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क्यों मोदी सरकार के कृषि-क़ानून संविधान का उल्लंघन हैं

ये क़ानून संघवादी ढांचे की धारणा को ख़ारिज करते हैं और किसानों के देश को बड़ी पूंजी के नेतृत्व में कृषि-बाज़ार में बदलने का प्रयास करते हैं।
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2018 में, आधार अधिनियम को एक मनी बिल के रूप में पारित किया गया था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय देते हुए असंतोष जताया और इसे "संविधान के साथ धोखाधड़ी" के रूप में वर्णित किया था। एक राष्ट्रपति अधिसूचना के माध्यम से संविधान की धारा 370 को धारा 367 की लोकतांत्रिक विरोधी व्याख्या करके संशोधित कर दिया था। नागरिकता संशोधन अधिनियम को अवैध बयानों और झूठे कारणों के आधार पर लाया गया। और अब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन  की सरकार ने तीन कृषि-अधिनियमों को इस तरह पारित किया है जिसे कोई भी संसदीय लोकतंत्र स्वीकार नहीं कर सकता है- जो संविधान के साथ एक अन्य धोखाधड़ी है। ये नए क़ानून मौलिक रूप से असंवैधानिक हैं क्योंकि ये राज्य की शक्तियों का सर्वनाश करते हैं और केंद्र द्वारा राज्य विधायिका के क्षेत्राअधिकार में अतिक्रमण का काम करते हैं।

संघवादी विचार

संविधान सभा ने संघ और राज्यों के बीच संप्रभुता और अधिकारों के वितरण को लेकर व्यापक  बहस की थी और अनुच्छेद 1 और 246 के तहत एक सीमित संघीय ढांचे की परिकल्पना की थी। इस बहस और निर्णयों के माध्यम से दोनों राज्यों और केंद्रीय विधायिकाओं को दो सूचियों द्वारा कड़ाई से अलग किया गया था, और दोनों को ही भरपूर शक्ति दी गई थी। समवर्ती सूची की सूची III में- संवैधानिक विचार आपसी सहयोग वाले सहकारी संघ की परिकल्पना की गई थी।  यानि अपनी-अपनी सूची की प्रविष्टियों पर दोनों क़ानून बना सकते हैं। इसका मतलब स्पष्ट है कि संसद के पास संविधान को संशोधित करने की अनुच्छेद 368 के तहत शक्ति होने के बावजूद, वह राज्य के विषयों पर क़ानून नहीं बना सकती है। केंद्र राज्यों की प्लेनरी शक्तियों को न तो वापस ले सकता और न ही उन्हे हटा सकता है।

आज सरकार में मौजूद मंत्रियों, संसद सदस्यों, राज्यसभा के सभापति और उप-सभापति को या तो संविधान पढ़ना चाहिए था या फिर तीन कृषि-क़ानूनों को पारित करने से पहले उन लोगों से सलाह लेनी चाहिए थी जो क़ानून को समझते हैं। राज्य सूची में मौजूद 14, 18 और 24 उपधारा/प्रविष्टियां संसद को उनमें सूचीबद्ध विषयों पर कोई क़ानून पारित करने की अनुमति नहीं देती हैं। वास्तव में, राज्यों ने पहले से ही इन विषयों पर क़ानून बनाए हुए हैं, और वे अभी भी इन उपधारा/प्रविष्टियों में संशोधन या क़ानून बना सकते हैं ताकि एनडीए के कृषि-क़ानूनों ने किसानों की जो सुरक्षा रद्द की है उसे मजबूत सुरक्षा प्रदान की जा सके।

जब केंद्र के कृषि-क़ानून और राज्यों के एपीएमसी क़ानून एक-दूसरे के विरोधाभासी बन गए हैं, तो संविधान राज्य द्वारा बनाए क़ानूनों की वैधता को सुनिश्चित करता है, भले ही वे केंद्रीय क़ानून के लिए विरुद्ध क्यों न हों। ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य सूची में सूचीबद्ध विषयों पर राज्य के क़ानून केंद्रीय क़ानूनों के ऊपर काम करते है। संविधान, संसद को केवल तभी ऐसा कोई अधिकार देता है, जब राज्य और केंद्र दोनों मिलकर समवर्ती सूची के किसी विषय पर एक क़ानून बनाते हैं।

अनुच्छेद 246 (3) कहता है: “किसी भी राज्य की विधायिका उपधारा (1) और (2) के तहत अपने राज्य के लिए क़ानून बना सकती है, या उसके किसी भी भाग के लिए, जो संविधान में सातवीं अनुसूची में मौजूद सूची II में शामिल किसी भी मामले से संबंध है के लिए क़ानून बना सकता है। इस को राज्य सूची कहा गया है। इसलिए, राज्य की कार्यकारिणी भी सूची I में दर्ज विषयों पर कोई भी निर्णय नहीं ले सकते हैं और न ही क़ानून बना सकते हैं। यह संविधान की अनुसूची 7 में संघ सूची के रूप में केंद्र के अधिकारक्षेत्र में आती है। इसी तरह, संसद भी, सूची II के तहत उपधारा/प्रविष्टियों पर क़ानून नहीं बना सकती है- जैसा कि वर्तमान संसद ने कृषि-क़ानूनों को लागू कर संविधान का उलंघन किया है।

हालांकि धारा 246 (3) जो उपधारा/प्रविष्टि (1) और (2) से तहत" शुरू होती है, फिर भी इन उपधाराओं में ऐसा कुछ नहीं है जिन पर संसद राज्य सूची में शामिल विषयों पर क़ानून बनाए। सिर्फ संसद ही नहीं, यहां तक कि अन्य राज्यों की विधायिकाओं को भी राज्य सूची की किसी भी उपधारा पर किसी भी राज्य के लिए क़ानून बनाने से पूरी तरह से बाहर रखा गया है। इसी तरह, राज्यों के पास संघ विषयों पर क़ानून बनाने की कोई शक्ति नहीं हैं।

संसद के पास राज्य के विषयों पर क़ानून बनाने की शक्तियां तब आती हैं, जब राज्यसभा में  दो-तिहाई बहुमत ये महसूस करे कि ऐसा करना "राष्ट्रीय हित" में जरूरी है। इसे अनुछेद 249 (1) के तहत प्रदान किया गया है। आपातकाल की घोषणा के (अनुछेद 250) है, या केंद्र द्वारा राज्य विषय पर क़ानून बनाने के लिए दो या अधिक राज्यों की अनुमति (अनुछेद 252) के तहत दी गई है, और इसके अलावा केंद्र अंतर्राष्ट्रीय समझौतों और संधियों को (अनुछेद 253) के तहत प्रभाव में ला सकता है और राज्य सूची की प्रविष्टियों पर क़ानून बना सकता है। लेकिन संसद द्वारा पारित ये तीन कृषि-बिल इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं आते हैं।

समवर्ती सूची, जो भारत के संघीय संविधान की अद्वितीय मिसाल है, इसका उद्देश्य केंद्र और राज्यों की विशेष शक्तियों की कठोरता को कम करना है। संविधान में 101वां संशोधन अधिनियम 2016 में अनुछेद 246ए के नाम से प्रस्तुत किया गया था जिसने केंद्र को जीएसटी क़ानून बनाने के लिए सशक्त किया था जिसमें सभी राज्य आते है। लेकिन यह राष्ट्र के सहकारी संघवाद के खिलाफ चला गया, और हम इसके चलते राज्यों के घटते वित्त और बढ़ते बकाए के परिणामों के रूप में देख सकते हैं।

एक अन्य उदाहरण का हवाला लेते हैं, कृषि उपज बाजार समिति (एपीएमसी) क़ानून मुख्य रूप से किसानों को समर्थन देने और उनकी रक्षा करने के लिए बनाए गए थे, जो कि जोड़-तोड़ वाले वाणिज्यिक बाजारों में उनकी कमजोर स्थिति का एहसास कराता है। केंद्र द्वारा लागू नए क़ानून की धारा 7, हालांकि, राज्य क़ानून द्वारा प्रदान किसानों के कल्याण को ध्यान में रख कर प्रदान की गई सुरक्षा को पूरी तरह से हटा देते है। सवाल यह है कि क्या नए कृषि-क़ानून, जिन्हें सूची III की प्रविष्टि या उपधारा 33 के माध्यम से लागू किया गया है, उन्हे राज्य सूची के तहत राज्य की प्लेनरी शक्तियां इन क़ानूनों को ओवरराइड कर सकती हैं?

अब, केंद्रीय और राज्य क़ानून के बीच किसी भी तरह के टकराव को, दोनों अपने संबंधित क्षेत्रों के भीतर विधान के माध्यम से केवल अनुछेद 246 के तहत हल कर सकते है। यह अनुच्छेद संसद और राज्यों की पूर्ण विधायी शक्तियों के साथ संबंधित सूचियों और समवर्ती सूची पर उनकी सामान्य शक्तियों से संबंधित है। टकराव को अनुच्छेद 254 के तहत हल नहीं किया जा सकता है, जो संसद और राज्य विधानसभाओं द्वारा बनाए गए क़ानूनों के बीच किसी भी असंगतता के साथ जाता है। इसके अलावा, न्यायपालिका ने कुछ ऐसी व्याख्या या ऐसे कई सिद्धांतों को विकसित किया है जो तय करते हैं कि क़ानून दमनकारी या असंगत है। हालांकि, वे उस मामले में अप्रासंगिक हैं जब संसद राज्य के विषय पर क़ानून पारित करती है और केंद्र-राज्य के बीच उस विषय पर टकराव पैदा होता है। राज्यों के एपीएमसी अधिनियमों के संदर्भ में इसे समझाने के लिए, याद रखें कि ये सभी क़ानून सूची II की 14, 18 और 28 उपधारा से लिए गए हैं जो वास्तव में राज्य सूची के अंतर्गत आते हैं।

ये तीन प्रविष्टियाँ/उपधारा इस प्रकार हैं:

"प्रविष्टि/उपधारा 14 कृषि से संबंधित है, जिसमें कृषि शिक्षा और अनुसंधान सहित, कीटों से सुरक्षा और पौधों/फसलों की बीमारियों की रोकथाम शामिल है”।

प्रविष्टि/उपधारा 18, भूमि, अर्थात् भूमि में या भूमि पर अधिकार, भूमि के मालिक और जोतदार/किरायेदार के संबंध में, और किराया संग्रह करने के सहित अधिकार; कृषि भूमि का हस्तांतरण और अलगाव; भूमि सुधार और कृषि ऋण; बस्ती बनाने से संबंधित है।

प्रविष्टि/उपधारा 28, बाजार और मेले से संबंधित है”।

प्रविष्टि/उपधारा 14 में "कृषि" का व्यापक दायरा आता है और इसमें भूमि, कृषि का कार्य, बीज और उपज शामिल हैं। अब, एपीएमसी अधिनियम "कृषि उपज" को "कृषि की उपज" के रूप में परिभाषित करता है। विनिर्माण और उत्पादों के बीच के अंतर को समझने के लिए सूची II की प्रविष्टि/उपधारा 24 में "उद्योग" प्रासंगिक है। यह प्रविष्टि/उपधारा मैन्युफैक्चरिंग को कवर करती है लेकिन इसके प्रोडक्ट को नहीं। इसी तरह, प्रविष्टि/उपधारा 26 और 27, व्यापार और वाणिज्य से निपटने के मामले में तथा आपूर्ति और वितरण के लिए अलग-अलग प्रविष्टियां हैं। हालांकि, "उद्योग" के विपरीत, "कृषि" से संबंधित प्रविष्टि 14 का दायरा व्यापक है और इसमें कृषि उपज भी शामिल है। इसके अलावा, ऐसी उपज की बिक्री और खरीद पूरी तरह से सूची II में, यानी "बाजारों और मेलों" की प्रविष्टि 28 के तहत आती है। यह प्रविष्टि/उपधारा समवर्ती या संघ सूची में किसी अन्य प्रविष्टि के अधीन नहीं है यानि यह स्वतंत्र प्रविष्टि है। निष्कर्ष यह निकलता है कि राज्य का इन सभी पर एक स्वतंत्र वैधानिक शक्ति तंत्र हैं। 

"खाद्य पदार्थों" का इस्तेमाल कर कृषि अन्नदाता को नुकसान पहुंचाना

केंद्र ने सूची I की प्रविष्टि/उपधारा 26 और 27 से इस प्रावधान का उपयोग किया है कि सूची III (समवर्ती सूची) की प्रविष्टि 33 के अधीन है जिसमें "खाद्य पदार्थ" शामिल हैं, और केंद्र ने इस आधार पर दावा किया है कि केंद्र सरकार इस पर क़ानून बना सकती है। अब देखें कि यहाँ प्रविष्टि 33 क्या कहती है: “व्यापार और वाणिज्य, और उत्पादन, आपूर्ति और वितरण, जिसमें (ए) किसी भी उद्योग के उत्पाद के संबंध में जहां केंद्र सरकार ने ऐसे उद्योग का नियंत्रण संसद द्वारा सार्वजनिक हित में क़ानून पारित कर घोषित किया है, और इस तरह के उत्पादों के रूप में उसी तरह के आयातित माल; (बी) खाद्य तेल, खाद्य तिलहन और तेल सहित; (ग) पशुओं का चारा, तेल-केक और अन्य सांद्रता सहित; (डी) कच्चे कपास, चाहे कटा या बिना कटा हुआ, और कपास के बीज; और (j) कच्चा जूट शामिल है।

खाद्य आपूर्ति में किसी भी तरह की असामान्य उछाल या गिरावट को संभालने के लिए, केंद्र को 1950 में, अस्थायी रूप से कृषि व्यापार और वाणिज्य पर क़ानून बनाने के अधिकार दिए गए थे। इसे अनुच्छेद 369 के तहत मात्र पांच साल के अस्थायी प्रावधान के रूप में दिया गया था। 1954 में, केंद्र ने संविधान (तीसरा संशोधन) अधिनियम के माध्यम से इसे एक स्थायी प्रावधान में बदलने की कोशिश की थी। इसका उद्देश्य कुछ विषयों को सूची II से सूची III में स्थानांतरित करना था। हालाँकि, ऐसा होने से राज्यों को प्रवासित होने वाली वस्तुओं पर क़ानून बनाने से  उनकी विशेष शक्तियों से वंचित होना पड़ता। कृषि और वाणिज्य पर केंद्र को समवर्ती शक्तियों को देने का अर्थ यह भी होगा कि केंद्र इस क्षेत्र की विधायी शक्तियों को पूरी तरह से अपने अधिकार में ले लेगा।

मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में पढ़ाने वाले प्रो॰ आर॰ रामकुमार ने हाल ही में द हिंदू में लिखा था कि कैसे संसद सदस्यों ने 1954 के संशोधन का विरोध किया था और  संयुक्त समिति की रिपोर्ट में अपना असंतोष को दर्ज़ किया था। उन्होंने कहा था कि अनुछेद 369 को समवर्ती सूची में रखना राज्य की स्वायत्तता को और राज्य शक्तियों और अधिकारों को "भ्रमपूर्ण" और उन्हे “पीसना या चकनाचूर” करना होगा। फिर भी, केंद्र सरकार ने असंतोष को  अनदेखा करते हुए संशोधन को पारित कर दिया था। अब दूसरी आशंका यह थी कि केंद्र, राज्य विधायिका के विषयों पर पूर्ण रूप से नियंत्रण कर लेगा, जो अब मोदी निज़ाम के तहत सच होता नज़र आ रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने एपीएमसी अधिनियम के संबंध में विशेष रूप से राज्य के विषयों पर केंद्र सरकार द्वारा पारित क़ानूनों के मुद्दे की गहन जांच की है। 1971 में, केंद्र ने तम्बाकू उद्योग को विनियमित करने के लिए तम्बाकू बोर्ड अधिनियम पारित किया था और इस प्रकार राज्यों को उनकी शक्ति से वंचित कर दिया था। बिहार अधिनियम ने तंबाकू को एक कृषि उपज के रूप में सूचीबद्ध किया था और इसका बाजार मूल्य 35,87,072 रुपए लगाया गया, जिसे आईटीसी लिमिटेड ने चुनौती दी थी। इसी तरह की चुनौतियां कई अन्य राज्यों से भी मिली। आईटीसी बनाम एपीएमसी, 2002 केस में सीजेआई जीबी पटनायक, वाईके सभरवाल, रूमा पाल, बृजेश कुमार की संविधान पीठ ने कहा कि राज्य विधानसभाएं “लेवी के लिए क़ानून बनाने और बाजार में तंबाकू की बिक्री पर शुल्क वसूलने के लिए बाजार के क्षेत्र में ”सक्षम क़ानून बनाने के लिए पूरी तरह से सक्षम और स्वतंत्र हैं। इसलिए, राज्यों द्वारा अधिनियमित किए गए बाजार अधिनियमों को वैध माना गया। अदालत ने कहा कि राज्य के क़ानून और तंबाकू बोर्ड अधिनियम, 1975- "कि वे बाजार के क्षेत्रों में तंबाकू की बिक्री से संबंधित हैं, इसलिए दोनों एक साथ लागू नहीं हो सकते हैं और इसलिए इस पर पहले वाला/पूर्ववर्ती पर क़ानून हावी रहेगा।" दूसरे शब्दों में कहे तो तंबाकू बोर्ड अधिनियम, 1971 को क़ानून के दायरे से बाहर पाया गया।

सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने स्पष्ट किया कि हालांकि इन सूचियाँ को सख्त वर्गों में नहीं रखा जा सकता हैं, फिर भी ... "सूची II में विषय से संबंधित प्रमुख, प्रविष्टि 24 के अलावा अन्य, व्यावहारिक रूप से उसे सूची II से गायब नहीं किया जा सकता हैं और ऐसा भी नहीं माना जाता सकता है कि वह अपनी समग्रता में सूची II के विषयों को छूने या लुभाने की आड़ में, सूची I की प्रविष्टि 52 के तहत तम्बाकू [एक] उद्योग के रूप में घोषित सूची i में चली गई है”।

इसलिए, सूची III की प्रविष्टि 33 में "खाद्य पदार्थों" की अभिव्यक्ति भी "कृषि उपज" को शामिल नहीं कर सकती है। सीधे शब्दों में कहें, तो केंद्र का कृषि उपज को "खाद्य पदार्थों" के रूप में विनियमित करना राज्यों की विधायी शक्तियों के साथ विरोधाभास और टकराव का रास्ता तैयार करेगा, जिसे वे सूची II की 14, 18 और 28 उपधारा से हासिल करते हैं। इसके अलावा, भले ही केंद्र के पास "खाद्य पदार्थों" पर क़ानून बनाने की शक्ति है, फिर भी इस विषय पर राज्य के क़ानून अधिक प्रबल होंगे, न कि केंद्रीय क़ानून। ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य भी समवर्ती सूची में मौजूद वस्तुओं पर क़ानून बना सकते हैं, और ऐसा अनुछेड़ 254 (2) में संरक्षित है।

सुप्रीम कोर्ट ने होईचस्ट फार्मा लिमिटेड बनाम बिहार राज्य में कहा है कि राज्य अधिनियम पर राष्ट्रपति की स्वीकृति का नतीजा, हालांकि जो एक समवर्ती विषय पर पूर्व केंद्रीय क़ानून के साथ असंगत है, लेकिन ऐसी स्थिति में राज्य क़ानून उस राज्य में प्रबल होगा यह केंद्रीय अधिनियम के प्रावधानों को अधिरोहित/ओवरराईड करेगा।

कल्याणकारी हुकूमत को बाज़ार की हुकूमत में बदलना

संवैधानिक दोषों के अलावा, नए कृषि-क़ानून किसानों के कल्याण को सुरक्षित करने के बजाय केंद्र के उस विचार को मज़बूत करते हैं जिसमें वे किसानों के प्रति कलयांकारी नीति का त्याग कर रहे हैं और जो अनुच्छेद 37 में सूचीबद्ध है, जो कहता है कि हुकूमत का यह कर्तव्य होगा कि वे उन सिद्धांतों को लागू करें जो भारतीय शासन के विधायी कार्य में "मौलिक" हैं। अनुच्छेद 38 (2) यह भी कहता है कि हुकुमत को “आय में असमानताओं को कम करने का प्रयास करना होगा, और स्थिति, सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को समाप्त करने का प्रयास करना होगा … [न केवल व्यक्तियों के लिए बल्कि समूहों सहित ऐसा करना होगा] खासकरु छोटे और सीमांत किसान, [जो] इन सभी कमजोरियों और भेद्यता के साथ एक अमीर कॉर्पोरेट कृषि कंपनी के सामने ऐसे खड़े होते हैं जैसे कि वे इनके मातहत और अधीनस्थ पार्टी हों, जहां वे समान शक्ति या संसाधन के साथ उनका मुक़ाबला नहीं कर सकते हैं..."

आज केंद्र सरकार कह रही है कि इसका मक़सद "एक राष्ट्र, एक बाजार" बनाना है और उनके द्वारा बनाए जा रहे नए क़ानून इसे सुनिश्चित करेंगे। जबकि क़ानून वास्तव में जो कर रहे हैं, वे किसानों के देश को बड़े व्यापारिक घरानों के हाथों सोंप रहे हैं ताकि देश को एक बाजार में बदला जा सके। 

लेखक पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त हैं और संवैधानिक क़ानून पढ़ाते हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Why Farm Laws Fall Afoul of the Constitution

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