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हिमाचल प्रदेश में बढ़ते भूस्खलन की वजह क्या है? लोग सड़कों का विरोध क्यों कर रहे हैं? 

हिमाचल प्रदेश के स्थानीय लोग जो चौड़ी और चिकनी सड़कों को लेकर उत्साहित थे, वे अब अवैज्ञानिक निर्माण के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं और नियमित अंतराल पर आंदोलन कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें अब हर रोज भूस्खलन से की समस्या से त्रस्त होना पड़ रहा है।
हिमांचल प्रदेश में बढ़ते भूस्खलन की वजह क्या है? लोग सड़कों का विरोध क्यों कर रहे हैं? 

हिमाचल प्रदेश में राष्ट्रीय राजमार्ग 7 पर, सोलन से नाहन हिल स्टेशनों के बीच की यात्रा आंखें खोल देने वाली है। यहां जगह-जगह गिरे हुए पेड़ों के ढेर लगे हुए हैं, परिणाम ये है कि पहाड़ की ढलान नंगी और वीरान नजर आती है, जो झाड़ियों और पेड़ पौधों से रहित हैं जो मिट्टी पर पकड़ बनाने के काम आते हैं।

इस सड़क पर दो दिनों तक सफर करने के बाद हमें 30 जुलाई को सिरमौर जिले के काली ढांक गांव के पास भूस्खलन (150 मीटर) का एक व्हाट्सअप वीडियो (राष्ट्रीय राजमार्ग 707, पोंटा से शिलाई) प्राप्त हुआ। भूस्खलन ने इस इलाके की 50 पंचायतों के हजारों ग्रामीणों को बुरी तरह से प्रभावित किया है, जो अब बुनियादी सुविधाओं को पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सड़क के अगले एक पखवाड़े तक जाम रहने की संभावना है, जिसके चलते इस मार्ग पर यातायात पूरी तरह से ठप हो गया है।

एनएच-7 सड़क, नाहन के बडवास गांव से गुजरती है, जहां ठीक उसी समय एक और भूस्खलन हुआ था। गनीमत रही कि यहां से किसी के हताहत होने की खबर नहीं है। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के द्वारा भेजे गए वैज्ञानिकों के एक दल ने 3-4 अगस्त को काली ढांक स्थल का दौरा किया था, और इसके लिए पहाड़ों के तल पर चूना पत्थर के उत्खनन कार्य को दोषी ठहराया है। जीएसआई दल ने ढलान को मजबूत करने के उपाय सुझाए हैं, लेकिन इस पहाड़ी को एक बार फिर से बनने में कई वर्ष लग जायेंगे।

हकीकत तो यह है कि हिमालयी क्षेत्र में भूस्खलन की घटना अब रोजमर्रा की बात हो चुकी है। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले से एक बड़े भूस्खलन की खबर आ रही है, जिसमें 40 लोगों के मलबे के नीचे दबे होने की खबर है। तेरह शवों को बरामद कर लिया गया है, जबकि 30 अन्य अभी भी मलबे के नीचे दबे हुए हैं। कुछ हफ्ते पहले, इस जिले में अलग-अलग भूस्खलनों में नौ पर्यटकों की मौत हो गई थी और तीन लोग घायल हो गए थे।

सामाजिक एवं पर्यावरणीय दुष्परिणामों की चिंता किये बगैर तीव्र गति से सड़क निर्माण और सड़कों के चौड़ीकरण का कार्य संपन्न किया जा रहा है। डायनामाइट के बार-बार इस्तेमाल, गलत तरीके से ढलान की कटाई और अंधाधुंध तरीके से मलबे के निस्तारण ने एक ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है, जहाँ स्थानीय लोग जो कल तक संपर्क मार्ग के लिए दबाव डाल रहे थे, अब कड़े शब्दों में इस बात की शिकायत कर रहे हैं कि सड़क निर्माण के कारण कैसे जीवन एवं आजीविका का नुकसान हो रहा है।

900 किमी लंबे चार धाम सड़क मार्ग के किनारे पर आबाद गाँवों में रह रहे लोग आज लामबंद हो रहे हैं, आंदोलन कर रहे हैं और नियमित तौर पर धरने आयोजित कर रहे हैं। सत्तारूढ़ दल के भीतर चार धाम परियोजना को लेकर एक अलग ही किस्म की सनक है, इस परियोजना के माध्यम से यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ जैसे तीर्थस्थलों को आपस में जोड़ने का प्लान बनाया है।

उत्तराखंड के पूर्व मंत्री दिनेश धनई ने पिछले हफ्ते टिहरी जिले में अंधाधुंध तरीके से मलबे के निस्तारण के विरोध में एक दिवसीय धरना दिया था। धनई का कहना था “यह कीचड़ का ढेर अब घरों और खेतों में बहकर जा रहा है और फसलों को बर्बाद कर रहा है।” उन्होंने शिकायती लहजे में बताया कि बरसात के मौसम के दौरान अब यह एक सालाना विशेषता बन चुकी है।

केदारनाथ घाटी के पास के गांव में रहने वाली सुशीला भंडारी भी चार धाम विस्तारीकरण के परिणामों से जूझ रही हैं। भंडारी कहती हैं “सड़कों के चौड़ीकरण और स्थानीय जलविद्युत परियोजनाओं के लिए आवश्यक सुरंगों के निर्माण हेतु ठेकेदारों द्वारा डायनामाइट का इस्तेमाल किया जाता है। इसके कारण हम गाँव वालों को अधिकाधिक भूस्खलनों का सामना करना पड़ता है। हम घरों से बाहर निकलने के नाम से भी भयभीत हैं और कई हफ्तों से घरों के भीतर कैद हैं। कई ग्रामीणों की मौत हो चुकी है और कई अन्य घायल हैं, लेकिन हमारे पास इसका सटीक आँकड़ा नहीं है, क्योंकि प्रशासन पूरी सूची जारी करने से इंकार कर रहा है।”

टिहरी बाँध के निर्माण के विरोध में आंदोलन करते समय भंडारी को 54 दिनों की जेल हुई थी। न्यायाधीश ने उनसे जमानत के लिए अपील करने की सलाह दी थी। उन्होंने यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि वे हिमालय और इसकी पारिस्थितिकी को बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, और यदि जरूरत पड़ी तो वे अपनी बाकी की बची जिंदगी भी जेल में काटने के लिए तैयार हैं। भारी दुःखी स्वर में उन्होंने बताया “सड़क निर्माण और 500 से उपर पनबिजली परियोजनाओं के साथ-साथ सुरंगों के जाल ने हिमालय को अंदर से खोखला कर दिया है। प्राचीन पेड़ों को काटा जा रहा है।”

इस सबके बावजूद, भाजपा नेताओं के बीच में केदारनाथ अभी भी एक लोकप्रिय गंतव्य बना हुआ है। वे निराश स्वर में बताती हैं “जब गृहमंत्री अमित शाह केदारनाथ आये थे तो कार्यकर्ताओं का एक समूह उनसे मुलाक़ात करने गया था। उन्होंने हमें आश्वस्त किया था कि इन पहाड़ों पर अब से डायनामाइट का इस्तेमाल नहीं किया जायेगा, लेकिन यह बंद नहीं हुआ है। मैंने इस बाबत कई वीडियो बनाये कि कैसे नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं और इन्हें उनके पास भिजवा दिया था लेकिन इस सबका कोई फायदा नहीं हुआ।”

गंगा आह्वान नामक एनजीओ से सम्बद्ध एक पर्यावरणविद हेमंत ध्यानी का मानना है कि सड़क निर्माण कार्य को पर्यावरण के साथ एक नाजुक संतुलन बनाकर रखना चाहिए, विशेष तौर पर पहाड़ी क्षेत्रों में। उन्होंने कहा “वैज्ञानिकों का मत है कि हिमालयी इलाके 5.5 मीटर चौड़ी सड़कों को वहन करने में समर्थ हैं। 2018 तक, सरकार द्वारा इस नियम पालन किया जाता रहा। चार धाम को 10 मीटर तक चौड़ा करने का फैसला किया गया है। दुर्भाग्य से, चौड़ीकरण से ये ढलान और ज्यादा नष्ट हो रहे हैं।”

पर्यावरण से जुड़े कार्यकर्ताओं का मानना है कि शुरू-शुरू में ग्रामीण उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री सड़क योजना (पीएमएसवाई) के तहत सड़क निर्माण या चौड़ीकरण को लेकर बड़े पैमाने पर जोर देने के विरोध में नहीं थे। लेकिन जब सड़क परिवहन मंत्रालय ने पर्यावरणीय मंजूरियों के बिना ही चार धाम परियोजना के काम को आगे बढ़ाना शुरू किया, तबसे ही वे अधिकाधिक सशंकित होते जा रहे हैं।

ध्यानी कहते हैं “सड़क परिवहन मंत्रालय ने 900 किलोमीटर लंबे चार धाम सड़क को चौड़ा करने के लिए 12,000 करोड़ रूपये आवंटित किये हैं, जो 8 से 10 करोड़ रूपये प्रति किलोमीटर से अधिक की राशि बनती है। जबकि अन्य पीएमएसवाई परियोजनाओं में इसके लिए बजट लगभग 80 लाख रूपये प्रति किलोमीटर का ही है।

गंगा आह्वान से जुड़ीं मल्लिका भनोट भी भूस्खलन से प्रभावित ग्रामीणों के साथ मिलकर काम करती हैं। वे कहती हैं, “जितनी सिफारिश की गई थी, उसकी तुलना में पहाड़ों को बेहद तीव्र गति से काटा जा रहा है। हालाँकि, ढलानों की सुरक्षा के उपाय, जैसे सुरक्षा दीवारों, की उंचाई को अपेक्षाकृत काफी कम रखा जा रहा है। अफसोसजनक तथ्य यह है कि ढलानों के साथ बहकर आने वाले पानी के रास्ते को मोड़ने के लिए आस-पास में कोई नाला नहीं है। वे हिमालयी क्षेत्रों में कहर बरपा रहे हैं।”

भंडारी व अन्य चिंतित ग्रामीणों ने तीन साल पहले नैनीताल उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की थी। उनकी याचिका में चेताया गया था कि “सड़कों के चौड़ीकरण करने के लिए पहाड़ों की तली को और काटने या पेड़ों की कटाई से भूस्खलन की गति अभूतपूर्व गति से बढ़ सकती है।” उन्होंने लिखा था कि यदि ऐसा होता है तो मौजूदा राजमार्ग तक अवरुद्ध हो सकते हैं, जो फिर “सामान्य यातायात की रफ्तार के लिए भी नुकसानदायक होगा।” ऐसा लगता है कि उनकी बात सच साबित हुई है।

हर भूस्खलन के बाद, एनडीआरएफ और आईटीबीपी की टीमें लोगों को बचाने में मदद करने के लिए आती हैं और भूस्खलन के लिए प्रमुख कारणों के बारे में एक समीक्षा दायर करती हैं। एक वरिष्ठ एनडीआरएफ अधिकारी ने नाम न जाहिर किये जाने की शर्त पर बताया कि बढ़ते भूस्खलन के पीछे जलवायु परिवर्तन और बढ़ती मानवजनित गतिविधियां हैं। हालाँकि, उनका कहना था कि ऐसी घटनाओं की रोकथाम के लिए किसी भी निवारक कदम को सूचीबद्ध नहीं किया गया है।

देहरादून स्थित सामाजिक कार्यकर्त्ता रीनू पॉल, जिन्होंने उत्तराखंड में अंधाधुंध तरीके से सड़क निर्माण कार्य को रोके जाने के सन्दर्भ में एक याचिका दायर की है, कहती हैं “सड़कों के निर्माण के लिए एक समग्र समन्वित योजना को बनाये जाने की आवश्यकता है। हम यहाँ पर एक विचित्र परिघटना को देख रहे हैं, जहाँ राजनीतिक प्रभाव के कारण कुछ गांवों को कई सड़कों से जोड़ा जा रहा है।” पॉल ने अपनी बात की पुष्टि के लिए मालदेवता और थत्यूड गाँवों का हवाला दिया।

देहरादून में वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. विक्रम गुप्ता कहते हैं कि उत्तराखंड में सड़क निर्माण एवं चौड़ीकरण के काम में किसी भी मानक संचालन प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया जा रहा है। गुप्ता कहते हैं “एक बार जब पहाड़ी ढलान को काट दिया जाता है, तो इसे तत्काल संरक्षित किया जाना चाहिए। दुःखद यह है कि हमारे राज्य में, किसी भी प्रक्रिया का पालन नहीं किया जाता है। स्वाभाविक तौर पर ये ढलान विफल साबित होंगे और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हमें साल भर निरंतर भूस्खलनों से दो चार होना पड़ता है।”

वे आगे कहते हैं “मेरे सहित वैज्ञानिकों के एक समूह ने हिमाचल प्रदेश में 44 भूस्खलन-संवेदनशील क्षेत्रों का अध्ययन किया था, जिनमें से पांच बेहद अस्थिर प्रकृति के थे। लेकिन हिमाचल में समस्या जलवायु परिवर्तन और संकेंद्रित वर्षा के कारण सीमित स्वरूप में देखी जा रही है।”

जेएनयू में प्रोफेसर एमेरिटस और भौतिक शास्त्री एवं पर्यावरणविद, विक्रम सोनी, पर्वतीय क्षेत्रों में चल रहे अनियोजित सड़क विस्तारीकरण से बेहद आशंकित हैं। सोनी कहते हैं “चीन की तरफ वाले हिमालय [कठोर चट्टानों से बने हैं] लेकिन भारत की तरफ यह आमतौर पर चिल्केदार पत्थरों से बने हैं, जो एक कमजोर तलछटी चट्टान से बनी है। इन सड़कों के आसपास की पारिस्थितिकी के साथ-साथ पेड़ों का आवरण और घास और झाड़ियाँ जो मिट्टी को बांधे रखने के लिए आवश्यक हैं, के फिर से पनपने में 30 साल लग जायेंगे। और पहाड़ी ढलानों पर जहाँ दो सडकों का निर्माण किया जा रहा है, वहां पर ढलान कभी भी ठीक नहीं हो सकता है।”

इतिहास हमें बताता है कि चार धाम एक ऐसी तीर्थयात्रा थी, जिसे पैदल चलकर किया जाता था, जो प्रकृति के साथ एक सहयात्री बनने का मौका प्रदान करता था। सोनी ने कहा “यहाँ पर उन्हें हाईवे तीर्थ में तब्दील कर दिया गया है। इन स्थानों पर जाने से जो कुछ मिलता है वह है डीजल का धुआं।”

वाहन यातायात के परिणामस्वरूप गंगोत्री ग्लेशियर पर हाल ही में ब्लैक कार्बन की परत में 400% की वृद्धि दर्ज की गई है। जलवायु परिवर्तन के गंभीर दुष्परिणामों के मद्देनजर, हमें चाहिए कि घाटियों को समुचित आराम दें ताकि वे फिर से खुद को पुनर्जीवित कर सकें। सड़क निर्माण और जरूरत से अधिक पर्यटन पर अंकुश लगाने की जरूरत है।

लेखिका एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Unscientific Road-Building Triggers Yet Another Himalayan Landslide

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