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वन संसाधन अधिकार vs वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि अधिकार के भेद को समझना क्यों महत्वपूर्ण है?

वनाधिकार कार्यकर्ताओं, जो जंगल की रक्षा करने की कोशिश कर रहे हैं और भूमि अधिकारों के लिए अपने दावे दायर कर रहे हैं, के साथ अक्सर दुर्व्यवहार किया जाता है और उनके खिलाफ झूठे मामले दर्ज किए जाते हैं।
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छत्तीसगढ़ ऐसा पहला राज्य बन गया है जिसने शहरी क्षेत्रों और यहां तक कि टाइगर रिजर्व के कोर एरिया के अंदर भी वन अधिकारों को मान्यता प्रदान की है। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, धमतरी जिले में शहरी क्षेत्रों में 4,127 हेक्टेयर वनों पर वन संसाधन अधिकारों को मान्यता प्रदान करने वाला छत्तीसगढ़, पहला राज्य है। इसके अलावा, राज्य सरकार ने बाघ आरक्षित क्षेत्र के मुख्य क्षेत्र (कोर एरिया) के भीतर 5,544 हेक्टेयर वन पर सामुदायिक संसाधन अधिकारों को भी मान्यता दी है।

विश्व मूलनिवासी दिवस के अवसर पर रायपुर में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल द्वारा सामुदायिक वन संसाधन अधिकार प्रमाण पत्र वितरित किये गये। राज्य की 31% आबादी आदिवासी है। आईई रिपोर्ट के अनुसार, धमतरी और गरियाबंद जिलों में फैले टाइगर रिज़र्व में कोर ज़ोन के अंदर रहने वाले ग्रामीण लंबे समय से सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों को मान्यता की मांग कर रहे थे। जिन्होंने सरकारी अधिकारियों पर इस प्रक्रिया को लटकाने का आरोप लगाया था।

यही कारण है कि क्षेत्र के गांवों के आदिवासी समुदायों ने जनवरी में सीतानदी उदंती टाइगर रिजर्व को डीप वन्यजीव आवास के रूप में वर्गीकृत किए जाने का विरोध किया था। वन अधिकारी दावा कर रहे थे कि ग्रामीण कोर जोन में घुसपैठ कर रहे हैं जहां केवल बाघ ही रह सकते हैं। हालांकि, ग्रामीणों का तर्क था कि वे बिना किसी नुकसान के पीढ़ियों से वहां बाघों के साथ सह-अस्तित्व में रह रहे हैं। जोरातरई गांव के वन अधिकार समिति के अध्यक्ष बीरबल पद्माकर ने याद किया कि कैसे बाघ आरक्षित क्षेत्र पर अपने सामुदायिक संसाधन अधिकारों की मांग करने के लिए अतीत में उन पर लाठीचार्ज किया गया था, लेकिन अब आकर उन्हें राहत मिली है और सरकार ने आखिरकार उनके अधिकारों को मान्यता दी है।

अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 को आमतौर पर वन अधिकार अधिनियम (FRA) के रूप में जाना जाता है, जो वनों में रहने वाले समुदायों और व्यक्तिगत निवासियों के वन अधिकारों और वन भूमि पर कब्जे को पहचानने और मान्यता प्रदान करने के लिए लाया गया है। पीढि़यों से ये लोग ऐसे जंगलों में निवास कर रहे हैं लेकिन उनके अधिकार दर्ज नहीं हो सके हैं। यह अधिनियम वन क्षेत्रों में उनकी पैतृक भूमि और आवास आदि को मान्यता प्रदान करता है लेकिन वन अधिकारों को मान्यता देने के काम को पर्याप्त रूप से लागू नहीं किया जा सका है, जिसके परिणामस्वरूप वनवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ, जो वन पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और स्थिरता के अभिन्न अंग हैं।

छत्तीसगढ़ शहरी क्षेत्रों में एफआरए के तहत वन भूमि पर अधिकार प्रदान करने में अग्रणी रहा है। अगस्त 2020 में, यह जगदलपुर, बस्तर में शहरी वन भूमि पर अधिकार सौंपने वाला पहला राज्य बन गया, जब इसने 11 परिवारों को घरेलू उद्देश्यों के लिए वन भूमि अधिकार सौंपे थे।

सामुदायिक वन संसाधन क्या है?

सामुदायिक वन संसाधन सामुदायिक भूमि अधिकारों से अलग हैं, दोनों को अधिनियम के तहत मान्यता दी गई है। सामुदायिक वन संसाधन को अधिनियम की धारा 2(ए) के तहत गांव की पारंपरिक सीमाओं के भीतर एक प्रथागत सामान्य वन भूमि या परिदृश्य के मौसमी उपयोग के रूप में परिभाषित किया गया है जिसमें आरक्षित वन, संरक्षित वन और संरक्षित क्षेत्र जैसे अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान शामिल हैं। जिसकी समुदाय के पास पारंपरिक पहुंच है।

धारा 3(1)(i) के तहत, वन अधिकारों में किसी भी सामुदायिक वन संसाधन की सुरक्षा, पुनर्जनन या संरक्षण या प्रबंधन के अधिकार शामिल हैं, जिसे वे स्थायी उपयोग के लिए परंपरागत रूप से सुरक्षित और संरक्षित करते रहे हैं। सामुदायिक वन अधिकार ग्राम सभाओं के माध्यम से प्राप्त किए जाते हैं। ग्राम सभा ही ऐसे संसाधनों के सतत उपयोग को विनियमित करती हैं।

सामुदायिक वन संसाधनों में पारंपरिक चारागाह शामिल हैं; जड़ और कंद, चारा, जंगली खाद्य फल और अन्य लघु वन उपज के संग्रह के लिए क्षेत्र; मछली पकड़ने के क्षेत्र; सिंचाई प्रणालियां; मानव या पशुधन के उपयोग के लिए पानी के स्रोत, हर्बल चिकित्सकों के लिए औषधीय पौधों का संग्रह क्षेत्र। इसमें पारंपरिक कृषि के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि या स्थानीय समुदाय द्वारा निर्मित संरचनाओं के अवशेष, पवित्र वृक्ष, उपवन और तालाब या नदी क्षेत्र, कब्रिस्तान या श्मशान भूमि आदि भी शामिल हैं।

ग्राम सभा को सामुदायिक वन संसाधनों तक पहुंच को विनियमित करने और जंगली जानवरों, वन और जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली किसी भी गतिविधि को रोकने का अधिकार है। जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) द्वारा जारी किए गए एफआरए के कार्यान्वयन दिशानिर्देशों में कहा गया है कि सामुदायिक वन संसाधनों के उपयोग पर पारंपरिक रूप से लगाए गए समय सीमा जैसा कोई भी प्रतिबंध, अधिनियम की भावना के खिलाफ होगा।

केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय प्राप्त दावों और वितरित शीर्षकों (टाइटल) के संबंध में मासिक प्रगति रिपोर्ट जारी करता है। हालाँकि, यह सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों और सामुदायिक भूमि अधिकारों के दावों के बीच अंतर नहीं करता है, इसलिए, यह निर्धारित करना संभव नहीं है कि कितने संसाधन अधिकार बनाम भूमि अधिकार राज्य सरकारों द्वारा अनुमोदित किए गए हैं।

ज़मीन के अधिकार

भूमि अधिकारों को भी अधिनियम की धारा 3(1) के तहत परिभाषित किया गया है। इसमें वन भूमि के स्वामित्व का अधिकार, बंदोबस्त, आवास या आजीविका के लिए व्यक्तिगत या सामान्य व्यवसाय के तहत निज-खेती आदि के लिए वन भूमि में रहने का अधिकार शामिल है। इस प्रकार, व्यक्तिगत अधिकार मुख्य रूप से आवास या आजीविका के लिए हैं और सामुदायिक अधिकारों के दावे जल निकायों, चरागाह या किसी अन्य पारंपरिक मौसमी संसाधन के उपयोग के लिए दायर किए जाते हैं। धारा 3(1)(ई) के तहत आदिम जनजातीय समूहों और खेतिहर यानी कृषि के लिए वन भूमि पर निर्भरशील समुदायों के आवास के लिए सामुदायिक दावे भी दायर किए जा सकते हैं।

2014 में, कम्युनिटी फ़ॉरेस्ट राइट्स लेंडिंग एडवोकेसी द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई थी, जिसमें कहा गया था कि इस अधिनियम के तहत केवल 3% अधिकारों को ही मान्यता दी जा सकी है। देखें तो केवल 20 राज्यों ने ही एफआरए लागू किया है जिसमें कोई भी केंद्र शासित प्रदेश शामिल नहीं है। एफआरए में व्यक्तिगत वन अधिकारों के लिए अधिकतम 10 एकड़ भूमि का लाभ उठाया जा सकता है जबकि सामुदायिक वन अधिकारों के लिए कोई सीमा नहीं है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि व्यक्तिगत वन अधिकारों के लिए राष्ट्रीय औसत केवल 2.18 एकड़ का है और सामुदायिक वन अधिकारों के लिए यह 115 एकड़ है। आंकड़े बताते हैं कि कुछ सालों से मध्य भारत बेल्ट में राज्य व जिला स्तरीय (एसडीएलसी और डीएलसी) कोई बैठक नहीं हुई है।

एफआरए की धारा 12 (ए) में कहा गया है कि जब भी किसी के भूमि अधिकार के दावे को खारिज किया जाता है, तो इसका कारण लिखित रूप में दिया जाना चाहिए, लेकिन दावों की मनमानी अस्वीकृति के कई मामले सामने आए हैं। जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा लगभग 1.9 लाख व्यक्तिगत वन दावों और 76,000 सामुदायिक वन दावों को मंजूरी दी गई है, जिनमें से 70-80% व्यक्तिगत दावे छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, त्रिपुरा और मध्य प्रदेश राज्यों से दिए गए हैं, और सामुदायिक अधिकार गुजरात, छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में दिए गए हैं। एक बार जब लोगों को टाइटल का अधिकार मिल जाता है, तो उन्हें तीन महीने के भीतर अपने अधिकारों का रिकॉर्ड (खतौनी) मिल जाना चाहिए। एफआरए की धारा 16 में कहा गया है कि राज्य को विभागवार योजनाओं को एकीकृत करने का प्रयास करना चाहिए। यही कारण है कि कई अग्रणी राज्यों को भी अधिकार प्राप्त करने में परेशानी हो रही है।

जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी 28 फरवरी, 2021 की मासिक प्रगति रिपोर्ट बताती है कि दावों के सापेक्ष ओडिशा में सबसे अधिक शीर्षक वितरित किए गए हैं। यानी, दाखिल किए गए दावों में से 70.76% दावे स्वीकृत किए गए और टाइटल (शीर्षक) वितरित किए गए हैं। अन्य राज्यों में त्रिपुरा (60.6%), केरल (59.9%) और झारखंड (55.9%) दावे शामिल हैं। सबसे कम गोवा (0.45%), उसके बाद बिहार (1.5%) और उत्तराखंड (2.36%) जैसे राज्य हैं।

वन अधिकारों की हकीकत

10 जुलाई को , एक उग्र भीड़ ने मध्य प्रदेश के नेगांव-जमनिया गांव में आदिवासी ग्रामीणों के घरों को नष्ट कर दिया और संपत्ति लूट ली थी, यहां तक ​​कि वन विभाग और मौके पर तैनात पुलिस अधिकारी खड़े देखते रहे और 40 परिवारों को बेघर कर दिया गया। ये निष्कासन तब किए गए जब मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि कोविड-19 महामारी फैलने के बाद कोई निष्कासन नहीं किया जाएगा।

जनवरी में, उत्तर प्रदेश पुलिस ने वन भूमि पर अनधिकृत निर्माण का शांतिपूर्वक विरोध कर रही महिला वनाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ मारपीट की। आदिवासी और परंपरागत वनवासी समुदायों की बात करें तो महिला आदिवासी लीडर वन अधिकारों की रक्षा करने में सबसे आगे रही हैं और वनाधिकार कानून 2006 के तहत वन भूमि पर सामुदायिक दावे भी दायर कर रही हैं।

लीलासी गांव और इसकी बहादुर महिला वनाधिकार रक्षक पुलिस की बर्बरता के लिए नए नहीं हैं। मई 2018 में भी उन पर हमला किया गया था जब पुलिस गांव में घुस गई और महिलाओं को बेरहमी से पीटा और झोपड़ियों को तोड़ दिया। ऑल इंडिया यूनियन ऑफ़ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) के प्रमुख सदस्यों ने सरकारी अधिकारियों से मुलाकात की तो पुलिस ने अवैध रूप से सोकालो गोंड और किस्मतिया गोंड को हिरासत में ले लिया और उन्हें महीनों तक सलाखों के पीछे रखा। सीजेपी द्वारा एक निरंतर अभियान के बाद ही दोनों को रिहा किया गया था, जिसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष सोकालो और किस्मतिया गोंड के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर करना भी शामिल था।

वनाधिकार कार्यकर्ताओं, जो जंगल की रक्षा करने की कोशिश कर रहे हैं और भूमि अधिकारों के लिए अपने दावे दायर कर रहे हैं, के साथ अक्सर दुर्व्यवहार किया जाता है और उनके खिलाफ झूठे मामले दर्ज किए जाते हैं। पुलिस द्वारा उनके खिलाफ की जाने वाली कार्रवाई को वैध बनाने के लिए उन्हें 'नक्सल' तक भी कहा जाता है।

सितंबर 2020 में, करीब 108 गांवों के आदिवासी कैमूर जिले के अधौरा ब्लॉक के बिरसा मुंडा स्मारक स्थल पर एकत्र हुए थे, वे केवल अधिकारियों से बात करना चाहते थे और अपनी मांगों को उनके सामने रखना चाहते थे। इन मांगों में एफआरए लागू करना, कैमूर घाटी का प्रशासनिक पुनर्गठन, कैमूर को संविधान की पांचवीं अनुसूची के अनुसार अनुसूचित क्षेत्र घोषित करना आदि शामिल था। लेकिन पुलिस ने ग्रामीणों पर फायरिंग कर दी। फायरिंग और लाठीचार्ज में 7 कार्यकर्ताओं को न केवल गोली मारकर घायल किया गया, बल्कि झूठे आरोपों में पुलिस द्वारा उन्हें उठा भी लिया गया।

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