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भारत
राजनीति
विफल गुजरात मॉडल
महेश कुमार
28 Aug 2015

गुजरात मॉडल जिसकी गले फाड़-फाड़कर पूरे देश में वाह-वाही लूटने की कोशिश की गयी और जिसे पूरे देश के सामने एक मॉडल राज्य बना कर पेश किया वह आखिर औंधे मुहं गिर ही पड़ा. इसको वैसे गिरना भी था क्योंकि आप झूठ पर कब तक लोगों की आस और उम्मीद को बांधेगे. पटेल समुदाय द्वारा अगर आरक्षण की मांग की जा सकती है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं अन्य समुदायों की गुजरात में क्या स्थिति होगी. गुजरात में दलित और अन्य पिछड़ी जातियों की दशा काफी खराब है.आरक्षण के सवाल को लेकर पटेल समुदाय के लाखों लोग सडको पर उतर आये और पूरे प्रदेश में हिंसा फूट पडी. प्रधानमंत्री, मंत्री, संतरी और मुख्यमंत्री शांति बनाए रखने की नाकाम अपीलें कर रहे हैं. अनियंत्रित भीड़ सरकारी संपत्तियों को निशाना बना रही है। कहीं बसें जलाई जा रही हैं तो कहीं पटरियां उखाड़ने की कोशिशें की गईं. पुलिस अगर इस आन्दोलन को दबाने की नाकाम कोशिश न करती तो शायद हिंसा इस तरह का घिनौना रूप ने लेती और शायद इतने मासूम लोगों की जाने भी न जाती.

                                                                                                                 

पटेल समुदाय द्वारा 25 अगस्त को अहमदाबाद में हुई पाटीदार अमानत आंदोलन समिति की क्रांति रैली अपने आप में काफी प्रभावशाली रैली थी. सवाल यह उठता है कि प्रशासन या पुलिस को इस बात का अंदाजा नहीं था कि इस महारैली में इतने लोग आ जायेंगे? अगर पता था तो फिर प्रशासन या पुलिस ने इसे शांतिपूर्वक गुजर जाने के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किये. आरक्षण के सवाल को इस तरह से दुबारा से बहस की मुख्यधारा में लाने से क्या आरक्षण की बुनियाद पर फिर सवाल खडा करना है या वास्तविक रूप से पटेल समुदाय सामजिक और आर्थिक रूप से इतना पिछड़ा है कि उसे आरक्षण की जरूरत है. आखिर “जय सरदार, जय पाटीदार” के नारे के साथ लाखो लोग पूरे गुजरात से क्यों इतनी बड़ी तादाद में इकठ्ठा हुए?

इस सवाल का जवाब पाने के लिए थोडा सा गुजरात और उसमें पाटीदारों के संक्षिप्त इतिहास में जाना होगा. पाटीदार समुदाय गुजरात की आबादी का 12 प्रतिशत है और राजनैतिक रूप से सबसे प्रभावशाली तबका है. यह तबका मुख्यत; भाजपा का राजनीतिक समर्थक रहा है और नरेन्द्र मोदी की नीतियों को नतमस्तक करता रहा है. जब इस तबके ने दलितों और आदिवासियों के आरक्षण के विरुद्ध आन्दोलन चलाया तो भाजपा/आर.एस.एस. ने इनके इस विरोध को मुस्लिम समुदाय के विरोध की तरफ मोड़  दिया. यानी उनका आरक्षण विरोध भी दर्ज हो गया और साथ उनके गुस्से को मुस्लिम समुदाय की तरफ मोड़ कर अपनी राजनैतिक पकड़ इस समुदाय पर बना ली. अब चूँकि यह समुदाय भाजपा/आर.एस.एस. का पक्का समर्थक है तो फिर इसने इतना बड़ा आन्दोलन का कदम क्यों उठाया? पाटीदार असलियत में किसानी तबका है जो गुजरात में खेती के जरिए अपना जीवन-यापन करता है. कृषि से हुयी कमाई को यह तबका अन्य व्यापार में निवेश करता रहा है जैसे हीरे और कपड़ा उद्योग आदि में. अगर इस समुदाय के अमीर लोगो को छोड़ दे जिसमें पूंजीपति, हीरा व्यापारी, कपड़ा उद्योग के मालिक और राजनीती से जुड़े नेता शामिल है. तो बहुमत तबका माध्यम वर्ग से है जो अपना गुजर-बसर खेती, रोजगार और स्व-रोज़गार के जरिए करता है. पाटीदार समुदाय के सामने एक-साथ कई संकट आ खड़े हुए हैं. जिसमें खेती का संकट, बच्चों को अच्छी शिक्षा का संकट, विदेश में बसने की होड़ का संकट, और गरीब तबके के लिए रोज़गार का संकट. यह समुदाय इन सभी संकटों से जूझ रहा है. लेकिन इसमें सबसे बड़ा संकट कृषि का संकट है और इस संकट का खामियाजा पूरे देश के किसानों को आत्महत्या करके चुकाना पड़ रहा है. चूँकि पटेल समुदाय का बड़ा हिस्सा खेती पर निर्भर है और उनके लोग बर्बाद फसलों की वजह और कृषि में संकट के चलते आत्महत्याएं कर रहे हैं, यह इस समुदाय को नागवार गुजरा और उन्होंने इसका रास्ता निकालने के लिए आरक्षण की मांग की आड़ में सबसे पहले आरक्षण पर ही हमला बोल दिया. अगर आप पटेल समुदाय के नेता हार्दिक पटेल के भाषण को सुने तो वे कहते यहीं “या तो हमें आरक्षण दो, वरना आरक्षण को ख़त्म कर दो”, या फिर जिन नेताओं से उनकी नजदीकी के नाम जुड़ रहे हैं वे सभी आरक्षण विरोधी बयानों के रूप में जाने जाते रहे हैं. ऐसा नहीं कि उन लोगों ने कभी सीधे तौर पर आरक्षण का विरोध किया है बल्कि वे हमेशा यह कहते सुने गए हैं कि आरक्षण जात के आधार पर नहीं बल्कि आर्थिक आधार पर होना चाहिए.

यह बात सबको मालूम है कि हमारे देश में आरक्षण आर्थिक और सामजिक भेदभाव पर आधारित है. यानी उन जातियों को आरक्षण मिलेगा जिनके साथ आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भेदभाव होता आया है. इस श्रेणी में दलित/आदिवासियाँ जातियां आती हैं जिनके लिए संविधान के तहत आरक्षण का प्रावधान किया गया है. आरक्षण का मुदा तेजी से बहस में तब आया जब वी.पी. सिंह सरकार ने नब्बे के दशक के आखिर में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया और अन्य पिछड़ी जातियों को 27.5 प्रतिशत आरक्षण दिया गया. पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने के बाद से ही अन्य जातियों ने भी आरक्षण की मांग उठानी शुरू कर दी जिसमें गुज़र, जाट, क्षत्रिय आदि जातें भी शामिल हैं. ये वे जातियां हैं जो अपने राज्यों में दलितों और आदिवासियों का जातिगत आधार पर शोषण करती रही हैं और आज भी करती हैं. ये सभी जातियां बहुदा आर्थिक तौर पर सम्पन्न जातियां हैं.यह बात यही नहीं रुकी बल्कि इस तरह हर राज्य की ऐसी जातियों ने जोकि आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न हैं, ने भी आरक्षण की मांग उठानी शुरू कर दी. इस कड़ी में पटेल समुदाय का आवाज़ उठाना अपने आप में काफी चौकाने वाला है क्योंकि यह वही समुदाय है जो कट्टर रूप से आरक्षण का विरोधी रहा है और 80 के दशक में इसने आरक्षण विरोधी हिंसक आन्दोलन चलाये हैं.  आरक्षण के मामले में दो बाते तो तय हैं कि आप आरक्षण को संविधान द्वारा तय 50 प्रतिशत की सीमा से आगे नहीं ले जा सकते हैं, दुसरे, आप अगर किसी भी संपन्न जाति को पहले से मौजूद प्रतिशत में शामिल करना चाहते हैं तो कई और जातियां इस आन्दोलन में कूद जायेंगी और अंतत: आपको सबको शामिल करना पड़ेगा. लेकिन सवाल यह उठता है कि अगर इतनी संपन्न जातियों को आप आरक्षण में शामिल कर लेते हैं तो जो वास्तविक रूप से जो पिछड़ी जातियां हैं वे इसके फायदे को उठाने में कामयाब नहीं हो पाएंगी. आरक्षण के सवाल को इस भौंडे ढंग से उठाने के पीछे आरक्षण को बदनाम करने की कोशिश है जिससे कि आरक्षण के विरुद्ध एक बड़ा जनमत तैयार किया जा सके. आरक्षण विरोध हिंदुत्व की ताकतों का मुख्य एजेंडा रहा है. इसलिए कभी भी ये ताकते आरक्षण के सवाल पर खुल कर नहीं बोलती हैं. मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के विरोध में हिंदुत्व की ताकतों ने मंदिर के मुद्दे को उठाया और पूरे देश में मंडल विरोधी माहौल बनाने के लिए लोगो को उकसाया था.

देखा जाए तो यह पाटीदारों का विद्रोह सिर्फ आरक्षण की मांग का आंदोलन नहीं है बल्कि आगे चलकर यह एक नई राजनीति का आधार भी बनेगा। इसे नरेंद्र मोदी सरकार के विकास के अति-प्रचारित दावे की विफलता के रूप में देखा जा सकता है. क्योंकि सवाल यह उठता है की आपने इतना विकास कर दिया है तो फिर लोग आरक्षण में अपना विकास क्योंकर देख रहे हैं। पाटीदार अनामत आंदोलन समिति की आरक्षण की मांग अप्रवासी गुजरातियों के द्वारा गुजरात की राजनीति में निवेश किए जाने वाले विदेशी धन के प्रभाव का भी संकेत देता है। यह इस बात का भी संकेत है कि इस समुदाय की युवा पीढ़ी अमरिका में बसने का सपना दिल से लगाए हुए है और इसके लिए आरक्षण उनके आड़े आ रहा है ऐसा उनका सोचना है, इसलिए उन्होंने यह नारा दिया है कि “या तो हमें भी आरक्षण दो वर्ना सबका ख़त्म कर दो”। अगर पाटीदार अनामत आंदोलन समिति आरक्षण मांगने के लियी आन्दोलन कर रही है और वह अपनी बदहाली का रोना रो रही है तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मोदी के गुजरात में बहुत कुछ घट रहा है जो अब आहिस्ता-आहिस्ता सामने आएगा और आ रहा है. 

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।

 

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