बिहार में शराबबंदी से क्या समस्याएं हैं

बिहार के तीन जिलों में होली के मौके पर शराब से संबंधित 30 लोगों की मौत की त्रासदी के साथ, कथित रूप से "शुष्क" राज्य में मदिरापान से जुड़ी मौतों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। यह संभव है कि नीतीश कुमार सरकार ने 1 अप्रैल 2016 को ईमानदारी से इरादों के साथ शराबबंदी लागू की होगी। लेकिन इसके लागू होने के छह साल बाद भी प्रशासन यह दावा कर लोगों को बेवकूफ बना रहा है कि लोग बीमारी के कारण मर रहे हैं, न कि नकली शराब पीने से। स्वयं मुख्यमंत्री के गृह जिले नालंदा में पिछले साल दिवाली के दौरान 40 लोग और जनवरी में 13 लोगों की मौत शराब पीने से हो गई थी।
बिहार विधानसभा में 28 मार्च को शराबबंदी के उल्लंघन पर पहले के कड़े दंड के प्रावधान को नरम करने के लिए एक संशोधन पेश किया गया। अब, पहली बार शराबबंदी का उल्लंघन करने वालों को एक महीने की जेल होगी या उस पर जुर्माने का प्रावधान किया गया है। इससे शराब पर लगाए गए प्रतिबंध के आलोचकों की यह बात साबित हो जाती है कि इसकी खपत, निर्माण, बिक्री, खरीद, वितरण और परिवहन को रोकना उतना आसान नहीं था,जितना कि सरकार ने शुरू में माना था।
यह समस्या इस बात से शुरू हुई कि शराब को प्रतिबंधित कैसे किया गया। 2016 में प्रतिबंध लगाने के पहले 9 साल तक बिहार में शराब संस्कृति का लगातार खूब प्रचार किया जाता रहा, इस मद से राजस्व बढ़ाने की नीति को सरकार की तरफ से जायज ठहराया जाता रहा। फिर 2016 में, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने अपनी आबकारी नीति से एक यू-टर्न लिया। कहा जाता है कि सुराप्रेमियों ने शराब के प्रति सरकार के दृष्टिकोण को सहायता प्रदान की थी, जिनमें से कुछ कथित तौर पर मुख्यमंत्री के कान थे।
2009 में सैकड़ों करोड़ों का कुख्यात शराब घोटाला ने स्पष्ट कर दिया कि शीर्ष स्तर पर चीजें कितनी गलत और कितनी अस्त-व्यस्त थीं। तत्कालीन आबकारी मंत्री जमशेद अशरफ ने 14 जनवरी 2010 को मकर संक्रांति के दिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को एक पत्र सौंपा था, जिसमें कथित तौर पर आबकारी घोटाले में संलिप्त लोगों के नाम का खुलासा किया गया था। लेकिन इसको उजागर करने की एवज में अशरफ की तारीफ करने या उन्हें पुरस्कृत करने की बात तो दूर राज्य सरकार ने उन्हें बर्खास्त ही कर दिया। फिर एक बार नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल की मध्यावधि में जब मीडिया ‘सुशासन बाबू’ की आलोचना के लिए तैयार नहीं था, जिसे वह बिहार के एक बदलावपुरुष के तौर पर सराहना करता था।
2007 और 2016 के बीच, बिहार में प्रदेश सरकार की नई आबकारी नीति लागू थी। यह वर्तमान में लागू कानून के विपरीत था। कई महिला संगठनों ने शराब के सेवन को बढ़ावा देने वाली सरकार की इस नीति के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था। इस समस्या का पता 2000 तक भी लगाया जा सकता था, जब बिहार से एक अलग प्रदेश झारखंड बनाने के लिए सूबे को बांटा गया था। बंटवारे के बाद, खनिज से समृद्ध क्षेत्र और अधिकांश आर्थिक गतिविधियों का स्रोत अब बिहार का हिस्सा नहीं था। बिहार के नाम से जाना जाने वाला यह इलाका आज बंटवारे के बाद से आज तक आहत है। तात्कालीन राबड़ी देवी सरकार ने बिहार की अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कुछ प्रतिकारी उपाय किए, लेकिन वे अपर्याप्त थे।
नवंबर 2000 और नवंबर 2005 के बीच, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के नेता-तब 1998 और 2004 के बीच एनडीए ही केंद्र की सत्ता में था-बिहार की अर्थव्यवस्था का खराब तरीके से संचालन के लिए राबड़ी सरकार की आलोचना करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। इसका जवाब देते हुए राबड़ी देवी की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार पर आरोप लगाया कि उसने बंटवारे के बाद बिहार को संभलने के लिए 1,79,000 करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज देने से इनकार कर दिया है। इसकी मांग को लेकर बिहार विधानसभा ने झारखंड राज्य के गठन से ठीक पहले सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया गया था। इस प्रकार आर्थिक पैकेज की मांग एक सर्वदलीय मांग थी।
हालांकि, 24 नवंबर 2005 को जब नीतीश कुमार एक बार मुख्यमंत्री बने तो उन्हें राज्य के आर्थिक संकट की गंभीरता का एहसास हुआ। उनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) या जदयू के सत्ता में आने से एक साल पहले, 22 मई 2004 को, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की केंद्र में सरकार थी। मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव, उनकी पार्टी के सहयोगी रघुवंश प्रसाद सिंह और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के नेता रामविलास पासवान के पास महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों के प्रभार थे। नई केंद्र सरकार बिहार के प्रति उदार थी, और राज्य के उन केंद्रीय मंत्रियों ने भी बिहार में कई परियोजनाओं का शुभारंभ भी किया था।
फिर भी, नीतीश कुमार ने महसूस किया कि बिहार को राजस्व संग्रह को बढ़ाने के लिए कुछ अतिरिक्त किए जाने की आवश्यकता है। यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसमें उन्होंने जुलाई 2007 की पिछली नई आबकारी नीति लागू करने का निर्णय लिया। इसके फलस्वरूप बिहार में शराब की दुकानों की संख्या कई गुना बढ़ गई, लेकिन इतना ही नहीं था। इससे मदिरा सेवन की एक संस्कृति दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों तक फैल गई। कुछ ही वर्षों में एक मजबूत शराब माफिया का उदय हो गया। इसमें सत्तारूढ़ शासन के करीबी लोग शामिल हैं और जिनका कथित तौर पर नौकरशाहों और पुलिस का संरक्षण प्राप्त है। शराब की बिक्री, निर्माण और खपत में जबरदस्त वृद्धि के कारण घरेलू हिंसा और महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ अपराधों में जबरदस्त वृद्धि हो गई। चूंकि इनमें से अधिकतर अपराध घरों के भीतर शराब पीकर करीबी रिश्तेदारों द्वारा किए गए थे, इसलिए इसके बारे में शायद ही कभी पुलिस को सूचित किया गया, और जनता को भी कभी इस संकट का पता नहीं चला।
स्थिति यहां तक पहुंच गई कि 9 जुलाई 2015 को पटना में बड़ी संख्या में महिला स्वयं सहायता समूहों की कार्यकर्ताओं, जिन्हें नीतीश कुमार संबोधित कर रहे थे, उन्होंने शराबबंदी का वादा करने पर कुमार को मजबूर कर दिया। इसके बाद फिर चुने जाने के तुरंत बाद-इस बार राजद और कांग्रेस पार्टी के साथ गठबंधन में-नीतीश कुमार ने एक मद्य-निषेध नीति पर काम करना शुरू कर दिया, जो 01 अप्रैल 2016 को लागू किया गया।
चूंकि नीतीश कुमार की सरकार राज्य में शराब के उपयोग के प्रसार के लिए जिम्मेदार थी, इसलिए इसके निर्माण, बिक्री और खपत को तुरंत रोकना उसके लिए चुनौतीपूर्ण काम था। सबसे बड़ी समस्या शराब माफिया को खत्म करने का था, जो इस बीच बहुत शक्तिशाली हो गया था और कथित तौर पर एनडीए सदस्यों के करीब था। अपनी सरकार के पहले 10 वर्षों में, नीतीश कुमार बिहार में महत्त्वपूर्ण निवेश लाने में असफल रहे। लेकिन कई विदेशी शराब और बीयर ब्रांडों ने राज्य में अपने संयंत्र स्थापित किए। इनमें प्रमुख ब्रिटिश शराब व्यवसायी लॉर्ड करण बिलिमोरिया फरवरी 2012 में पटना में आयोजित वैश्विक बिहार शिखर सम्मेलन में सबसे बड़े आकर्षण थे। बिलिमोरिया ने तब कहा था,“अगर महात्मा गांधी यहां होते तो मैं उन्हें कोबरा गैर-अल्कोहलिक बीयर जलपान के रूप में पेश करता।”
27 दिसंबर 2021 को, उस समारोह के लगभग एक दशक बाद, नीतीश कुमार ने एक सामाजिक जागरूकता अभियान शुरू किया, जो उनके पूर्व घोषित कार्यक्रम एवं नीतियों के विपरीत था। अचानक, वे गरजने लगे थे कि वे नहीं चाहते कि मदिरा पान करने की इच्छा से कोई भी व्यक्ति बिहार नहीं आए। उन्होंने कहा कि मदिरापान करने वाले किसी को भी जेल की सलाखों के पीछे डाला दिया जाएगा, चाहे वह कितना बड़ा व्यक्ति क्यों न हो। एक बार फिर, महात्मा गांधी को सार्वजनिक तौर पर उद्धृत किया गया और कहा गया कि वे अब शराब मुक्त बिहार के पक्षधर हैं।
पर नीतीश कुमार की चेतावनी के कुछ घंटों के भीतर, भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण ने कहा, “ 2016 में नीतीश कुमार सरकार के शराब प्रतिबंध निर्णय ने अदालतों में लंबित मामलों के ढ़ेर लगा दिए हैं। यहां तक कि साधारण मामलों में भी जमानत पर सुनवाई अदालतों में एक वर्ष खींच जाती है। शराबबंदी अधिनियम में जमानत से संबंधित याचिकाएं बड़ी संख्या में उच्च न्यायालय में लंबित हैं। अलग-अलग सरकारों द्वारा लागू की गईं अदूरदर्शी नीतियां देश में अदालतों के कामकाज पर असर डाल रही हैं। हर कानून के कार्यान्वयन से पहले उस पर अच्छी तरह से और उसके ठोस बिंदुओं के साथ चर्चा करने की आवश्यकता है।”
विडम्बना यह है कि बिहार में अभी भी शराब की समस्या बनी हुई है, वह भी अब नकली शराब के रूप में, जिसके फलस्वरूप बिहार में मृत्यु दर उन प्रदेशों से बहुत अधिक हो गई है, जहां मदिरा सेवन पर पाबंदी नहीं है। उदाहरण के लिए 2021 में लगभग 100 लोग मारे गए, और 2022 के पहले तीन महीनों में मृत्यु दर पहले ही 50 को पार कर चुकी है।
जाहिर है, राज्य सरकार के लिए यह लड़ाई जीतना बहुत मुश्किल लग रहा है क्योंकि शराब माफिया ताकतवर हो गया है। भाजपा विधान परिषद सदस्य ‘टुन्ना जी’ पाण्डेय को कथित रूप से शराब के कारोबार में लिप्त माना जाता है। उनका मुख्यमंत्री के विरुद्ध और शराबबंदी के खिलाफ बार-बार दिए गए बयानों से नाराज हो कर जदयू नेताओं ने उनके खिलाफ तत्काल कार्रवाई की मांग की। इसके बाद, भाजपा ने उन्हें जनवरी 2021 में निलंबित कर दिया, लेकिन वे अभी भी पार्टी की बैठकों में भाग लेते हैं और राज्य पदाधिकारियों और मंत्रियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं। इस मामले में पाण्डेय अकेले नहीं हैं। भगवा पार्टी के अन्य नेता खुलेआम शराबबंदी को लेकर नीतीश कुमार के प्रशासन पर सवाल उठा रहे हैं। शराबबंदी के मुद्दे पर 14 मार्च को भाजपा विधायक विधानसभा में धरने पर बैठ गए थे। विधानसभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा और मुख्यमंत्री के बीच तीखी नोकझोंक भी हुई। बिहार के एक प्रमुख महादलित व्यक्तित्व एवं हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा के नेता जीतन राम मांझी, जिन्हें नीतीश कुमार ने मई 2014 में अपना उत्तराधिकारी चुना था, वे भी कई मौकों पर मद्य-निषेध की आलोचना कर चुके हैं। मांझी शराबबंदी के कारण बार-बार जेल में बंद हजारों दलितों की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं,जबकि अमीर और ताकतवर लोग खुलेआम शराब का आनंद लेते हैं और पुलिस ने उनको नजरअंदाज कर देती है।
पटना के एक वरिष्ठ चिकित्सक ने शराबबंदी की पूरी कहानी का समाहार इस प्रकार किया: “सच है, शराब किसी आयोजन में, पार्टियों में, बार आदि में खुले तौर पर अनुपलब्ध है, लेकिन शराब या बीयर की होम डिलीवरी डबल या ट्रिपल कीमत चुकाने पर संभव है। एक तरह से प्रतिबंध अच्छा है- अब मैं रात में एक या दो पैग अकेले ही पीता हूं। इससे पहले, मुझे अपने दोस्तों के साथ पूरी बोतल खोलनी पड़ती थी। इस लिहाज से यह अब सस्ता है!" लब्बोलुआब यह है कि अब बिहार में कोई भी राजस्व के स्रोत तलाशने की बात नहीं कर रहा है।
(लेखक पटना के स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)
अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
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