Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

बंगाल चुनाव : क्यों सफल नहीं हो पाएगी ओवैसी की पार्टी

बंगाल एआईएमआईएम-शैली की पहचान की राजनीति के लिए अभी तैयार नहीं है, न ही पार्टी एक गंभीर चुनावी खिलाड़ी होने का दावा कर सकती है।
एआईएमआईएम
Image Courtesy: Zee News

जब से बिहार विधानसभा चुनाव में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लेमीन को "शानदार" सफलता मिली है, जहां उसने सीमांचल क्षेत्र में पांच सीटें जीती, और इससे राजनीतिक हलकों और मीडिया एजेंडे में हैदराबाद स्थित पार्टी की क्षमताओं को लेकर अटकलें तेज़ हो गई है। अब सबसे महत्वपूर्ण चर्चा इस बात पर चल रही है कि एआईएमआईएम विपक्षी वोटों को विभाजित करके, भारतीय जनता पार्टी को चुनाव जीतने में मदद कर रही है।

अब यह चर्चा और ध्यान बिहार से हटकर पश्चिम बंगाल की तरफ चला गया है, जहां विधानसभा चुनाव 2021 की पहली छमाही में होने तय हैं, और इस बारे में आम चर्चा है कि एआईएमआईएम फायरब्रांड नेता असदुद्दीन ओवैसी को एक नया उपजाऊ क्षेत्र मिल गया है। बिहार की सफलता को भुनाने के लिए, एआईएमआईएम की स्थानीय इकाई ने इस बात की घोषणा करने में समय बर्बाद नहीं किया कि वह राज्य में अपने उम्मीदवार खड़ा करेगी। यहां तक कि ओवैसी ने ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने की इच्छा व्यक्त की है।

याद रखें कि बनर्जी "हैदराबाद के नेताओं" पर पश्चिम बंगाल में "मुस्लिम राजनीति में उग्रवाद" को बढ़ावा देने का आरोप लगा चुकी हैं। इससे पहले कि वह खुद सीएए के विरोध प्रदर्शनों में डूबती, उनकी सरकार ने एआईएमआईएम से जुड़े कई कार्यकर्ताओं को तब गिरफ्तार कर लिया था जब कुछ जगहों विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए थे। बड़ा सवाल यह है कि क्या एक राज्य जो दशकों से वामपंथी गढ़ रहा है और जहां पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा एक शक्तिशाली विपक्षी दल बन कर उभरी है, वह राज्य क्या "मुस्लिमों की आवाज" के रूप में चुनावी लक्ष्य को हासिल करने के लिए तैयार है?

प्रतीची संस्थान से जुड़े साबिर अहमद ने अपने शोध में साबित किया है कि पश्चिम बंगाल की 294 विधानसभा सीटों में से 46 सीटों पर 50 प्रतिशत या उससे अधिक मतदाता मुस्लिम हैं। 16 सीटों पर, वे 40 से 50 प्रतिशत हैं, और 33 सीटों पर वे 30-40 प्रतिशत हैं। 50 सीटों पर, मुस्लिम कुल मतदाताओं का 20-30 प्रतिशत हैं।

आज तृणमूल सरकार को सत्ता-विरोधी भावना का सामना करना पड़ रहा है, इसके मद्देनजर भगवा पार्टी पश्चिम बंगाल में जबरदस्त राजनीतिक पूंजी लगा रही है। इस संदर्भ में, क्या एआईएमआईएम भाजपा की "बी टीम" बन सकती है, भले ही अनजाने में, जैसा कि मीडिया जोर देकर इसे समझा रहा है? अगर जमीनी हकीकत से रूबरू हुआ जाए तो इस सवाल का जवाब एक बड़ा "न" होगा। पश्चिम बंगाल के मुसलमान ओवैसी को मसीहा की तरह स्वीकार नहीं करेंगे जैसा कि वह इच्छा रखता हैं, विशेषकर आगामी चुनाव में तो ऐसा नहीं होने वाला है। एआईएमआईएम शायद ही सेंध लगा पाएगा, वास्तव में इसके कुछ अन्य कारण यहां दिए जा रहे हैं:

ओवेसी की लोकप्रियता को समझना 

अधिकांश मुख्यधारा के राजनीतिक दल और उदारवादी लोग एआईएमआईएम और ओवैसी पर "कट्टरपंथी" मुसलमानों और "चरमपंथ को बढ़ावा देने" का आरोप लगाते हैं। वास्तव में, उन्हें मुस्लिम वोटों के खोने का डर है, जिन पर हमेशा से उनका कब्जा रहा हैं। जबकि एआईएमआईएम पर बीजेपी की तरक्की में मदद करने का आरोप लगाया जा रहा है। लेकिन वास्तव में देखा जाए तो हिंदुत्व की राजनीति का तेजी से प्रसार होने में धर्मनिरपेक्ष ताकतों की विफलता है जिसने ओवैसी को तेजी से लोकप्रिय बना दिया है, खासकर युवाओं में। फिर चाहे गायों के नाम पर कत्ल या सीएए के विरोध में खड़े होने का सवाल रहा हो, संसद में या बाहर अक्सर ओवैसी हैं इन मुद्दों पर बोलते नज़र आए हैं।

फिर भी, एआईएमआईएम को हैदराबाद से दूर सीमित चुनावी सफलता मिली है। जहाँ इसने  जीत हासिल की या टक्कर दी (खासकर उत्तर प्रदेश में) वहां भाजपा पहले से ही सत्ता में थी और अपनी जीत को दोहराने के लिए तैयार थी। इसके अलावा, गैर-भाजपा दल उन प्रांतों में अव्यवस्थित दिखाई दिए। उदाहरण के लिए, बिहार में, सितंबर तक, एनडीए धड़ा जीत के मामले में काफी आशावादी था। जब तक कि तेजस्वी यादव ने अपनी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल के अभियान की शुरुआत नहीं की थी, लेकिन यह पहले से मौजूद ट्रेंड को बदलने में अपर्याप्त साबित हुआ। जिन क्षेत्रों में एआईएमआईएम ने अच्छा प्रदर्शन किया है, वहां कई मुस्लिम पहले से ही वहां के मौजूद राजनीतिक दलों या उनके स्थानीय प्रतिनिधियों से नाराज थे। इसका मुख्य कारण उनके प्रति सरकारी अधिकारियों का बढ़ता भेदभाव और हिंदुत्व के संगठनों द्वारा किया जाने वाली गंभीर दुर्व्यवहार हैं। यह स्थिति ओवैसी के लिए जमीन को उपजाऊ बनाती है, जो मुसलमानों की भावनाओं को समझने और उन्हें संवैधानिक ढांचे के भीतर चुनावी विकल्प प्रदान करता है।

सीमांचल में, एआईएमआईएम ऐसे कई अनुभवी और विश्वसनीय स्थानीय चेहरों अथरुल इमान, शनावाज़ आलम और अन्य लोगों को अपने साथ ला पाई जिनमें से कई को चुनाव जीतने का तजुरबा था या चुनावी सफलताओं की पारिवारिक विरासत उनके साथ थी। 

राजनीतिक रूप से सशक्त बंगाली मुस्लिम 

मुस्लिम सामाजिक-आर्थिक सूचकांकों पर अन्य समुदायों से बहुत पीछे हो सकते हैं क्योंकि सच्चर कमेटी रिपोर्ट, 2006 और प्रतिकी-एसएनएपी के 2016 की रिपोर्ट ऐसा दिखाती हैं, लेकिन वे राजनीतिक रूप से काफी सशक्त हैं और उन्हे इसका कुछ राजनीतिक लाभ भी मिलता हैं। इसके अलावा, पश्चिम बंगाल में अभी तक भाजपा शासन नहीं देखा गया है, हालांकि भारतीय जनसंघ (भाजपा के पूर्ववर्ती) के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी बंगाल से थे।

2014 और 2019 के आम चुनावों ने राजनीति में मुस्लिम को हाशिए पर धकेलने के रुझान को आगे बढ़ाया है। हालांकि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम प्रतिनिधित्व कहीं भी उनकी 27 प्रतिशत  आबादी के अनुकूल नहीं रहा है, लेकिन उनके प्रतिनिधित्व में काफी कुछ सुधार हुआ है। 2006 में 46 एमएलए से 2011 में 59 मुस्लिम विधायक बने, यह वह वर्ष था जब बनर्जी पहली बार मुख्यमंत्री बनी थी। उन विधायकों में से पच्चीस उनकी पार्टी से थे। 2016 में, मुस्लिम विधायकों की कुल संख्या समान रही, लेकिन मुस्लिम तृणमूल विधायकों की संख्या 32 हो गई थी। वर्तमान लोकसभा में, छह मुस्लिम सांसद हैं (2014 की तुलना में दो कम), और उनमें पांच तृणमूल सदस्य हैं। बिहार की राजद की तरह, ममता पर भी "तुष्टिकरण" की राजनीति का आरोप लगता है। सच है, पिछले कुछ वर्षों में, वह सार्वजनिक रूप से इस विषय की अधिक पहरेदार बन गई हैं, खासकर जब से प्रशांत किशोर को तृणमूल के चुनावी अभियानों को संभालने का जिम्मा दिया गया है, इसलिए ममता ने अल्पसंख्यक मामलों के पोर्टफोलियो को खुद ही संभाला और उनकी सरकार ने मुसलमानों के लिए कई कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की और साथ ही राज्य की ओबीसी-ए श्रेणी में कई मुस्लिम समुदायों को भी शामिल किया है।

साथ ही, इसी दौरान पश्चिम बंगाल में हिंसक सांप्रदायिक घटनाएं हुई हैं, उदाहरण के लिए हाल के वर्षों में धूलगढ़ और बशीरहाट के मसले पर सोशल मीडिया पर, विशेष रूप से 2019 के चुनाव के बाद से सांप्रदायिक बयानबाजी की जा रही है। इसके अलावा तृणमूल में फिरदाद हकीम के अलावा एक भी बंगाली मुस्लिम जन नेता नहीं है, जिसकी मां बंगाली है। तृणमूल सरकार के खिलाफ मुसलमानों के प्रति नौकरियों में भेदभाव से लेकर समुदाय के लिए कुछ खास न करने की  कई शिकायतें भी हैं। ममता के मतदाता और कैडर दोनों ही इस समय उनके नेतृत्व से खुद को दरकिनार महसूस कर रहे हैं, खासकर जब से उनका चुनावी अभियान प्रशांत किशोर और उनकी टीम की देखरेख में चला गया है।

पश्चिम बंगाल के मुसलमान केरल, गुजरात, महाराष्ट्र, कश्मीर, राजस्थान और अन्य राज्यों में काम करने के लिए पलायन कर सकते हैं, लेकिन वे उत्तरी राज्यों के मुसलमानों की तरह लालायित नहीं हो सकते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो बंगाल में, स्थानीय ब्लॉकों और पंचायतों में, मुसलमानों ने भाजपा शासित राज्यों की तरह मुसलमानों के प्रति शत्रुता और दमन नहीं देखा है। इसलिए, उनकी शिकायतें अभी तक उस स्तर तक नहीं पहुँची हैं जहाँ वे "तृणमूल को सबक सिखाना" चाहेंगे। इसके अलावा, कांग्रेस का अभी भी मालदा-मुर्शिदाबाद जैसे कुछ मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में मजबूत आधार है और इस तरह एआईएमआईएम अपने को एक विकल्प के रूप में पेश करने की स्थिति में नहीं है।

स्थानीय स्तर पर विश्वसनीय नेतृत्व का अभाव 

एआईएमआईएम को पश्चिम बंगाल में अभी तक कोई विश्वसनीय मुस्लिम नेता नहीं मिला है। यह कार्यकर्ताओं और राजनेता बनने की इच्छा रखने वालों छोटे अनुभव वाले लोगों पर अधिक निर्भर है। इसके पास मजबूत कैडर या ज़मीन आधारित नेटवर्क नहीं है, एक ऐसा राज्य जहां गांव के समुदाय भी पार्टी लाइनों के साथ विभाजित है। एक अन्य कारक जो उनके खिलाफ जा सकता है वह यह है कि एआईएमआईएम को उर्दू भाषी लोगों की पार्टी के रूप में देखा जाता है। तदनुसार, पार्टी की अधिकांश राज्य इकाई कोलकाता और आसपास के "गैर-बंगालियों" से बनी है।

राज्य में 90 प्रतिशत से अधिक मुसलमान जातीय तौर पर बंगाली हैं, जिनमें से अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। कोलकाता और उसके उपनगरों, आसनसोल और कुछ अन्य शहरी क्षेत्रों में, मुसलमान बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के उर्दू भाषी प्रवासियों के वंशज हैं। उनके बीच कुछ महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और राजनीतिक मतभेद हैं, और उभरता मध्य वर्ग कोलकाता के मुस्लिम नेताओं पर एजेंडे और संसाधनों को अपहृत करने या कब्ज़ाने का आरोप लगाता है।

ऐसी अफवाहें हैं कि एआईएमआईएम कुछ कार्यकर्ताओं के साथ बातचीत कर रही है, जिसमें युवा और महत्वाकांक्षी अब्बास “भाईजान” सिद्दीकी शामिल हैं, जो फुरफुरा शरीफ दरगाह संरक्षक है जिसका दक्षिण बंगाल में काफी प्रभाव है। जब तक एआईएमआईएम को विश्वसनीय बंगाली मुस्लिम नेता नहीं मिलते, ओवैसी का करिश्मा मौजूदा टीम के साथ राज्य में चुनावी प्रभाव बनाने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।

बंगाल मुस्लिम पहचान की राजनीति के लिए तैयार नहीं है 

देश के विभाजन की यादों से घिरे एक राज्य में, जिसने दशकों तक वाम शासन को भी देखा है, बंगाली मुस्लिम मध्यम वर्ग सार्वजनिक प्लेटफार्मों पर एक धर्मनिरपेक्ष रुख अपनाता है। इसके अलावा, बंगाली मुस्लिम किसान, धर्म की परवाह किए बिना, एक साझा सांस्कृतिक विरासत को जीता हैं। हाल के दशकों में एक नया उभरता हुआ बंगाली मुस्लिम मध्यम वर्ग भद्रलोक के बीच कुछ असहजता पैदा कर रहा है; जो साधारण धार्मिक समारोहों (जैसे नबी दिवस) को "कट्टरता" के प्रमाण के रूप में बताते हैं, परिणामस्वरूप इससे भाजपा को हिंदू और तृणमूल विरोधी वोटों को मजबूत करने में मदद मिली हैं।

हालांकि पश्चिम बंगाल में सीएए विरोधी प्रदर्शनों ने मुसलमानों को कुछ हद तक लामबंद किया है, लेकिन यह उस हद तक पकड़ में नहीं आया है कि वे पहचान की राजनीति में शामिल होंगे। वर्तमान परिदृश्य में यह महत्वपूर्ण है खासकर पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के उछाल को देखते हुए। जमीयत-ए-उलमा के राज्य अध्यक्ष, मंत्री सिद्दीकल्लाह चौधरी को दरकिनार किए जाने के बावजूद उनके तृणमूल के साथ बने रहने की संभावना है। फुरफुरा शरीफ (अब्बास सिद्दीकी के चाचा) से पीरजादा तोहा सिद्दीकी ने पहले ही कुछ शर्तों पर तृणमूल के साथ रहने इच्छा व्यक्त की है। अधिक प्रभावशाली मुस्लिम मौलवी और जमीनी स्तर के संगठन तृणमूल का समर्थन कर सकते हैं क्योंकि चुनाव का दिन नजदीक आ रहा है, और इसलिए शायद वे मुसलमानों को चेतावनी भी दे सकते हैं कि वे अपने वोट को विभाजित न होने दें।

रणनीतिक मतदान 

मुसलमानों को पता है कि ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में जहां उनका मतदाता प्रतिशत 25-50 प्रतिशत हैं, किसी भी तरह का विभाजन भाजपा को जीतने में मदद कर सकता है, जैसा कि उत्तरी मालदा में 2019 के चुनाव में हुआ था, जिसमें तृणमूल की मौसम नूर और उनके चचेरे भाई आशा खान चौधरी, कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला था लेकिन बीजेपी ने इस सीट को छीन लिया था जबकि लगभग आधा निर्वाचन क्षेत्र मुस्लिम मतदाताओं का हैं।

इन दिनों मुस्लिम सामाज के विभिन्न तबके ममता के नेतृत्व से निराश हो सकते हैं। कुछ लोग सोशल मीडिया पर ओवैसी के प्रति खुशी ज़ाहिर कर सकते हैं। फिर भी उन्हें एहसास है कि अगले साल चुनाव कितना महत्वपूर्ण है। उन्हें पता है कि एआईएमआईएम उनके वोटों को विभाजित कर सकती है, जो बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। तृणमूल सुनिश्चित करेगी कि मतदाता मुस्लिम नेताओं के साथ मिल कर इसका प्रचार करें। जवाब में, मतदाताओं को अतिरिक्त सतर्क रहने की उम्मीद है।

इन सबके बावजूद अगर भाजपा सूबे में पहली बार सूक्ष्म स्तर पर चालक प्रबंधन और तृणमूल हिंदू विरोधी वोटों के गठजोड़ से (एक रणनीति जिसने असम में मदद की जहां 34 प्रतिशत मुस्लिम हैं और उत्तर प्रदेश है जहां 19 प्रतिशत मुस्लिम आबादी) सत्ता में आती है तो इसका दोषी ओवैसी और मुस्लिम को ठहराया जाएगा। यदि एआईएमआईएम को उसके द्वारा लड़े जाने वाली निर्वाचन क्षेत्रों में केवल कुछ हजार ही वोट मिलते हैं, तो भी भाजपा की बढ़ोतरी को आसान बनाने का आरोप लगाया जाएगा। इसलिए, यह सीमांचल की तरह यहाँ दूध दुहने की इच्छा रख सकती है और इसलिए मीडिया का ध्यान आकर्षित कर सकती है, लेकिन कुछ सीटों पर ही यह चुनाव लड़ सकती है-उन पर भी उनकी कोई गंभीर दावेदार नहीं होगी। भाजपा के पीछे तृणमूल विरोधी मतदाताओं की एकजुटता को देखते हुए, सत्ताधारी दल भी इस समय गैर-जिम्मेदार एआईएमआईएम के साथ गठबंधन में नहीं जाएगा। 

संक्षेप में कहें तो, न तो पश्चिम बंगाल एआईएमआईएम किस्म की मुस्लिम पहचान की राजनीति के लिए तैयार है और न ही पार्टी राज्य में एक गंभीर चुनावी ताक़त के रूप में उभरने को तैयार है।

एम रियाज़, अलिया विश्वविद्यालय, कोलकाता में मास कम्यूनिकेशन विभाग के प्रमुख हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why AIMIM Will Not Succeed in West Bengal Election

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest