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कौन लांघ रहा है लक्ष्मण रेखा?

देश की जनता उन्हें लोकतंत्र के रक्षक के रूप में देखती है।
Supreme court

सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्तियों को अपने हाथ में नहीं लिया है, बल्कि सिर्फ यह आदेश दिया है कि इन महत्वपूर्ण नियुक्तियों को एक उच्चाधिकार वाली समिति की सिफारिशों पर की किया जाए।

केंद्रीय कानून मंत्री ने एक बार फिर "कार्यपालिका और न्यायपालिका सहित विभिन्न संस्थानों का मार्गदर्शन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट पर लक्ष्मण रेखा" लांघने का आरोप लगाया है और आश्चर्य जताया है कि "यदि न्यायाधीश प्रशासनिक नियुक्तियों का हिस्सा बन जाते हैं और हर नियुक्ति पर नज़र रखते हैं, तो न्यायिक काम कौन करेगा?" यहां तक कि उन्होंने कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का जिक्र करते हुए उन्हे "भारत विरोधी गिरोह" जैसे अपमानजनक शब्दों से वर्णित किया है, और एक किस्म की धमकी दी है कि उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। एक केंद्रीय मंत्री द्वारा किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों के खिलाफ इस तरह की टिप्पणी अनसुनी है, और पूरी तरह से निंदनीय है।

उनकी नाराज़गी का संदर्भ, अन्य बातों के अलावा, 2 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ का हालिया फैसला है, जिसमें निर्देश दिया गया है कि मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और अन्य चुनाव आयुक्तों (ईसी) को ऐसे आधार पर नियुक्त करना होगा जिससे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता बनी रहे, इसलिए आदेश में कहा गया कि उक्त नियुक्तियों को प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की एक समिति द्वारा की गई सिफारिशें के आधार पर किया जाएगा। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्तियों को अपने हाथ में नहीं लिया है, बल्कि सिर्फ यह निर्देश दिया है कि ये महत्वपूर्ण नियुक्तियां एक उच्चाधिकार वाली समिति की सिफारिशों पर की जाएंगी। मुख्य न्यायाधीश खुद समिति के तीन सदस्यों में से एक होंगे, और उनके पास कोई वीटो शक्ति नहीं होगी, इसलिए किसी नियुक्ति पर किसी के बैठने का सवाल ही नहीं उठता है। 

चुनाव आयोग की नियुक्ति पर आदेश वास्तव में क्या कहता है?

मैं यहां जस्टिस के.एम. जोसेफ द्वारा लिखे गए बहुमत के फैसले के प्रासंगिक हिस्सों को फिर से प्रस्तुत कर रहा हूं ताकि पाठकों को इसका लाभ मिले और वे खुद निर्णय कर सकें कि कानून मंत्री का आरोप सही है या नहीं:

"रिट याचिकाओं को आंशिक रूप से अनुमति दी गई और उनका निस्तारण निम्नानुसार किया गया है:

I. हम घोषणा करते हैं कि जहां तक मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के पदों पर नियुक्ति का संबंध है, इसे भारत के राष्ट्रपति द्वारा भारत के प्रधानमंत्री, लोक सभा में विपक्ष का नेता और यदि ऐसा कोई नेता नहीं है तो लोक सभा में विपक्ष में सबसे बड़ी संख्या वाली पार्टी के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश की एक समिति द्वारा दी गई सलाह के आधार पर किया जाएगा। संसद द्वारा कानून बनाए जाने तक यह मानदंड कायम रहेगा।

2॰ जहां तक भारत के चुनाव आयोग के लिए एक स्थायी सचिवालय स्थापित करने और इसके खर्च को भारत की संचित निधि से देने से संबंधित राहत का संबंध है, न्यायालय ने भारतीय यूनियन/संसद से जरूरी बदलाव लाने पर विचार करने की इसके लिए जोरदार अपील की है। ताकि भारत का चुनाव आयोग वास्तव में स्वतंत्र हो जाए।"

पहले के फैसलों में, यह देखा गया है कि:

“... यह संसद की खुद की संवैधानिक क्षमता के तहत काम करने पर है कि क्या चुनाव आयुक्तों को [सीईसी के समान] सुरक्षा का विस्तार करना उचित होगा ताकि चुनाव आयुक्तों की स्वतंत्रता की रक्षा को और अधिक सुनिश्चित बनया जा सके। यह नियुक्ति के बाद [ईसी की] सेवा शर्तों में बदलाव के संबंध में भी है।"

सर्वोच्च न्यायालय ने विधायी शून्य को भरने के लिए केवल अंतरिम रूप से कार्य किया है, और सीईसी और ईसी की नियुक्तियों के मुद्दे पर और साथ ही वास्तव में स्वतंत्र चुनाव आयोग के अस्तित्व के लिए जरूरी अन्य मुद्दों को संसद के लिए अंतिम निर्णय छोड़ दिया है।

न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी, जिन्होंने एक सहमतिपूर्ण फैसला लिखा, ने अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मामले में कार्रवाई करने के निम्नलिखित कारण बताए हैं:

"अनुच्छेद 324(2) मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को संदर्भित करता है, जो नियुक्ति, संसद द्वारा इस संबंध में बनाए गए किसी भी कानून के प्रावधानों के तहत राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। इस पर विचार किया गया कि संसद मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए चयन प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए एक कानून बनाती है, लेकिन संविधान को अपनाने के 73 साल बाद भी ऐसा कानून संसद ने नहीं बनाया है। विधायी रिक्तता को भरने के लिए, अर्थात चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिए संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून की अनुपस्थिति और विधि आयोग, चुनाव आयोग, आदि की विभिन्न रिपोर्टों में व्यक्त किए गए विचारों के संदर्भ में, इस न्यायालय का सुविचारित मत यह है कि वर्तमान मामला उपयुक्त रूप से अनुच्छेद 142 के तहत न्यायालय की शक्ति के इस्तेमाल की मांग करता है, ताकि विधानमंडल तक मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के चयन (और हटाने) की प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए जा सकें।"

इसलिए, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कार्रवाई करने का कारण बहुत स्पष्ट है, कोई भी इस मामले का मूल्यांकन केवल राजनीतिक बयानों से प्रभावित हुए बिना कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने विधायी शून्य को भरने के लिए केवल अंतरिम रूप से कार्य किया है, और सीईसी और ईसी की नियुक्तियों के मुद्दे पर और साथ ही वास्तव में स्वतंत्र चुनाव आयोग के अस्तित्व के लिए जरूरी अन्य मुद्दों पर संसद पर अंतिम निर्णय छोड़ दिया है। .

केंद्रीय सतर्कता आयुक्त, केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक और प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक की नियुक्तियों के संबंध में विनीत नारायण बनाम भारत संघ के 1997 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई निम्नलिखित टिप्पणियों को फिर से प्रस्तुत करना भी उचित होगा:

"... यह कार्यपालिका का कर्तव्य है कि वह कार्यकारी आदेशों से रिक्त स्थान को भरे क्योंकि यह क्षेत्र विधायिका से संबंधित क्षेत्र है, और जहां भी कार्यपालिका की निष्क्रियता है, फिर वह किसी भी कारण से हो, ऐसे में न्यायपालिका को कदम उठाना चाहिए और पूर्वोक्त प्रावधानों के तहत इसका संवैधानिक दायित्व है कि वह इसका समाधान प्रस्तुत करे जब तक कि विधायिका इसके लिए उचित कानून बनाकर अपनी भूमिका निभाने का कार्य नहीं करती है।

चुनाव आयुक्त देश के प्रति जवाबदेह होते हैं। देश की जनता उन्हें लोकतंत्र के रक्षक के रूप में देखती है। ऐसे व्यक्ति जो सत्ता के समक्ष कमजोर हैं, उन्हें चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त नहीं किया जा सकता है। एक बाध्य व्यक्ति, या एक व्यक्ति जो खुद को नियुक्त किए जाने के लिए किसी का ऋणी महसूस करता है, वह राष्ट्र को विफल करता है और ऐसे व्यक्तियों की लोकतंत्र की नींव बनाने वाले चुनावों के संचालन में कोई भूमिका नहीं निभानी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा अपनी सिफारिशों को सर्वसम्मति से दोहराने के बाद भी केंद्र सरकार न्यायिक नियुक्तियों में लगातार देरी कर रही है, जो कानून के जनादेश के खिलाफ है।

अदालत ने देखा है कि सबसे तूफानी समय में भी तराजू को समान रूप से पकड़ना, और शक्तिशाली ताकतों के दबाव न आना, बल्कि कमजोरों और वंचितों के बचाव में आना, जो अन्यथा सही हैं, वे ही सच्ची स्वतंत्रता के मामले में योग्य होंगे। यह महत्वपूर्ण है कि नियुक्ति को इस धारणा से भी प्रभावित नहीं किया जाना चाहिए कि एक हां में हाँ मिलने वाला आदमी लोकतंत्र के भाग्य का फैसला करेगा और जो वह इस सब का वादा भी करता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इस ऐतिहासिक फैसले के पीछे यही औचित्य है।

स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के तहत उसे सौंपे गई न्यायिक समीक्षा के अपने कार्य को बखूबी करते हुए किसी भी लक्ष्मण रेखा को पार नहीं किया है; एक कार्य जिसे 1973 के बहुचर्चित केशवानंद भारती के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की मूल संरचना के हिस्से के रूप में मान्यता दी थी। 

कौन है जो वास्तव में लक्ष्मण रेखा लांघ रहा है?

2015 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना से संबंधित संवैधानिक संशोधन और अधिनियम को रद्द करने के बाद, केंद्र सरकार लगातार न्यायिक नियुक्तियों में देरी कर रही है, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा सर्वसम्मति दी गई सिफारिशों की के बाद भी नियुक्तियाँ नहीं की गई हैं जो कानून के जनादेश के खिलाफ है।

20 अप्रैल, 2021 को, सुप्रीम कोर्ट ने ओडिशा के एक मामले में इस तथ्य का खुद ही संज्ञान लिया था, और निर्देश दिया था कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा सर्वसम्मति से तीन से चार सप्ताह के भीतर राष्ट्रपति द्वारा न्यायिक नियुक्तियां की जाएंगी। इस आदेश का भी केंद्र सरकार ने सम्मान नहीं किया था, और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अवमानना की कार्यवाही भी शुरू की गई थी, लेकिन गतिरोध तब भी बना हुआ है जब केंद्रीय कानून मंत्री कॉलेजियम प्रणाली के खिलाफ सार्वजनिक बयान दे रहे हैं।

न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच एक स्पष्ट गतिरोध है। नतीजतन, कुछ उच्च न्यायालय आधे से भी कम बेंच के तहत पर काम कर रहे हैं, जिससे आम आदमी के दुख बढ़ रहे हैं।

न्यायाधिकरणों/ट्रीबुनल्स द्वारा न्यायिक कार्यों के निर्वहन के मामले में सुधारों पर 2010 में दिए गए आर.गांधी के फैसले के बाद से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए छह निर्णयों के बावजूद, केंद्र सरकार ने सही भावना में उनके कार्यान्वयन से लगातार परहेज किया है। जब भी सुप्रीम कोर्ट न्यायपालिका की स्वतंत्रता के खिलाफ काम करने वाले प्रावधान को खत्म करता है, केंद्र सरकार विधायी शासन के खिलाफ सिद्धांत की पूरी तरह से अवहेलना करते हुए निर्णयों के प्रभाव को खत्म करने के लिए एक नया प्रावधान लाती है, जिससे सर्वोच्च न्यायालय का मजाक बनता है। 

यह मामला तय है कि विधायिका, अदालत के फैसले के खिलाफ नहीं जा सकती है। यदि विधायिका को ऐसा करने की अनुमति दी गई, तो वह संवैधानिक दायित्व की सीमाओं से परे चली जाएगी। जबकि शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत, विधायिका को कोई भी ऐसी घोषणा करने से रोकता है कि एक निर्णय गलत या अमान्य, कानून बनाने वाला निकाय कानून बनाने का हकदार है जो उन दोषों को दूर करता है जो न्यायालय द्वारा इंगित किए गए हैं। किसी भी कानून का अधिनियमन, जो निर्णय के आधार को नहीं मानता है (केवल इसे अमान्य करने के विपरीत) वह अनुमेय है और पृथक्करण सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है। अदालती फैसलों से निपटने के दौरान भारत में संविधान के तहत विधायिका का यह सीमित दायरा है।

न्यायाधिकरणों के मामले में, केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए विभिन्न क्रमिक निर्णयों के प्रभाव को रद्द कर दिया है, और ऐसा कर उसने विधायी शासन के खिलाफ सिद्धांत को बेशर्मी से हवा में उछाल दिया है। 

लेकिन ट्रीबुनल्स/न्यायाधिकरणों के मामले में, केंद्र सरकार ने, वास्तव में, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए विभिन्न क्रमिक निर्णयों के प्रभाव को नहीं माना है, और बड़ी बेशर्मी से विधायी शासन अवज्ञा के खियाफ़ सिद्धांत को हवा में उछाल दिया है। रोजर मैथ्यू के फैसले के बाद से सुप्रीम कोर्ट के तीन फैसलों के बावजूद, केंद्र सरकार ने सदस्यों की नियुक्ति और न्यायाधिकरणों की ढांचागत जरूरतों को नियंत्रित करने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायाधिकरण आयोग (एक स्वतंत्र निरीक्षण निकाय) की स्थापना के निर्देश को लागू करने की जहमत नहीं उठाई है जो निर्देश 2019 में दिया गया था। 

यह गतिरोध न्यायपालिका को कई तरह से प्रभावित कर रहा है। जनता की धारणा में इसे कमजोर बनाया जा रहा है, क्योंकि इन पहलुओं पर न्यायिक पक्ष में भी उसके निर्देशों का पालन केंद्र सरकार द्वारा नहीं किया जा रहा है। सार्वजनिक धारणा में न्यायपालिका की एक कमजोर छवि लोगों के विश्वास को नष्ट कर देती है, जो लंबे समय में देश के शासन के खिलाफ गैर-उत्पादक बन सकती है।

अब पाठक खुद तय करें कि लक्ष्मण रेखा कौन लांघ रहा है।

सकल भूषण दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील हैं।

सौजन्य: द लीफ़लेट

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