत संघ की टूट, नाटो ने तोड़े वादे

वियतनाम के ख़िलाफ़ लड़े गये अमेरिकी युद्ध के बाद युद्ध के ख़िलाफ़ कार्य कर रहे ब्रायन बेकर ने अहम ऐतिहासिक संदर्भ को सामने रखते हुए इस चर्चा की शुरुआत की। जब सोवियत संघ अपने वजूद में था, तब समाजवादी देशों के गठबंधन की शक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यवादी खेमे की शक्ति को संतुलित कर पाने में सक्षम थी। यह संतुलन जिस अहम हिस्से पर टिका हुआ था,वह था: सोवियत संघ और अमेरिका दोनों के पास परमाणु हथियार का होना। दुनिया की कोई भी शक्ति दूसरे के विरुद्ध जंग इसलिए नहीं जीत पायी, क्योंकि हर एक के पास अनर्थ कर देने वाले विनाशकारी हथियार थे।

बेकर के मुताबिक़, "इसका मतलब यह नहीं है कि युद्ध हो ही नहीं रहे थे...वियतनाम युद्ध हुआ था, कोरियाई युद्ध भी हुआ था। इस तरह के और युद्धों का भी नाम आप ले सकते हैं, लेकिन हां,ये युद्ध पहले और दूसरे विश्वयुद्ध की पुनरावृत्ति नहीं थे। जहां तक दूसरे विश्व युद्ध की बात है,तो उस युद्ध के पांच या छह सालों में 100 मिलियन लोग मारे गये थे, और उस समय की पूरी विश्व व्यवस्था की बुनियाद हिल गयी थी और 1945 तक वह खंडहर बनकर रह गयी थी।"

हालांकि, 1991 में सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद संयुक्त राज्य की विदेश नीति नाटकीय रूप से बदल गयी थी। बेकर ने कहा, "संयुक्त राज्य अमेरिका के नीति निर्माताओं ने 1991 में शुरू करते हुए एक ऐसी विश्व व्यवस्था, स्थापित की,जिसमें आख़िरकार नवरूढ़िवाद,यानी कि मुक्त बाजार पूंजीवाद और एक हस्तक्षेपवादी विदेश नीति पर ज़ोर दिया गया,ताकि संयुक्त राज्य अमेरिका बाक़ी दुनिया पर एकध्रुवीय अधिकार का इस्तेमाल कर पाने में सक्षम हो।"

यूएसएसआर के विघटन से दो साल पहले ही बर्लिन की दीवार गिर गयी थी। नाटो के लिए ये घटनाक्रम विदेश नीति में एक अहम बदलाव लेकर आये। बर्लिन की दीवार का गिरना कितना अहम था,इसे इस बात से समझा जा सकता है कि बर्लिन की दीवार का एक टुकड़ा नाटो मुख्यालय के बाहर आज भी रखा हुआ है। (फ़ोटो: जिम गैरामोन / संयुक्त राज्य अमेरिका का रक्षा विभाग)

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व समाजवाद के फैलाव को रोकने के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों ने उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) का गठन किया। लेकिन,समाजवादी खेमे के पतन के बाद भी इस नाटो को भंग नहीं किया गया,बल्कि नाटो ने पूर्वी यूरोप के पूर्व सोवियत गणराज्यों में भी अपना विस्तार किया। इससे नये पूंजीवादी रूसी फ़ेडरेशन की सुरक्षा से जुड़ी चिंता को पैदा कर दिया। यह विस्तार अमेरिका की ओर से यूएसएसआर को दिये गये उस आश्वासन के बावजूद किया गया था कि "नाटो के मौजूदा सैन्य अधिकार क्षेत्र का एक इंच भी पूर्वी दिशा में नहीं फैलेगा।"

जिन देशों पर अमेरिका और नाटो ने हमला किया था, उन देशों में इराक़, लीबिया और सीरिया शामिल थे। हालांकि, जिस समय इराक़ और लीबिया में लूट-खसोट और तबाही का खेल खेला जा रहा था,उस दौरान रूस ने किसी तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं किया था।आख़िर में फ़ेडरेशन ने तब उस खेल की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा दिये थे, जब संयुक्त राज्य अमेरिका सीरिया में असद सरकार को उखाड़ फेंकने पर आमादा था। जैसा कि बेकर ने बताया है कि रूसी सेना, सीरियाई अरब सेना और हिज़्बुल्लाह साथ मिलकर अमेरिकी हमले के ख़िलाफ़
"उठते तूफ़ान को मोड़ पाने" में सक्षम हुए थे।

नाटो विस्तार के इस सवाल के केंद्र में यूक्रेन

इस सिलसिले में रूसी फ़ेडरेशन लगातार एक सीमा रेखा खींचती रही है और वह यह है कि यूक्रेन को नाटो में शामिल नहीं होना चाहिए। जैसा कि बेकर ने कहा कि रूस अपने इस बात में मज़बूती से यक़ीन करता है कि "क्रीमिया में रूस के पास स्थित काला सागर नौसैनिक अड्डा उनका सबसे बड़ा सैनिक अड्डा है,लेकिन वह रूस के ख़िलाफ़ परमाणु हथियारों वाले नाटो का सैनिक अड्डा नहीं बनने जा रहा है।"

हालांकि, जैसा कि बेकर का कहना है अमेरिकी सरकार "युद्ध की आदी" है, वह इस सीमा रेखा को पार करने को लेकर अड़ी हुई है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने यूक्रेनी राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच के ख़िलाफ़ 2014 के तख़्तापलट का समर्थन किया था, जिसमें साफ़ तौर पर नज़र आने वाले फ़ासीवादियों ने महीनों के विरोध के बाद यूक्रेन की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया था। यूक्रेन के ये फ़ासीवादी चाहते थे कि यह देश नाटो में शामिल हो जाये, क्योंकि वे जानते थे कि अगर वे ऐसा करते हैं, तो संयुक्त राज्य अमेरिका का उन्हें समर्थन मिल पायेगा। जैसा कि बेकर ने बताया, "जहां तक विदेश नीति की बात है, तो संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार की नीति ऐतिहासिक रूप से फ़ासीवाद विरोधी नीति नहीं रही है। मेरा मतलब है कि अमेरिका उन ताक़तों के साथ भी काम कर सकता है, जिसमें धुर दक्षिणपंथी फ़ासीवादी ताक़तें भी शामिल हों...इसलिए फ़ासीवादियों को पता है कि अमेरिका फ़ासीवाद के साथ तबतक सहयोग करने के लिए तैयार रहता है, जब तक कि वे अमेरिका की बोली बोलते हैं।

कीव में मार्च करते आज़ोव बटालियन के लोग। आज़ोव यूक्रेन में एक धुर मिलिशिया समूह, जिसे 2014 के तख़्तापलट के बाद आख़िरकार नेशनल गार्ड में शामिल कर लिया गया था। इसका लोगो,यानी प्रतीक चिह्न भी नाज़ी पार्टी का प्रतीक चिह्न "वुल्फसैंगल" ही है।

2014 के तख़्तापलट के बाद से यूक्रेन में फ़ासीवादियों की राजनीतिक ताक़त कम होती गयी है। हालांकि, संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो ने तब से यूक्रेन में लगातार हथियारों को पहुंचाया है, जिसमें डोनेट्स्क और लुहान्स्क में रूसी समर्थित अलगाववादियों से लड़ने वाली यूक्रेनी सेना भी शामिल है। एबी मार्टिन ने कहा: "सरकार गिराने का मतलब हिंसा का अंत नहीं था... जो लोग इन विवादित क्षेत्रों में रह रहे हैं, जो कि डोनेट्स्क और लुहान्स्क थे, जो कि डोनबास के केंद्र में हैं, उन लोगों के लिए तो यह लड़ाई कभी रुकी ही नहीं।"

बेकर के मुताबिक़, जिस तरह से अमेरिका और नाटो की ओर से यूक्रेन को हथियारों की बिक्री की जाती रही है,उसे अगर "रूसी सरकार के नज़रिये से" देखा जाये,तो यूक्रेन औपचारिक तौर पर तो नहीं,लेकिन व्यावहारिक तौर पर नाटो का एक वास्तविक सदस्य ही है, क्योंकि इससे रूस की उस कथित सीमा रेखा और "रेड लाइन" का उल्लंघन होता है,जिस कारण से वह बार-बार कहता रहा है कि यूक्रेन को इस गठबंधन में शामिल नहीं होना चाहिए।

रूस ने यूक्रेन पर हमला करने का फ़ैसला क्यों लिया?

जिस वजह से पुतिन ने हमला किया,उसे बेकर ने कुछ इस तरह बताया, "रूस की पुतिन सरकार ने इस निष्कर्ष पर पहुंचने का फ़ैसला कर लिया है कि पश्चिम के साथ तुष्टिकरण का दौर ख़त्म हो चुका है, और वह रूस की सुरक्षा के लिए ज़रूरी एक बफ़र जोन को फिर से बनाने के लिए सैन्य बल का इस्तेमाल करने जा रहे हैं।" मार्टिन ने इस बात की पुष्टि की, "रूसी क़दम उठाने और ऐसा कहने की पीछे की वजह यही है कि वह इसे अब और सहन करने नहीं जा रहे।"

रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने 21 फ़रवरी को अपने एक संबोधन में यूक्रेन पर किये गये हमले को सही ठहराने को लेकर कई कारण बताये। उनमें एक प्रमुख कारण यूक्रेन को उस "नाज़ीकरण" से मुक्ति दिलवाना था,जिसके तहत 2014 में फ़ासीवादियों ने सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया था। हालांकि, जैसा कि मार्टिन चेतावनी देते हुए कहते हैं, "मुझे लगता है कि एक विशाल पूंजीवादी देश के पीआर को बेहिचक तौर पर अहमियत नहीं देना अहम बात है।" इस यूक्रेनी शासन में फ़ासीवादी तत्वों का असर काफ़ी हद तक कम हो गया है। बेकर कहते हैं, "ज़्यादतर यूक्रेनियाई नाज़ी नहीं है... 2019 के संसदीय चुनावों में भाग लेने वाले वे राजनीतिक ताक़तें, जिन्होंने मिलकर एक संयुक्त दक्षिणपंथी ब्लॉक का गठन किया था और जो कि फ़ासीवादी ताक़तें हैं, उन्हें तक़रीबन 2.1% वोट ही मिले थे।"

बेकर के मुताबिक़,इस रूसी हमले का असली मक़सद रूस की ओर से अमेरिका और नाटो को यह संकेत देना है कि नाटो के प्रभाव को रूसी क्षेत्र के भीतर एक इंच की दूरी तक भी आने की इजाज़त नहीं है और इस लिहाज़ से "तुष्टिकरण अब ख़त्म हो चुका है"। हालांकि, सुरक्षा को लेकर ये वाजिब चिंतायें हैं, लेकिन मार्टिन और बेकर दोनों इस बात को लेकर सहमत हैं कि इस हमले की निंदा की जानी चाहिए। यह हमला यूक्रेनी और रूसी आबादी दोनों के लिए एक आपदा है, जो सोवियत संघ के तहत "एक ही नागरिक थे...और ये लोग फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ मिल-जुलकर काम कर रहे थे"।

अमेरिका यूक्रेन के इस संघर्ष की आग में घी क्यों डाल रहा है ?

यूक्रेन में चल रहे मौजूदा संघर्ष की जड़ में अमेरिका और नाटो की ओर से पैदा किये जा रहे तनाव में बढ़ोत्तरी है। रूस को नाटो में शामिल होने की इजाज़त नहीं देने के बावजूद नाटो लगातार आगे बढ़ने और रूसी क्षेत्र के क़रीब जाने की कोशिश करता रहा है। जैसा कि बेकर बताते हैं, "अगर (रूसी फ़ेडरेशन) को इस साम्राज्यवादी समूह में शामिल कर लिया गया होता, तो वे किसी हद तक इससे ख़ुश होते।" मार्टिन ने बताया कि अगर उन्हें शामिल होने की दावत दी जाती, तो रूस "(नाटो में शामिल हो गया होता)"। अगर ऐसा है, तो सवाल पैदा होता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक शक्तिशाली पूंजीवादी देश रूस को शांतिपूर्वक नाटो में शामिल होने की इजाज़त क्यों नहीं दी? इसके बजाय टकराव के रास्ते क्यों चुने गये ?

इस सवाल के जवाब में बेकर की दलील यह है कि "अगर संयुक्त राज्य अमेरिका रूस को एक बराबरी वाला देश इसलिए मान लेता, क्योंकि यह अब एक पूंजीवादी नेतृत्व वाला देश है, तो जर्मनी और यूरोप के दूसरे देश रूस की तरफ़ आगे बढ़ते।ऐसा इसलिए,क्योंकि ये देश और ख़ासकर जर्मनी स्वाभाविक रूप से रूस के व्यापारिक साझेदार और राजनीतिक भागीदार हैं। पूंजीवादी रूस को लेकर सहयोगात्मक रवैये के बजाय अमेरिका के इस विरोधी रुख़ अपनाने की असली वजह यह है कि यूरोप में "अमेरिका को अपने आधिपत्य के नुक़सान का डर है।"

संयुक्त राज्य अमेरिका ने लगातार इस संघर्ष को बढ़ाते रखने का रास्ता चुना है। यह एक ऐसा विकल्प है, जिस वजह से यूक्रेन पर यह विनाशकारी हमला हुआ है।

क्या है समाधान?

इस अमेरिकी युद्ध-विरोधी आंदोलन की एक केंद्रीय मांग "नाटो को भंग" करने की रही है। बेकर कहते हैं, "(नाटो) कोई फ़ासीवाद विरोधी गठबंधन नहीं है, दरअस्ल यह एक कम्युनिस्ट-वरोधी, समाज-विरोधी, मज़दूर-विरोधी गठबंधन है। नाटो बुनियादी तौर पर एक आक्रामक सैन्य गठबंधन है। इसका गठन समाजवाद के फैलाव को रोकने के लिए ही किया गया था। इसका गठन पश्चिमी यूरोप को मूल रूप से अमेरिकी साम्राज्यवाद के पूरी तरह से अधीन बनाने के लिए किया गया था।" एक हमलावर गठबंधन के तौर पर नाटो संघर्ष को रोकता नहीं, बल्कि इसे बढ़ावा देता है, जैसा कि लीबिया, इराक़ और सीरिया जैसे देशों में देखा जा सकता है। अगर कोई देश अमेरिका और नाटो के हिसाब से नहीं चलता है, तो "अमेरिकी इसे वजूद के ख़तरे के तौर पर देखते हैं,मानो यह किसी माफ़िया की तरह हो। वे कहते हैं, 'ठीक है कि अगर यह देश दिखा सकता है कि यह तटस्थ है, स्वतंत्र है,और यह कि साम्राज्यवाद का अनुसरण नहीं कर रहा है, तो दूसरे देशों के लिए भी तो यही कहा जा सकता है कि वे भी स्वतंत्र हो सकते हैं।'"

हालांकि, भले ही नाटो को भंग कर दिया जाये और अमेरिकी आधिपत्य ख़त्म हो जाये, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि एक बहुध्रुवीय विश्व इसका समाधान नहीं है। बेकर कहते हैं, "हमारी यह दुनिया दूसरे विश्वयुद्ध तक एक बहुध्रुवीय दुनिया ही तो थी। लेकिन,इसका क्या नतीजा हुआ ? बहुध्रुवीय विश्व हमें पहले विश्वयुद्ध तक लेकर आ गया, वह बहुध्रुवीय विश्व हमें दूसरे विश्वयुद्ध भी दिखा गया।"

"दुनिया का बहुध्रुवीय होना ही इसका हल नहीं है। इसका एकलौता समाधान समाजवाद है...यह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसे युद्ध की ज़रूरत इसलिए नहीं है, क्योंकि यह प्रतिस्पर्धा पर आधारित नहीं है। यह घर के लोगों से लेकर दुनिया भर के लोगों के बीच मानवीय सहयोग पर आधारित व्यवस्था है।"

हम आगे की तैयारी कैसे करें?

बतौर युद्ध-विरोधी कार्यकर्ता बेकर शांतिपूर्ण आंदोलन की सलाह देते हैं। बेकर उस ANSWER गठबंधन के निदेशक हैं, जिसे 11 सितंबर के हमलों के तीन दिन बाद इस मक़सद के साथ स्थापित किया गया था कि युद्ध को लेकर चलायी जा रही अमेरिकी मुहिम का विरोध किया जा सके। शुरुआत में इसे लेकर अमेरिकियों की ओर से जो प्रतिक्रिया आयी, में अपमानजनक थी। उनके मुताबिक़, “पहले तो लोगों ने हम पर थूका। मेरा मतलब है कि हम वास्तव में अलग-थलग कर दिये गये।” लेकिन उन्होंने आगे कहा, "समय के साथ वह स्थिति ख़त्म होती गयी... जैसे-जैसे समय बीतेगा,वैसे-वैसे लोग यह समझ पायेंगे कि हम जो कुछ कह रहे हैं, वास्तव में वही सच है, हालांकि.जो कुछ इस समय हो रहा है,वह बहुत ही मुश्किल में डालने वाला है। इसलिए, हमें अपने सिद्धांतों पर क़ायम रहना होगा। हमें युद्ध और सैन्यवाद के ख़िलाफ़ आम लोगों को जागरूकत करने के अवसरों की तलाश करनी होगी।"

बेकर साफ़ तौर पर बताते हैं कि इस युद्ध विरोधी मुहिम के लिए मीडिया और सरकारी दुष्प्रचार के ख़िलाफ़ "विचारों की उस लड़ाई को जीतना" अहम है, जो इस युद्ध की वकालत कर रहा है। युद्ध का वह ख़तरा, जो यहां संयुक्त राज्य अमेरिका से निकलता है, वह दरअस्ल अमेरिकी लोगों तक यहां के प्रतिष्ठान की ओर से मुहैया कराये गये औचित्य और तर्क पर आधारित होता है और फिर मीडिया में वही प्रतिध्वनित होता है।" बेकर के मुताबिक़, अगर युद्ध-विरोधी कार्यकर्ता अमेरिकी मज़दूर वर्ग को अपने पाले में करने को लेकर ख़ुद को समर्पित कर दें, तो तबाही पैदा करने वाले कई और टकराव की संभावना कम हो जायेगी। उन्होंने आगे कहा, "मज़दूर तबक़े और ग़रीबों को अपनी तरफ़ करते हुए उनके बीच युद्ध विरोधी राजनीतिक शिक्षा देकर हम एक ऐसी मज़बूत ताक़त का निर्माण कर सकते हैं, जो असली बदलाव ला सकती है।"

साभार : पीपल्स डिस्पैच

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