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विरोध करें और लड़ाई लड़ें, अंधेरा ख़त्म हो जाएगा

आज, कल और हर दिन अपने चारों तरफ़ देखें, छोटी सी शुरुआत करें, हर तरह से नफ़रत और दुष्यप्रचार का विरोध करें जितना आप कर सकते हैं।
विरोध करें और लड़ाई लड़ें, अंधेरा ख़त्म हो जाएगा

यह उम्मीद का एक संदेश है जिसे मुंबई की एक पत्रकार और मीडिया की अध्यापक स्मृति कोप्पिकर ने अपने छात्रों को लिखा क्योंकि वे चुनाव परिणामों से निराश और चिंतित थे। ये पोस्ट सोशल मीडिया पर काफ़ी फैल गया। लेखक की अनुमति से कुछ संपादन करके इसे हम प्रकाशित कर रहे हैं।

मई की इस तेज़ गर्मी में हम में से कई लोगों के लिए रात हो गई है। ये रात ज़्यादा समय के लिए काफ़ी अंधेरी तथा लंबी लगती है।

लेकिन जिस तरह हर सुरंग के आख़िर में रौशनी होती है उसी तरह हर रात के बाद सवेरा होता है। ऐसा ज़रूर होता है। यह अंधेरा ठीक वैसा हुआ होगा जब जलियाँवाला बाग़ नरसंहार हुआ था। उस वक़्त मोंटाग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार और रौलट एक्ट अपनाया गया था। फिर 1921-22 की बात करें तो लाखों भारतीयों ने असहयोग आंदोलन का हिस्सा बनकर प्रेरणा पाई।

यह ठीक 1928-30 की तरह बिल्कुल अंधकारमय हो गया होगा जब बाबासाहेब अंबेडकर ने नए रास्ते बनाए और निराशाजनक स्थिति में लड़े। उन्होंने सिर्फ़ अंग्रेज़ों से ही नहीं बल्कि भारत में वर्चस्व रखने वाली जाति और वर्ग से भी लड़ाई लड़ी। और गांधी के साथ संघर्ष किया।

1947-48 में यह बिल्कुल ऐसा ही अंधकारमय हो गया होगा जब लाखों परिवारों को तितर बितर कर दिया गया था, महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था और पुरुषों की हत्या की गई थी, ऐसा एक व्यक्ति जिसने यहाँ कभी पैर नहीं जमाया था उसे इस देश को विभाजित करने का काम सौंपा गया था। विभाजन के शरणार्थियों ने अपने जीवन को फिर से सँवारा।

यह 26 जून 1975 को और उसके बाद के कई महीनों तक ठीक ऐसा ही अंधकारमय हो गया होगा। भारत का संविधान जो एकमात्र पुस्तक होनी चाहिए और जिसकी हमें भी शपथ लेनी चाहिए उसे निलंबित कर दिया गया जिसे एक प्रधानमंत्री द्वारा नकार दिया गया। कई लोग लोकतांत्रिक से परिवर्तित हुए सत्तावादी शासन के पक्ष में थे।

लेकिन अन्य लोगों ने लड़ाई लड़ी, छात्रों ने जेल की लड़ाई लड़ी, कार्यकर्ताओं ने राजनीतिक काम किया, आपातकाल को हटाया गया। भारत का संविधान बहाल किया गया।

यह सौंपे गए मेरे पहले प्रमुख समाचारों में से एक था। इस प्रकार ये देखना भयावह था कि एक बड़ा नेता संविधान में उल्लिखित 'धर्मनिरपेक्षता' की धज्जियाँ उड़ा गया।

लोगों ने गांव-गांव में विरोध किया, मुसलमान छिपते रहे जब तक कि एक अन्य नेता द्वारा रथ को रोक नहीं दिया गया। वास्तव में 6 दिसंबर 1992 को काफ़ी बुरा समय था और इसके छह सप्ताह बाद मुंबई में काफ़ी बुरा समय था। घृणा और कट्टरता ने शहर को बिखेर दिया जो पहले कभी नहीं हुआ था।

उस अशांति का कई लोगों ने विरोध किया और अन्य लोगों ने सड़कों पर, अदालतों में, मीडिया में लड़ाई लड़ी।

ऐसी लड़ाई अभी तक नहीं हुई है

यदि वे सभी भारतीय, आप और मेरे जैसे औसत लोग अपने तरीक़े से बुरे समय और घृणा का विरोध कर सकते हैं और लड़ाई लड़ सकते हैं तो इसे हमें न करने का कोई कारण नहीं हो सकता है। बीच की ज़मीन खिसक गई है लेकिन उन लाखों भारतीयों ने बहुसंख्यकवाद, घृणा, भेदभाव या इस चुनाव में नफ़रत नहीं की।

यह षडयंत्र के कारण हुआ, यह वर्षों में ही नहीं दशकों में हुआ। यह एक अधूरी परियोजना का हिस्सा था और यह अधूरी परियोजना है।

यह व्यक्ति दर व्यक्ति, परिवार दर परिवार, कक्षा दर कक्षा, व्हाट्सएप ग्रुप दर व्हाट्सएप ग्रुप, हाउसिंग सोसाइटी दर हाउसिंग सोसाइटी हुआ।

ये वहीं है जहाँ हमें नफ़रत, बहुसंख्यकवाद, भिन्न प्रकार, दुष्याचार  का विरोध और उससे लड़ने की आवश्यकता है।

सबसे पहले आइए हम ख़ुद जानकारी हासिल करें और अपने बच्चों के स्कूलों में, अपने परिवारों में, गेटेड कम्यूनिटी में, बसों, ट्रेनों और टैक्सी में दुष्यप्रचार से लड़ें।

मैं बोलूंगी भले ही मैं अकेली ही हूँ। एक आवाज़ किसी आवाज़ के न होने से बेहतर है। आप क्या बोलेंगे? कहाँ पर? कितनी बार? क्या आप ऐसा कम से कम एक साल के लिए करेंगे? दो, पांच साल के लिए? दूसरा, प्रतिरोध और लड़ाई हो रही है। हर लिंचिंग के बाद कई लोग निंदा करने के लिए उठ खड़े हुए, उन्होंने अगली भयावह घटना को नहीं रोका, लेकिन उन्होंने इसे निर्विरोध तरीक़े से छोड़ नहीं दिया। पता करें कि आपके आस-पास नफ़रत और निरंकुशता से कौन लड़ रहा है। ये बहादुर कौन हैं जो विरोध करते हैं और ये कौन से समूह हैं?

फिर सोचें कि आप उन्हें कैसे मज़बूत कर सकते हैं, उनकी ताक़तों और आवाज़ को कैसे बढ़ा सकते हैं। ये ज़रूर करें। तीसरा, उम्मीद है कि आप घृणित भाषा और लिंचिंग वीडियो को लेकर परेशान हैं, लेकिन एक विरोध पत्र पर हस्ताक्षर नहीं कर सकते हैं या एक बैनर के साथ खड़े नहीं हो सकते हैं, उम्मीद है कि आपने उन्हें दूसरों को पहुँचाया नहीं है। हो सकता है कि ख़र्च करने के लिए आपके पास कुछ पैसे हों।

इसके साथ खड़े हो जाएँ। कुछ ऐसे लोगों और संगठनों को भेजें जिन्होंने घृणा करने वाले समूह का मुक़ाबला किया है, उनके काम के लिए पैसे दें। पैसा लोगों को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता है लेकिन दूसरों को विरोध करने और लड़ने में मदद कर सकता है।

चौथा, चूंकि हम में से बहुत से लोग मीडिया में हैं तो ख़ुद याद करें कि स्वतंत्र पत्रकारिता दुष्प्रचार को मात देने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। क्या आप अभी भी उन मीडिया हाउस की सदस्यता ले रहे हैं जो नफ़रत फैलाने वालों के हाथों बेच दिया गया है, इसके दुष्यप्रचार को फैलाता है और ज़िम्मेदारी लेने से इनकार करता है? आख़िर क्यों?

इसके बजाय समर्थन करने के लिए स्वतंत्र पत्रकारिता संगठनों की तलाश करें। उनकी सदस्यता लें, उन्हें दान करें…। ग़ैर-अंग्रेज़ी भाषाओं में भी इसकी आवश्यकता अधिक है। पाँचवां, और यह मज़ाक़ भी हो सकता है, क्या आप किसी व्हाट्सएप ग्रुप का हिस्सा बनकर जो हर सुबह विशेष रूप से नफ़रत और घृणा को बढ़ावा देने वाली बातों को फैलाता है उसके साथ समय और दिमाग ख़र्च करने को इच्छुक हैं। ऐसे लोग जो लोगों के ज़ेहन में हर समय बीजेपी और मोदी का एजेंडा डालते हैं। लेकिन क्यों?

क्योंकि आप अल्पसंख्यक-विरोधी नफ़रत और दुष्प्रचार का मुक़ाबला कर सकते हैं। क्योंकि यह आपके अपने प्रतिध्वनि किए जाने वाले स्थानों में बोलने के लिए पर्याप्त नहीं है। क्योंकि उन अन्य प्रतिध्वनि वाले स्थानों को भी भंग किया जाना है।

छठा, अगर आपने अभी तक सावरकर और गोलवलकर को नहीं पढ़ा है तो पढ़ें। उन्हें अभी पढ़ें ताकि भारतवर्ष के उनके विचार जो सामने हैं उसे जान सकें। उन्हें पढ़ें ताकि आप पहले जान सकें, उन्हें पढ़ें ताकि आप जान सकें कि विचारधारा कहाँ से ली गई थी, उन्हें पढ़ें ताकि आप अपने आस-पास की संरचना का अंदाज़ा लगा सकें।

बार-बार नाज़ी के इतिहास को पढ़ें। ये 1930 के दशक के जर्मनी का इतिहास है। इसमें हिटलर के उत्थान और दुष्यप्रचार के काम करने के तरीक़ों को बताया गया है।

फिर ऐली विसेल, ओस्कर शिंडलर और अन्य को भी पढ़ें। दिल थाम लें और जानें कि उन्होंने बुरे समय में अपना रास्ता कैसे बनाया और उन्होंने कैसे विरोध किया।

सातवां, एक पार्टी और एक व्यक्ति (या दो व्यक्ति) के गुणगान का विरोध करने के लिए तथाकथित स्वतंत्र तथा निष्पक्ष मीडिया को लिखें। मांग करें कि वे मंच पर उचित स्थान और समय दें। अगर आपको लगता है कि कोई चैनल पक्षपाती था और दुष्यप्रचार का काम कर रहा था तो एनबीएसए (नेशनल ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी) जैसे मीडिया नियामकों को लिखें। प्रेस काउंसिल को लिखें कि यह किस लायक है और समाचार पत्रों की क्लिपिंग भेजें। उनके ईमेल उपलब्ध हैं। 
आठवां, हममें से वे लोग जिन्हें जन्म से धर्म और नाम का विशेषाधिकार प्राप्त है उन्हें अब अपने आस-पास के सभी अल्पसंख्यकों मुस्लिमों और ईसाइयों और दलितों को आश्रय प्रदान करना चाहिए।

किसी ऐसे व्यक्ति को बुलाएँ जो प्रताड़ित होने को लेकर आज आशंकित हैं, उन्हें आश्वस्त करें कि यह भी बीत जाएगा और आप उनके साथ खड़े हों और उनके साथ रहें। अगर उन्हें धमकी दी जाती है तो आप उनके साथ या उनके बिना पुलिस स्टेशन जाएँ।

उदार और प्रगतिशील लोगों का मज़ाक़ उड़ाने वालों को कहें कि अपनी क्रुरता कहीं और दिखाएँ।

जब उन्होंने एक अन्य शब्द सेक्युलरिज़्म पर हमला किया तो हममें से कई लोग यह सोचकर चुप रह गए कि हम कुछ स्थान पर इसे और इसके अर्थ को पुनर्ग्रहण कर सकते हैं। हम ऐसा नहीं कर पाए हैं।

उदारवादियों के साथ ऐसा न होने दें। टी-शर्ट बनाएँ। कविताएँ लिखें। इसके बारे में सार्वजनिक स्थलों पर लिखें। धर्मनिरपेक्ष और उदार होने पर गर्व करें। ये मूल्य और शब्द हैं जो बच्चों तक फैलाने और पहुँचाने के लायक हैं। हिंदू धर्म और हिंदुत्व के बीच एक अंतर बनाएँ जो कि एक राजनीतिक कल्पना है।

आपको हिंदू धर्म का होने पर शर्म नहीं आती क्योंकि कुछ दुष्ट पुरुषों ने इसे अपने एजेंडे के अनुरूप बनाया है। इसकी सुधार करें।

याद रहे महात्मा गांधी एक तपस्वी हिंदू थें और एक हिंदुत्ववादी द्वारा उनकी हत्या की गई।

यदि आप अम्बेडकर को पसंद करते हैं जिन्होंने हिंदू धर्म से मुँह मोड़ लिया तो याद रखें कि उनका लेखन हिंदू राष्ट्र के विरोध में भी है।

भगवा को ही ले लें। इसे धर्मनिष्ठता का प्रतीक माना जाता है न कि आतंक के अभियुक्तों के लिए।

यह हमारे झंडे का रंग है। भगवा पट्टी शक्ति और साहस का प्रतीक है न कि आरएसएस का! आज सबसे तुच्छ बात यह है कि पाँच साल पहले की तुलना में नफ़रत के दुष्यप्रचार को ज़्यादा वोट मिले और अब एक आतंकवादी होने का आरोपी संसद में बैठेगा। यह भारत में नहीं हो सकता है, यह सच नहीं हो सकता है लेकिन ऐसा है। मुझे इसका विरोध करना होगा।

ये संविधान अब भी मेरा है। यह उतना ही आपका है जितना लूबैना, आफ़रीन और अन्य लोगों का जो इसे अपना मानते हैं। यह उतना ही पवित्र है जितना कि यह था। इस राष्ट्र के बाध्यकारी दस्तावेज़ के रूप में जब तक यह है, इसे बचाने के लिए सड़कों पर आने को जब तक हम इच्छुक हैं तब तक भारत जीवित रहेगा और हिंदू राष्ट्र में नहीं बदलेगा।

क्या आप ऐसा करने को तैयार हैं जो साल में एक या दो बार झंडा फहराने और राष्ट्रगान के लिए खड़े होने से परे इसे बचाने के लिए क्या करना है? अगर सॉलिडेरिटी मार्च आपके शहर में होता है क्या आप उसमें शामिल होंगे? क्या आप एक बार संविधान पढ़ेंगे?

कांग्रेस अकेले इसकी रक्षा नहीं कर सकती है या अल्पसंख्यकों के लिए बोल नहीं सकती है या हिंदू राष्ट्रवादियों पर कार्रवाई नहीं कर सकती है भले ही वह ऐसा करना चाहती हो। यह वह संगठन नहीं है जिसका उपयोग किया जाना चाहिए या आवश्यकता होनी चाहिए। यह लड़ाई मेरी और आपकी भी है।

अब चुनावी समाधान की तरफ़ मत देखिए। यह समय अब से पाँच वर्ष बाद आएगा।

क्या आपने कभी अपने तरीक़े से काम किया है? क्या आपने उन ताक़तों का विरोध किया है या उनसे लड़ाई लड़ी है जो हमारी कमज़ोरियों से खेलते हैं, भारत को तोड़ते हैं और भारतीयों को भारतीयों के ख़िलाफ़ खड़ा करते हैं? क्या आप समावेशी और उदार भारत के सिद्धांत के लिए लड़े होंगे?

आज, कल और हर दिन अपने चारों तरफ़ देखें, छोटे सी शुरुआत करें, हर तरह से नफ़रत और दुष्यप्रचार का विरोध करें जो आप कर सकते हैं।

बुरे समय को जाना ही पड़ता है। विश्वास रखें कि ऐसा ज़रूर होगा अगर हम इसे करते हैं। लेकिन एकजुटता के साथ।

मुंबई की वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया की अध्यापक स्मृति कोप्पिकर ने देश के प्रमुख अख़बारों के लिए राजनीति, लिंग-भेद, विकास और शहर जैसे विषयों पर लेख लिखा है। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।

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