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क्यों अफ़ग़ानिस्तान संकट शरणार्थी क़ानून की ज़रूरत को रेखांकित करता है

शरणार्थियों को भारत में शरण देने के मामले में क़ानून की कमी खल रही है और पड़ोसी अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक संकट के कारण भाग रहे शरणार्थियों को समर्थन देना भारत की नैतिक अनिवार्यता बन गई है।
क्यों अफ़ग़ानिस्तान संकट शरणार्थी क़ानून की ज़रूरत को रेखांकित करता है

शरणार्थियों को भारत में शरण देने के मामले में क़ानून की कमी है और पड़ोसी अफ़ग़ानिस्तान में उभरे राजनीतिक संकट के कारण भाग रहे शरणार्थियों को समर्थन देने की अनिवार्य नैतिक ज़िम्मेदारी भारत पर आन पड़ी है, जय मनोज संकलेचा इस मामले में एक समर्पित और समान घरेलू शरणार्थी क़ानून की जरूरत और भारत में शरणार्थियों के साथ व्यवहार के लिए समान मानकों पर प्रकाश डालते हैं जो पूरी तरह से सरकार के विवेक पर निर्भर न हो।

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काबुल पर तालिबान के कब्ज़ा कर लेने से पूरे अफ़ग़ानिस्तान में अफरातफरी मच गई है। दमनकारी शासन से बचकर भागने के लिए हताश जनता राजधानी के हवाई अड्डे पर जमा हो रही है और इसलिए आम अफ़ग़ानियों पर हमले और एयरलाइंस और सैन्य परिवहन से चिपके रहने के भयानक दृश्य दुनिया के सामने आ रहे हैं। विशेष रूप से अल्पसंख्यकों, महिलाओं, विदेशी गठबंधन बलों के स्थानीय कर्मचारियों, पत्रकारों और शिक्षाविदों के बीच, नए शासन के हाथों उत्पीड़न का भय छाया हुआ है।

इस बढ़ते मानवीय संकट के बीच, साठ से अधिक देशों ने एक संयुक्त बयान जारी कर सभी हितधारकों से यह सुनिश्चित करने का आह्वान किया है कि देश छोड़ने की इच्छा रखने वाले अफ़ग़ानों और अंतर्राष्ट्रीय नागरिकों को ऐसा करने की अनुमति दी जाए। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी सभी देशों से अफ़ग़ान शरणार्थियों को आसरा देने और उन्हे निर्वासित करने से परहेज रखने का आग्रह किया है।

अफ़ग़ानिस्तान के साथ भारत के रिश्ते 

अफ़ग़ानिस्तान के लोगों के साथ भारत के स्थायी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध हैं। भारत लंबे समय से अफ़ग़ानों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल का केंद्र रहा है। अफ़ग़ानिस्तान में सिखों और हिंदुओं का बड़ा तबका रहता है, हालांकि उनकी संख्या पिछले कुछ वर्षों में कम हो गई है।

काबुल के पतन के को देखते हुए, विदेश मंत्रालय ने एक औपचारिक बयान जारी किया है कि वह काबुल में अफ़ग़ान सिख और हिंदू समुदायों के प्रतिनिधियों के साथ लगातार संपर्क में है और वह उन लोगों को भारत वापस लाने के लिए हर कदम उठा रहा है खासकर जो अफ़ग़ानिस्तान छोड़ना चाहते हैं। हालांकि, मंत्रालय के प्रवक्ता ने कथित तौर पर यह बताने से इनकार कर दिया कि क्या भारत उन अफ़ग़ान शरणार्थियों का स्वागत करेगा जो तालिबान की वापसी को देखते हुए देश छोड़ना चाहते हैं। हालांकि बाद की रिपोर्टों से पता चला है कि भारत धर्म-आधारित प्राथमिकता को दरकिनार करते हुए अफ़ग़ान शरणार्थियों को भी शरण दे सकता है।

यह एक स्वागत योग्य कदम है, क्योंकि हमें यह याद रखना होगा कि विभिन्न धर्मों से जुड़ी कमजोर आबादी, विशेष रूप से महिलाओं और लड़कियों को तालिबान से खतरा है।

देश में कोई भी शरणार्थी क़ानून नहीं है

शरणार्थियों को आसरा देने के हमारे समृद्ध इतिहास के बावजूद, भारत ने 1951 की शरणार्थी कन्वेन्शन पर हस्ताक्षर नहीं किए है, और न ही कोई घरेलू शरणार्थी क़ानून बनाया है।

वर्तमान में, शरणार्थियों को शरण देने का काम केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी 2011 की मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) द्वारा नियंत्रित किया जाता है। एसओपी के तहत, यदि प्रथम दृष्टया में कोई विदेशी जाति, धर्म, लिंग, राष्ट्रीयता, जातीयता, किसी सामाजिक समूह के सदस्य होने के नाते, या राजनीतिक राय के कारण उसके उत्पीड़न का भय स्थापित हो जाता है, तो संबंधित राज्य सरकार उनके नाम की सिफारिश केंद्रीय गृह मंत्रालय को कर सकती है और फिर उचित सुरक्षा सत्यापन प्रक्रिया के बाद दीर्घकालिक वीजा दिया जा सकता है। 

जहां विदेशी लोग इस तरह के दीर्घकालिक वीजा को लेने असमर्थ रह जाते हैं, सरकार को ऐसे व्यक्तियों को निर्वासित करने या वापस भेजने के लिए विदेशी अधिनियम, 1946 के तहत अप्रतिबंधित शक्तियां हासिल हैं।

इस तरह के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप भी एक समान नहीं रहा है। जबकि दिल्ली, गुजरात और मणिपुर उच्च न्यायालयों ने अनुच्छेद 21 न्यायशास्त्र के रूब्रिक या सरनामे का इस्तेमाल  करते हुए, शरणार्थियों को जबरन उस देश में भेजने की मनाही की है जहां उन्हें उनके जीवन को खतरा है और उनके अधिकारों को शरणार्थी के रूप में मान्यता दी है, सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दो अंतरिम आदेश में, रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार में निर्वासित करने की अनुमति दी थी, जहां यकीनन उन्हे उनके जीवन का खतरा हैं।

दुर्भाग्य से, व्यवहार में देखें तो, मौजदु एसओपी का काम-काज़ वर्तमान केंद्र सरकार की अक्सर अप्रत्याशित प्रेरणाओं की अनिश्चितताओं के अधीन है। इसने शरणार्थियों के विभिन्न समुदायों के साथ अलग-अलग विचारों और तत्कालीन सरकार की राजनीतिक इच्छा के आधार पर अलग-अलग व्यवहार करने की गुंजाइश पैदा की हुई है। पर्याप्त और ठोस दिशा-निर्देशों के अभाव का मतलब यह भी है कि क़ानून के तहत शरणार्थियों के पास सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं है।

अंत में, एक क़ानून बनाकर भारत, भारत में आए शरणार्थियों को सुरक्षा प्रदान करते हुए अपने स्वयं के राष्ट्रीय हितों की पर्याप्त रूप से पूर्ति कर सकता है और ऐसा कर भारत उचित रूप से रक्षा करने में सक्षम भी हो पाएगा।

नागरिकता संशोधन अधिनियम

आज के उभरे हालात यह भी सुझाव देते हैं कि विवादास्पद नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 की आवश्यकता अफ़ग़ानिस्तान संकट को रेखांकित करती है। हालांकि, संशोधन अधिनियम, जो शरणार्थियों के एक विशेष उप-समूह की नागरिकता को तेजी से ट्रैक करना चाहता है, यानी पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय जो धार्मिक उत्पीड़न का सामना कर रहे है, जिन्होंने दिसंबर 2014 से पहले भारत में प्रवेश किया है यह उनके लिए है लेकिन यह क़ानून, अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे मानवीय संकटों के प्रबंधन में कोई मदद नहीं करेगा।

दुर्भाग्य से संशोधन कट-ऑफ तिथि के कारण उन गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भी सुरक्षा प्रदान करने के मामले में अप्रयाप्त है जो तालिबान के हाथों उत्पीड़न के डर के मद्देनजर अफ़ग़ानिस्तान छोड़ना चाहते हैं। इसलिए, यह स्पष्ट है कि भारत को एक समान और सुसंगत शरणार्थी नीति की जरूरत है।

संसद के समक्ष लंबित विधेयक 

शरणार्थी संरक्षण की दिशा में भारत में एक समान और सुसंगत विधायी ढांचे की कमी के प्रति जागरूक, पिछले कुछ वर्षों में शरणार्थियों को शरण देने से संबंधित कई विधेयक संसद में पेश किए गए हैं, जिनको पेश करने में संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अवर महासचिव और वर्तमान संसद सदस्य शशि थरूरप्रमुख की बड़ी भूमिका हैं। दुर्भाग्य से, ये विधेयक संसद के समक्ष लंबित हैं और नजदीक भविष्य में इनके क़ानून बनने की कोई संभावना नहीं है।

फिर भी लंबित विधेयक किसी भी प्रस्तावित शरणार्थी क़ानून के लिए एक व्यापक ढांचा प्रदान करते हैं जिन्हे अंततः पारित किया जा सकता है। किसी भी प्रस्तावित क़ानून को "शरणार्थियों" को प्रवासियों और अन्य विदेशी से अलग एक भिन्न वर्ग के रूप में वैधानिक मान्यता प्रदान करने की जरूरत होगी, जो उनके गृह राज्य से उनके प्रस्थान को प्रेरित करने वाली विभिन्न परिस्थितियों को स्पष्ट रूप से पहचानते हो। शामिल "शरणार्थी" की परिभाषा या तो 1951 के कन्वेंशन के अनुरूप हो सकती है या "उत्पीड़न के अच्छी तरह से स्थापित भय" से परे खतरों को कवर करने की एक व्यापक धारणा को अपना सकती है।

किसी भी प्रस्तावित क़ानून में यह तय करने के लिए एक स्वतंत्र आयोग का भी प्रावधान होना चाहिए, ताकि यह साबित किया जा सके कि भारत में शरण मांगने वाला आवेदक "शरणार्थी" मान्यता प्राप्त करने का हकदार है या नहीं। एक स्वतंत्र आयोग के प्रावधान से वर्तमान शासन की कुछ कमियों को दूर करने में मदद मिलेगी।

प्रस्तावित क़ानून भारत में सभी शरणार्थियों के समान अधिकारों और अन्य अधिकारों को तय कर सकता है, जिसमें अदालतों तक पहुंचने का अधिकार, रोजगार प्राप्त करने का अधिकार, पहचान पत्र और यात्रा दस्तावेजों के अधिकार आदि शामिल हो सकते हैं, जिससे 1951 की कन्वेंशन के तहत सुरक्षा के न्यूनतम मानकों के साथ समानता सुनिश्चित की जा सके।

अंत में, इस तरह के किसी भी प्रस्तावित क़ानून में शरणार्थियों को वापस भजने के प्रथागत अंतरराष्ट्रीय क़ानून के सिद्धांत को वैधानिक मान्यता प्रदान करने की भी मांग करनी चाहिए, ताकि शरणार्थी को उस देश में जबरन निर्वासन से रोका जा सके जहां उनके जीवन को खतरा मौजूद हो।

भारत द्वारा प्रशंसनीय प्रयास

जबकि अफ़ग़ानिस्तान संकट के जवाब में सरकार के प्रयास प्रशंसनीय रहे हैं, और विदेश मंत्रालय ने आपातकालीन ई-वीजा नीति के माध्यम से अफ़ग़ान शरणार्थियों के प्रत्यावर्तन की सुविधा के बारे में त्वरित निर्णय लिए हैं, यह भारत की व्यापक जरूरत से दूर का मामला नहीं है। भारत में शरणार्थियों को शरण देने के लिए एक समान विधायी नीति तैयार करनी होगी। वास्तव में, अफ़ग़ानिस्तान संकट ने भारत में एक समान शरणार्थी क़ानून की जरूरत को ही रेखांकित किया है।

यह कहते हुए, यह मानना भी उतना ही जरूरी है कि अकेले भारत अफ़ग़ान शरणार्थियों के पुनर्वास की जिम्मेदारी नहीं उठा सकता है। यह जरूरी है कि इसके लिए एक वैश्विक प्रयास हो, जहां देश स्वेच्छा से अफ़ग़ान शरणार्थियों को समान आधार दे सकें। 

जैसा कि भारत, खुद को भारतीय उपमहाद्वीप में प्रमुख खिलाड़ी के रूप में स्थापित करना चाहता है और इसलिए अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों को ध्यान में रखते हुए, दमनकारी तालिबान शासन से भागने वाले अफ़ग़ानों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए उसे अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए।

(जय मनोज संकलेचा आईएचईआईडी, जिनेवा से अंतरराष्ट्रीय क़ानून में एलएलएम (उत्तम मार्क से) और एनयूजेएस, कोलकाता से बीए/एलएलबी (ऑनर्स) हैं और अंतरराष्ट्रीय क़ानून में विशेषज्ञता रखते हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।)

सौजन्य: द लीफ़लेट 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why the Afghanistan Crisis Underscores the Need for a Refugee Law

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