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धन्नासेठों की बीमार कंपनियों से पैसा वसूलने वाला क़ानून पूरी तरह बेकार

ज्यादातर बैंक वसूल न होने वाले पैसे को पहले ही बट्टे खाते में डाल चुके होते हैं। इसलिए उनकी चिंता पैसा वसूलने कि नहीं बल्कि बट्टे खाते को बंद करने की होती है। इसके अलावा, वसूली करने वाले अधिकारी वसूली करने की बजाय कारोबारियों के मुक्ति दिलाने के जुगाड़ में ज्यादा रहते हैं।
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बैंक, कारोबारी और नेताओं का गठजोड़ ऐसा है कि बैंकिंग व्यवस्था का सुधार धरा का धरा रह जाता है। नियम कानून कागज़ पर लिखे के लिखे रह जाते हैं।

बैंकों के जरिए कारोबारियों को मिला कर्जा जब पूरी तरह से बैंक में लौटकर वापस नहीं आ रहा था तो साल 2016 में इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड आया। जिसके बारे में गाजे-बाजे के साथ प्रचारित किया गया कि इससे बैंकिंग क्षेत्र में फंसे हुए कर्जे की परेशानी दूर हो जाएगी। जब कोई कारोबार डूबने वाली स्थिति में पहुंचेगा तो उस से जुड़े हित धारकों को कम से कम नुकसान होगा। जैसे बैंक के जरिए कारोबारी को दिया गया पैसा कम से कम नुकसान के साथ वापस मिल जाएगा। जिन लोगों ने कारोबार में पैसा लगाया है और पैसा कर्ज के तौर पर दिया है, उन लोगों को कम से कम नुकसान होगा। यह सब फायदे गिना कर इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कानून को अर्थव्यवस्था और बैंकिंग के क्षेत्र में बहुत बड़े सुधार के तौर पर बताया जा रहा था। बीमार कंपनियों से पैदा होने वाले नुकसान से जूझने के लिए सबसे बड़ा रामबाण बताया गया था।

इस कानून के कामकाज पर दो दिन पहले ही वित्त मामलों के संसदीय समिति ने संसद में रिपोर्ट पेश की है। रिपोर्ट में कहा है कि यह कानून रास्ते से भटक गया है। वैसा काम नहीं कर रहा है जिस काम के लिए इसे अस्तित्व में लाया गया था।

इस कानून के मुताबिक फंसे कर्ज से जुड़े मामलों का आइबीसी के तहत अधिकतम 180 दिनों के भीतर निपटारा करने का प्रावधान है। लेकिन  कुल मामलों के 71 फ़ीसदी यानी करीबन 13,000 मामले ऐसे हैं जो इस समय सीमा को बहुत पहले पार कर चुके हैं और लटके हैं। इन मामलों में 9 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की राशि फंसी हुई है। सबसे बड़ी बात जो इस कमेटी ने बताई है वह है कि तकरीबन बैंकों के बकाया कर्ज की औसतन 95% राशि की वसूली नहीं हो पाती है। यानी अगर बैंक तरफ से किसी कारोबारी ने ₹100 का कर्ज लिया है तो इंसॉल्वेंसी कानून की पूरी प्रक्रिया के बाद केवल ₹5 की वसूली हो पाती है। ₹95 डूब जाता है।

अब आप पूछेंगे कि पैसा तो बैंकों का डूबा है। उनका डूबा है जिन्होंने कारोबार में पैसा लगाया। तो इसमें आम जनता को नुकसान कैसे हुआ?

इसका सिंपल सा जवाब है कि बैंकों में आम लोगों का पैसा जमा होता है। इसी पैसे को बैंक कर्ज के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। मतलब अगर बैंक का पैसा डूबा तो जमा कर्ताओं का पैसा डूबा। इसका परिणाम यह निकलता है कि कुछ बैंक तो डूब ही जाते हैं और जो नहीं डूबते वह अपनी खस्ताहाली की वजह से जमा कर्ताओं पर ब्याज दर कभी नहीं बढ़ाते। आम लोगों के पैसे से कारोबारी मजे करते हैं और आम लोगों को ब्याज रत्ती बराबर भी नहीं मिलता। इतना भी नहीं मिलता कि महंगाई की दर और बैंकों में बचत दर दोनों के बीच ठीक-ठाक संतुलन स्थापित हो पाए।

इसका दूसरा नुकसान यह होता है कि जब बैंकों का कर्जा वापस नहीं आता तो बैंकों की हालत को सुधारने के लिए भारत सरकार बैंकों को पैसा देती है। और यह पैसा हमारे और आपके यानी नागरिकों के कर से यानी टैक्स से दिया जाता है। वही टैक्स जिसे पेट्रोल और डीजल पर लगाकर भारत सरकार जमकर वसूली कर रही है।

यानी अर्थव्यवस्था और बैंकिंग सुधार से जुड़े नियम कानून अगर असर न भी करें तो नुकसान न तो कारोबारी का होता है न नेता का होता है और न ही बैंक का होता है। अंतिम तौर पर नुकसान आम जनता का होता है।

अब वीडियोकॉन का उदाहरण भी देखिए। वीडियोकॉन की देनदारी तकरीबन 64 हजार करोड़ की थी। मतलब बैंक और दूसरे कर्जदारों को मिलाकर 64 हजार करोड रुपए वीडियोकॉन से वसूले जाने थे। इंसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कानून के तहत महज 4 फ़ीसदी की वसूली हुई। देनदारी का 96 फ़ीसदी पैसा नहीं मिला। और बैंकों के करीब 42 हजार करोड रुपए डूबेंगे।

यानी सबसे बड़ा नुकसान लोगों को सहना पड़ा। बैंकों के इस घाटे की खानापूर्ति कहां से होगी? सिंपल सा जवाब है इस घाटे की खानापूर्ति सरकार करेगी और पेट्रोल और डीजल पर टैक्स लगाकर पैसा हमसे वसूलेगी।

इसके बाद भी आप पूछ सकते हैं कि यह बात तो समझ में आ रही है कि आम लोगों को नुकसान सहना पड़ रहा है लेकिन इस बात को कैसे समझा जाए कि कारोबारी को नुकसान नहीं सहना पड़ा? कारोबार तो उसी का डूबा है तो नुकसान तो उसने भी सहा होगा? यह बात ठीक है कि कारोबार डूबा है लेकिन क्या कारोबारी को नुकसान सहना पड़ा है?

बैंकों और कारोबारियों के बीच के गठजोड़ के बारे में वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अनिंदो चक्रवर्ती का न्यूज़क्लिक पर एक वीडियो है। जिस वीडियो में अनिंदो बताते हैं कि कारोबारियों, नेताओं और बैंकों के गठजोड़ की वजह से बहुत पहले से कारोबारियों को सरकारी बैंकों से लोन मिलता रहा है। ऐसी कई खबरें छपी है जिनसे यह पता चलता है कि अगर सरकारी बैंक कारोबारियों को लोन नहीं देते थे तो नेताओं का कॉल आता था और बैंकों को कर्ज देना पड़ता था। या बैंक के बड़े कर्मचारी कारोबारी और नेताओं के बीच आपसी लेन-देन होता था और बैंक से कारोबारियों को लोन मिल जाता था। इसके बाद इस लोन का पैसा जिस बिजनेस के लिए लिया जाता था उसमें नहीं लगता था बल्कि दूसरी जगहों पर लगता था।

जिसकी वसूली करने का हक बैंकों को कानूनन नहीं होता है। बैंकों का कर्ज फंसा रहता है। वसूली नहीं हो पाती है। अंतिम तौर पर सरकारी बैंकों पर यह आरोप लगता है कि वह घाटे में जा रहे हैं। और उन्हें बेचने की कवायद शुरू हो जाती है। सांठगांठ का तंत्र ऐसा है कि फिर से बैंकों को खरीदने वाले वह पूंजीपति ही होते हैं जिनकी वजह से बैंक बर्बाद होते हैं।

वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार अंशुमान तिवारी अपने ब्लॉग में लिखते हैं कि इस कानून के विफलता के पीछे दो कारण है। ज्यादातर बैंक वसूल ना होने वाले पैसे को पहले ही बट्टे खाते में डाल चुके होते हैं। इसलिए उनकी चिंता पैसा वसूलने कि नहीं बल्कि बट्टे खाते को बंद करने की होती है। क्योंकि उन्हें पता होता है कि पैसा तो आम जनता का डूबेगा और सरकार से मदद मिल जाएगी। उन पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला। इसलिए चिंता की कोई बात नहीं।

दूसरा - वसूली की प्रक्रिया में पर्दे के पीछे तरह तरह के खेल होते हैं। वसूली करने वाले अधिकारी वसूली करने की बजाय कारोबारियों के मुक्ति दिलाने के जुगाड़ में ज्यादा रहते हैं। ताकि इस प्रक्रिया में उनकी भी कमाई हो सके। इस तरह से बैंक और अधिकारी दोनों वैसी विशेषज्ञता और कोशिश नहीं करते जैसे कि इन मामलों में अपेक्षित होती है।

अब यहां सोचने वाली बात यह है कि हमारे आर्थिक तंत्र में मौजूद भ्रष्टाचार के चलते उन लोगों को ही फायदा मिल रहा है जो भ्रष्टाचार में सबसे अधिक लिप्त हैं और पहले से ही बहुत ज्यादा अमीर हैं। जिनकी आमदनी में कोरोना जैसी महामारी में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। उन लोगों का कारोबार भी डूब रहा है। बैंक बदहाल हो रहे हैं। आम लोग को उनका हक नहीं मिल रहा है। लेकिन अंतिम तौर पर वही लोग अमीर भी हो रहे हैं। यही हमारे भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है। जहां पन्ने पर सब कुछ खराब होने के बाद भी सबसे अधिक नुकसान गरीब लोग कह रहे हैं और सबसे अधिक फायदा अमीरों को मिल रहा है।

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