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महामारी का दौर और बीजेपी की डिजिटल पॉलिटिक्स

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगियों ने विदेशों तक फैले प्रवासी भारतीयों को आकर्षित करने के लिए एक आउटरीच कार्यक्रम शुरू कर दिया है, सोशल मीडिया के उद्भव के साथ इसने  संपर्क और प्रचार की एक अच्छी मशीनरी तैयार कर ली है और इसके माध्यम से वे तैयार दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने की अच्छी कोशिश कर रहे हैं।
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गृह मंत्री के लिए यह उल्लास का समय है। लॉकडाउन के एक अंतराल के बाद, वे पार्टी के लिए जिस काम को बेहतर ढंग से करने के लिए जाने जाते हैं – यानी चुनाव लड़ना, के काम में दोबारा जुट गए हैं। यह प्रचार का मौसम है, बिहार राज्य विधानसभा के चुनाव अब बहुत दूर नहीं हैं, और इस तरह यह उम्मीद की जा रही है कि अमित शाह अपने पुराने रूप में वापस आ जाएंगे। कोविड-19 ने इन कामों में मामूली सी रुकावट पैदा की है,  लेकिन कौन जानता है, यह रुकावट ही उनके लिए एक आशीर्वाद का काम कर जाए।

अगर शाह की पहली "ई-रैली" के कवरेज को देखा जाए तो कॉर्पोरेट मीडिया इसकी भरपाई का काम कर रहा है, लेकिन इस बार वह खेल का का दूसरा खिलाड़ी होगा! इस खेल में प्राथमिक स्थान उसका होगा जो चुनाव की तैयारे और उसके आसपास की चर्चा में शामिल होगा, यानि पार्टी का डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म जो सभी अंतर्विरोध के बावजूद होंगे।

बिहार में चुनावों के लिए होने वाली 72 डिजिटल रैलियों पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है, लेकिन इस सबके अनुरूप अपने अस्तित्व की पुष्टि करने के लिए, भारतीय जनता पार्टी 30 पन्नों की एक पुस्तिका भी जारी करने जा रही है जिसका शीर्षक है "कौन कोविड के खिलाफ लड़ाई में भारत को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है"? वैसे अनुमान लगाने के लिए कोई पुरस्कार तो रखा नहीं है। हाँ, लेकिन इशारा विपक्ष की तरफ है!

बिहार में जनवरी 2020 में सिर्फ 53.07 प्रतिशत वायरलेस टेलीफोन के ग्राहक थे और यहाँ देश में सबसे कम टेली-घनत्व है। इस तरह के खराब टेली-घनत्व वाली जगह पर, आगामी विधानसभा चुनावों को एक डिजिटल नेतृत्व वाली रणनीति के साथ लड़ना वह भी उस पार्टी को जिसका खजाना धन संपदा से लबालब भरा है अत्यंत कठिन लगता है, फिलहाल इस बात को छोड़ भी दें कि इसे उन गुस्साए प्रवासियों का सामना करना पड़ेगा, जिन्हें बिहार पहुँचने के लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर आना पड़ा। मुख्यधारा के मीडिया से हालांकि यह उम्मीद की जा सकती है कि वह अपना चीर-परिचित वाक्यांश “शाह एक चाणक्य” है को जारी रखेगा खासकर जब भाजपा चुनाव जीत जाएगी या हार के बाद जब वह जनादेश की चोरी करने का जाल बुनेगा!

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महामारी नए आविष्कारों का आह्वान कर रही है। आखिरकार, इसके कुछ सकारात्मक पहलू भी बताए जा रहे हैं: टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक पड़ोसी पश्चिम बंगाल में ई-रैलियों के लाभों का मतलब अब: "कोलकाता को रैली की वजह से सड़कें/रास्ते नहीं रुकेंगे, कोई ट्रैफ़िक जाम नहीं होगा और न ही धमाकेदार माइक्रोफोन होंगे। यह आर्थिक रूप से सस्ता चुनाव भी होगा। जबकि शाह फेसबुक, यूट्यूब और इंस्टाग्राम के माध्यम से अपने दर्शकों के साथ जुड़ रहे हैं, इससे पार्टी को माइक्रोफोन, मंच और लोगों को रैली में लाने के लिए 75-80 लाख रुपये खर्च से बचत होगी।" भगवा पार्टी की बाजीगरी का मुकाबला करने के लिए विपक्षी पार्टियां तृणमूल कांग्रेस और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) पश्चिम बंगाल में बहुत पीछे नहीं है, लेकिन बिहार में उसके प्रतिद्वंद्वियों के पास डिजिटल प्रचार में इस तरह की योग्यता नहीं दिखती है।

हिंदुत्व की ताकतों द्वारा ऑनलाइन प्रचार और ऑनलाइन टूल का उपयोग करने के गुणों की शुरुआती खोज ने उन्हे बेहतर लाभांश दिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगियों ने विदेश तक फैले प्रवासी भारतीयों को आकर्षित करने के लिए एक आउटरीच कार्यक्रम की शुरुवात की है, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में, सोशल मीडिया के उद्भव ने उसे प्रचार की एक बेहतर मशीनरी दी है, जिसने उन्हें एक अच्छी तरह से तैयार दर्शकों को लुभाने का मौका दिया है।

लेकिन चुनाव जीतने के लिए डिजिटल मोर्चे को सबसे प्रभावी माध्यम के दर्जे तक पहुंचाना भी एक कठिन काम है, फिल्हाल उस पर होने वाली चर्चा को आप छोड़ ही दें। भाजपा और इनके पूर्वजों ने चुनावों के काम के लिए कार्यकर्ताओं का एक दुर्जेय नेटवर्क बनाया है। वर्तमान में भाजपा के विशाल आकार के बावजूद वह अपने कैडर की संख्या के होने का दावा करती है, जिन्हें वे "पन्ना प्रमुख" कहते है, ऐसे ही एक कैडर मिस्टर भट हैं, जिनसे कम से कम 60 मतदाताओं के साथ लगातार संपर्क में रखने की उम्मीद की जाती है, उन्हें इन मतदाताओं को ट्रैक करने का काम पार्टी ने सौंपा है"। पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी की आई एम ए ट्रोल किताब ने इन ऑपरेशनों का घिनौना पक्ष दिखाया है। इसके बावजूद, हाल के चुनाव परिणामों से पता चलता है कि उनकी पार्टी के लिए यह आसान नहीं है।

कैडर और धन बल के अलावा, जैसा कि भाजपा के एक पूर्व डेटा विश्लेषक ने कारवां को बताया कि: "चुनाव के संबंध में भाजपा की रणनीति यह है कि यदि आप बूथ जीत जाते हैं, तो आप निर्वाचन क्षेत्र के साथ-साथ   राज्य का चुनाव जीत जाएंगे।" पार्टी की चुनावों के इर्द-गिर्द बने बुनियादी ढांचे में न केवल डेटा विश्लेषकों की टीम शामिल है, बल्कि ग्राफिक डिजाइनर और वीडियो एडिटर भी हैं, जिन्हे संबद्ध सोशल मीडिया पेज और हैंडल और शोधकर्ताओं को संभालने के लिए समूहों को आउटसोर्स किया गया हैं।

एक कमजोर कांग्रेस और पूरा विपक्ष एक साथ भी भाजपा की डिजिटल प्रगति का मुकाबला नहीं कर सकता हैं। यह दक्षिणपंथी कैडर की कुछ जन्मजात प्रतिभा का मामला नहीं है, बल्कि गूगल, फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफ़ॉर्म भी हैं जो दक्षिणपंथी राजनीति के पूर्वाग्रह से ग्रस्त है।

लेकिन एक महामारी के दौरान जो बात महत्वपूर्ण है, वह यह कि देश के भीतर लॉकडाउन और "अनलॉकडाउन" की दुविधा के बीच, राजनीतिक दलों के बड़े पैमाने पर बैक रूम संचालन में परिवर्तन आ रहा है, और इसके कॉर्पोरेट मीडिया हाउसों के डिजिटल न्यूज़रूम संचालन की नकल करने की संभावना है।

बीजेपी के डिजिटल पोर्टफोलियो में एक वेबसाइट, एक फेसबुक पेज के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लक़दक़ पेज़ के अलावा पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और कुछ राज्य इकाइयों के पेज़ शामिल हैं। इन विशाल पेजों में ट्विटर हैंडल, इंस्टाग्राम पेज, एक मोबाइल ऐप और एक यूट्यूब चैनल शामिल है। सोशल मीडिया के चैनलों का यह गुलदस्ता किसी भी न्यूज़ रूम के मानक शस्त्रागार से कम नहीं है। महामारी ने आभासी प्रेस सम्मेलनों को भी जन्म दिया है।

व्हाट्सएप पर उनके निवेश की बेहतर वापसी हो रही है, जिसे एक अलग ही किस्म का क्रूर माध्यम माना गया है। यदि यह खुद के द्वारा लगाई गई सीमा पर खरा न उतरे तो यह माध्यम उस प्रचार सामग्री को वितरित करने का सबसे अच्छा साधन प्रदान करेगा जिस सामग्री ने पार्टी के बड़े एजेंडे को प्रचारित करने में मदद की है। व्हाट्सएप को अपने शस्त्रागार में शामिल करने के साथ, न केवल भाजपा बल्कि कई राजनीतिक दल प्रचार की सामग्री के गेटकीपर बन गए हैं, हालांकि भगवा संगठन, सामाग्री के उत्पादन की क्षमता तक केवल सीमित नहीं है, बल्कि वह इस सामग्री के इस्तेमाल और प्रसार में भी कहीं बेहतर है। कांग्रेस पार्टी अपने मायूस कार्यकर्ताओं के झुंड के साथ भाजपा की मारक क्षमता का मुकाबला करने के लिए प्रयास कर रही है। वामपंथी दल भी ऑनलाइन रूप से सक्रिय हो गए हैं और सत्तारूढ़ दल द्वारा किए जा रही भयंकर गलतियों की बदौलत वे अपनी क्षमता से अधिक हमला करने या प्रचार में सफल रहे हैं। बिहार जिसका देश में सबसे खराब बुनियादी ढांचा है, डिजिटल रूप से लोगों तक पहुंचने में एक अनूठी चुनौती पेश करता है। हालांकि, राज्य की सत्ता पाने के लिए ज़ोर लगा रहे राजनीतिक दलों के पास इस बार आने वाले चुनावों में विकल्प बहुत ही कम हैं, क्योंकि लॉकडाउन या महामारी की वजह से से उन्हें एकसाथ बड़ी भीड़ नहीं मिलेगी जिसके सामने वे अपना प्रचार कर सके।

उदाहरण के लिए, कर्नाटक में डिजिटल अभियान एक बेहतर माध्यम हो सकता है। यदि बिहार का टेली-घनत्व खराब है, तो कर्नाटक का औसत 104.90 प्रतिशत है। इसलिए यह समझ में आने वाली बात है कि सत्तारूढ़ भाजपा ने अपनी पहली आभासी रैली की घोषणा कर दी है और जिसे - समर्थ नायक - समर्थ भारत – के शीर्षक से 14 जून को आयोजित और संबोधित किया जाएगा। मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के अलावा, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बीएल संतोष और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नलिन कुमार काटेल इसमें भाग लेने वाले हैं। पीछे न रहते हुए, कांग्रेस के तरोताजा राज्य पार्टी अध्यक्ष डीके शिवकुमार के शपथ ग्रहण का भी आभासी प्रदर्शन करना तय किया है, जिसका नाम प्रथिज्ना दीना है।

कर्नाटक के डिप्टी सीएम अश्वथ नारायण अभी भी इस बात पर जोर देते हैं कि वास्तविक दुनिया के अभियान अब एक चुनौती है। टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, “एक विशाल राजनीतिक रैली के लिए, पार्टियों को हेलीकॉप्टर, कुर्सियां, झंडा बनाने वाले, मंच सज्जाकार, रहने के लिए होटल, कार, बस और ट्रक के अलावा भोजन पर भारी खर्च की जरूरत होती है, लेकिन एक आभासी रैली में पार्टी को शायद ही कुछ खर्च करने की जरूरत होगी।” हालांकि, वह जल्द ही महसूस करने लगते हैं कि आगामी ग्राम पंचायत के चुनाव आभासी अभियान एनालिटिक्स के साथ "बेहतर" हो सकते हैं, जो उन्हे काटने के लिए वापस आ सकते हैं।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया से बात करते हुए बीजेपी बंगाल राज्य इकाई के महासचिव सायनतन घोष ने कहा कि इससे लोगों के मूड को समझना मुश्किल होगा। लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि सोशल मीडिया में उठाते "विचारों" को देखकर समझ सकते हैं, जैसे कि टीआरपी रेटिंग्स के प्रसारण को देख समझ सकते हैं कि लोगों का मूड क्या है। लेकिन वे इसकी चुनौतियों को भी समझते हैं, “उदाहरण के लिए, एक दंपति फेसबुक पर अमित शाह को देख रही हो सकती है। लेकिन इसकी गिनती दो के बजाय एक ही होगी।”

इस बात की रिपोर्ट बन सकती है कि कितना वक़्त खर्च किया गया, आखिर तक रहने वाले लोगों की संख्या कितनी थी, उन लोगों की संख्या जो "चर्चा" में शामिल हुए और नए लोगों की संख्या जो इसमें जुड़े। ये मेट्रिक्स इनका आधार होंगे, जिस आधार पर नारायण या घोष जैसे नेताओं के प्रदर्शन का निर्णय किया जाएगा।

यह आभासी प्रचार राजनेताओं के लिए एक नया क्षेत्र है। अगर आधी आबादी के पास स्मार्टफोन, स्मार्ट टीवी या कोई अन्य डिजिटल माध्यम नहीं है, तो वे उन तक कैसे पहुंच सकते हैं? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें कैसे अपना समर्थक माना जा सकता है? इसके लिए राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अपने सोशल मीडिया अकाउंट बनाने होंगे और न केवल उन्हें ठीक से वितरित करना होगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना होगा कि लोग इन में लॉग इन करें, और टिप्पणी के साथ एक अच्छा कट-एंड-पेस्ट का काम भी करें!

राजनीतिक प्रचार की ललित कला लोगों से भरे मैदान में भाषण देने से काफी आगे बढ़ चुकी है। यह वहां से चलकर अब सोशल मीडिया के प्रचार को लक्षित करने, लोगों की वोटिंग की वरीयताओं को जानने, प्रचार सामग्री बनाने और उसके वितरण को नियंत्रित करने पर सिमट गई है, अब वास्तव में "ग्राउंडवर्क" करने के का मतलब, विभिन्न प्लेटफार्मों पर गर्मजोशी के भाषण देना, उसके लिए लोगों को जुटाना और फिर भाषण को व्यापक लोगों के हिस्सों तक वितरित करना, और प्रत्येक को अपने अंदाज़ और ताकत के बल पर प्रचार कर लुभाना है।

महामारी ने डिजिटल राजनीतिक प्रचार और संचार का एक नया रास्ता खोल दिया है .

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