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यूपी: क्या मायावती के अलग चुनाव लड़ने का ऐलान बसपा के अस्तित्व को बचा पायेगा?

उत्तर प्रदेश में बसपा का जनाधार लगातार खिसकता जा रहा है, उसके कई क़द्दावर नेता पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों में चले गए। ऐसे में क्या मायावती के अलग चुनाव लड़ने का दांव क्या उनकी नैया पार लगा पाएगा।
Mayawati
Image Courtesy: Social Media

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जल्द विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। बसपा इन दोनों राज्यों में किसी भी दल के साथ किसी तरह का चुनावी समझौता नहीं करेगी।

ये बयान उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की अध्यक्ष मायावती का है। मायावती ने अपने 65वें जन्मदिन पर ऐलान किया कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव में बसपा अकेले अपने बलबूते पर चुनाव लड़ेगी और अपनी सरकार बनाएगी।

बसपा प्रमुख ने दावा किया कि उत्तर प्रदेश में पहले के समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के शासनकाल तथा अब बीजेपी के शासनकाल को भी लोग पसंद नहीं कर रहे हैं। वे बसपा को मौका देना चाहते हैं। उत्तराखंड में भी यही स्थिति है।

आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अगले साल 2022 में फरवरी-मार्च में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। फिलहाल दोनों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं।

हालांकि इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आगामी दिनों में ख़ासकर साल 2022 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा बिना गठबंधन के सहारे अपने अस्तित्व बचाने के संकट से उबर पाएगी या बसपा के इस कदम का फ़ायदा अन्य पार्टियों को होगा?

क्या है बसपा के अस्तित्व का संकट?

मायावती देश और उत्तर प्रदेश की सियासत में दलित राजनीति का प्रमुख चेहरा मानी जाती हैं। हालांकि अपने लंबे सियासी सफ़र में उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। उनकी पार्टी सूबे की सत्ता से कई बार बेदख़ल हुई तो कई बार सत्ता पर काबिज़ भी हुई हैलेकिन मौजूदा समय में एक के बाद एक चार चुनाव हारने और पार्टी नेताओं की बगावत ने उनकी राजनीति पर प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं।

साल 2007 में यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बहुजन समाज पार्टी का ग्राफ़ उसके बाद लगातार गिरता ही गया। साल 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्हें जहां 206 सीटें मिली थींवहीं साल 2012 में महज़ 80 सीटें मिलीं। साल 2017 में यह आंकड़ा 19 पर आ गया।

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को राज्य में एक भी सीट हासिल नहीं हुई। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के गठबंधन का उन्हें फायदा जरूर मिला, पार्टी को 10 सीटों पर जीत मिली। हालांकि लोकसभा चुनाव के बाद से ही गठबंधन के टूटने की खबरें सामने आने लगी थीं।

चुनावी राजनीति के सारे प्रयोग कर चुकी हैं मायावती

बहुजन समाज पार्टी पिछले नौ सालों से यूपी की सत्ता से बाहर है। हालांकि अपने सियासी सफ़र में मायावती गठबंधन के सारे प्रयोग कर चुकी हैं। मायावती चार बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं और इस दौरान उन्होंने कभी बीजेपी के साथ मिल कर सरकार चलाईतो कभी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ा।

राजनीति के जानकारों का मानना है कि अब मायावती में ना तो पहले की तरह जम़ीनी संघर्ष बचा है और ना ही अपने कैडर को बचाए रखने की इच्छाशक्ति। ऐसे में बसपा का जनाधार लगातार खिसकता जा रहा हैजिसकी वजह से सवाल उठता है कि मायावती के अलग चुनाव लड़ने का दांव क्या उनकी नैया पार लगा पाएगा।

सत्ता की ख़्वाइश और गठबंधन का धर्म

उत्तर प्रदेश राजनीतिक रूप से हमेशा सत्ता का केंद्र रहा है। यहां नब्बे के दशक में गठबंधन की राजनीति कुछ ऐसी रही कि बीजेपी और कांग्रेस को छोड़कर हर पार्टी एक-दूसरे के साथ आ गईं। कई बार पक्ष-विपक्ष में पार्टियां और चेहरे बदलते रहें तो कई बार गठबंधन की सरकारें।

मुलायम सिंह यादव जब साल 1989 में मुख्यमंत्री बनेतब उन्हें बीजेपी का समर्थन हासिल था। 1993 में पहली बार बसपा और सपा का गठबंधन हुआ और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हुए इस चुनाव में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा। लेकिन सपा-बसपा गठबंधन की यह सरकार जल्दी ही बिखर गई और 1995 में मायावती बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं।

साल 2002 में यूपी में बीएसपी और बीजेपी की मिली-जुली सरकार बनी लेकिन बहुत ज़्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई। एक साल बाद ही बीजेपी ने मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बनवाने में फिर मदद की।

इस दौरान बीजेपी और बसपा के बीच दरारें काफ़ी बढ़ चुकी थी और बसपा नेता मायावती ने बीजेपी के साथ किसी तरह का गठबंधन करने या समर्थन लेने-देने से तौबा कर ली थी।

राजनीतिक जानकारों के अनुसार मायावती ने जिनसे भी गठबंधन किया या जिस भी दल के साथ रहींउनसे उनके कभी अच्छे रिश्ते नहीं रहे। सपा के साथ भी जब गठबंधन हुआ तो अंदर से यही बात सामने आई कि अखिलेश का समर्थन नहीं करना है।

उत्तर प्रदेश का सियासी समीकरण

कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। 403 विधानसभा सीटों और 80 लोकसभा क्षेत्रों वाले उत्तर प्रदेश में एक बड़ी दलित आबादी रहती है। राज्य जाति-आधारित पहचान की राजनीति का गढ़ भी रहा है। दलित पुनरुत्थान से लेकर पिछड़ी जाति की राजनीति तकसभी ने यूपी में एक मजबूत अभिव्यक्ति पाई है।

विशेषज्ञ बताते हैं कि यूपी की कुल आबादी का 22 फीसदी हिस्सा दलितों का है। इसमें वह कई उपजातियों में बंटे हुए हैं। पश्चिमी यूपी में वाल्मीकियों की संख्या ज्यादा है। दलित मतों में बीजेपी पहले ही सेंध लगा चुकी है। 2014 के लोकसभा चुनाव2017 के विधानसभा चुनाव और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में वाल्मीकि समाज के लोगों ने बड़ी संख्या में बीजेपी को वोट दिए।

हालांकि प्रदेश में कांग्रेस पार्टी की सक्रियतादलितों के प्रति दिखाई जा रही हमदर्दी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी की सक्रियता को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दलितों पर बढ़ते अत्याचार पर लगातार मुखर रही कांग्रेस पार्टी और भीम आर्मी की नज़रें भी दलित वोट पर लगी हुई है। तो वहीं इक्का-दुक्का मामलों को छोड़कर ना तो मायावती और न ही उनकी पार्टी बसपा इन सब में कहीं खास हस्तक्षेप करती नज़र आती है।

विपक्ष की नई रणनीति

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक दलों ने नए समीकरण बनाने शुरू कर दिए हैं। राज्य की राजनीति में दो प्रमुख बदलाव दिख रहे हैं। पहला तो आगामी विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की एंट्री होने वाली है। तो वहीं समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव पहले ही बड़े दलों के साथ गठबंधन से किनारा कर छोटे दलों को जोड़ने का दांव चल चुके हैं।

पिछले विधानसभा चुनावों में पीएम मोदी के नाम पर बीजेपी को मिली बड़ी जीत के बाद अब 2022 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी पहली बार मैदान में उतरेगी। फिलहाल राज्य में बीजेपी को इस समय अपना दल का साथ मिला हुआ है जबकि उसके साथी रहे ओम प्रकाश राजभर अब उसके लिए चुनौती बनने को तैयार हैं। ऐसे में छोटे राजनीतिक दल आगामी चुनावों में अहम भूमिका निभा सकते हैं तो वहीं इन्हें साधना विपक्ष की नई रणनीति हो सकती है।

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