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कोरोना से लड़ने के लिए मोदी की रणनीति को दूसरे प्रधानमंत्रियों ने कभी नहीं अपनाया होता

बीजेपी के पिछले 7 सालों के बहुमत वाले शासन से हमें सीख मिलती है कि एक स्थिर सरकार भी नागरिकों की ज़िंदगी को अस्थिर कर सकती है।
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कोरोना महामारी ने कई स्थापित धारणाओं को तोड़ने का काम किया है। इन धारणाओं में कुछ इस तरह की बातें शामिल थीं- जो चुनावी अखाड़े में बेहतर होता है, निश्चित तौर पर उसके पास प्रशासन की भी बेहतर क्षमता होती है; एक ऐसा नेता, जो त्वरित फ़ैसले लेता है, वो फ़ैसले लेने में वक़्त लगाने वाले नेता से बेहतर होता है; एक स्पष्ट बहुमत वाली सरकार देश की ज़्यादा बेहतर ढंग से सेवा कर सकती है; केंद्रीय मंत्रिमंडल में बराबरी के दर्जे और आपसी प्रतिस्पर्धा में लगे नेता, ऐसे व्यवहार करते हैं, जैसे कई रसोइये मिलकर कुछ उबाल रहे हों, लेकिन उथल-पुथल में उसे पतीले से बाहर उछाल रहे हों। इन सारी धारणाओं को इस महामारी ने ख़ारिज किया है। 

1989 से अब तक ऐसी कोई भी सरकार नहीं रही, जिसके पास मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार की तरह का बहुमत रहा हो। शायद ही कोई ऐसा नेता रहा हो, जिसका चुनावी जीतने का रिकॉर्ड नरेंद्र मोदी की तरह शानदार रहा हो। कोई भी ऐसा प्रधानमंत्री नहीं रहा, जिसने मोदी के जितनी विकास योजनाओं को शुभारंभ किया हो।

फिर भी मोदी ने कोरोना वैक्सीन की नीति के साथ जैसा खिलवाड़ किया है, शायद ही कोई प्रधानमंत्री कभी ऐसा करता। इसे समझने के लिए आपको कल्पना करनी होगी कि मौजूदा कोरोना वायरस ने 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी या 2005 में मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री कार्यकाल में हमला किया होता। 

यह समझ से परे है कि तब वाजपेयी या सिंह ने 18 से 44 उम्र समूह के टीकाकरण के लिए राज्यों से खुद वैक्सीन खरीदने के लिए कह दिया होता। ना तो वाजपेयी और ना ही सिंह ने कभी इतनी कमियों वाली वैक्सीन नीति नहीं बनाई होती, क्योंकि वो कभी ऐसा करने ही नहीं देते। 

उस वक़्त एनडीए या यूपीए में वह राजनीतिक पार्टियां शामिल थी, जिनकी ज़मीन राज्यों में है। वहीं इनका राजनीतिक भाग्य तय होता है। एनडीए में तेलुगु देशम पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), बीजू जनता दल और डीएमके शामिल थीं। इनमें से किसी भी पार्टी ने अपने राज्य में राजनीतिक नुकसान के बदले, दूसरी जगह राजनीतिक फायदे को मान्यता नहीं दी होती। यह लोग वाजपेयी को राज्यों को कोरोना महामारी से संघर्ष में अकेला नहीं छोड़ने देते और वाजपेयी का मत बदलने की कोशिश करते। अगर ऐसा नहीं होता, तो गठबंधन के यह सहयोगी सरकार गिराने की धमकी देते, जिससे सरकार को राज्यों के लिए वैक्सीन खरीदना ही पड़ता। 

2005 में अगर कोरोना महामारी आई होती, तो मनमोहन सिंह कभी मोदी की तरह बिना योजना बनाए राष्ट्रीय लॉकडाउन नहीं लगा पाते। सिंह को अपने सहयोगियों को लॉकडाउन लगाने की जरूरत को समझाना पड़ता। यूपीए सरकार के मंत्रालयों में आरजेडी, झारखंड मुक्ति मोर्चा और लोक जनशक्ति पार्टी शामिल थीं। लेफ़्ट मोर्चा उन्हें बाहर से समर्थन दे रहा था। यह दल बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे तुलनात्मक तौर पर ज़्यादा गरीब़ राज्यों का प्रतिनिधित्व करते थे। इन राज्यों के नेताओं ने दूसरे राज्यों में काम करने वाले अपने नागरिकों पर अचानक लॉकडाउन लगने का प्रभाव बताया होता। इन पार्टियों ने प्रवासी मज़दूरों के लिए लॉकडाउन के पहले वक़्त निकाल लिया होता।

इतना तय है कि रेलवे मंत्री के तौर पर लालू प्रसाद यादव ने बिहारियों को भारत के बड़े शहरों से अपने घर वापस ले जाने के लिए पर्याप्त मात्रा में ट्रेनें चलाई होतीं। हमें तब रेलवे मंत्री पीयूष गोयल की तरह, राज्यों के साथ प्रवासी मज़दूरों को ले जाने के लिए रेलों की संख्या पर तकरार देखने को नहीं मिलती। ना ही हमें गोयल की राज्यों के साथ रेलवे खर्च साझा करने पर ऊलजलूल बातें सुनने को मिलतीं।

यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में 'एनडीए के गठबंधन वाली सरकार' में ऐसा देखने को मिलता। अभी गठबंधन सरकार जरूर है, पर बस दिखावे के लिए है। बीजेपी के बहुमत के चलते यह प्रधानमंत्री मोदी को गुप्त ढंग से, बिना सलाह के फ़ैसले लेने की स्वतंत्रता मिलती है। जो सरकारें अपने गठबंधन की पार्टियों पर निर्भर होतीं, जैसे मनमोहन सिंह या अटल बिहारी की सरकार, वे कभी नोटबंदी लागू नहीं करतीं। ना ही अपने साथियों को विश्वास में लिए बिना कृषि कानूनों को लागू करतीं। जबकि एनडीए का हिस्सा रहे अकाली दल ने मोदी सरकार पर खुद को विश्वास में ना लिए जाने का आरोप लगाया था।

सहयोगी पार्टियों को छोड़िए, खुद बीजेपी और कांग्रेस ने ही वाजपेयी और मनमोहन सिंह को अपने हिसाब से नोटबंदी, कोविड-19 और कृषि पर नीतियां बनाने पर घेर लिया होता। ऐसा इसलिए, क्योंकि दोनों ही पार्टियों में दूसरे दिग्गज नेता, प्रधानमंत्री को अलोकप्रिय और समाज व अर्थव्यवस्थआ को नुकसान पहुंचाने वाले मुद्दों पर चुनौती देने लगते। जैसे लालकृष्ण आडवाणी वाजपेयी को चुनौती दे सकते थे। दूसरी तरफ कांग्रेस में मनमोहन सिंह के सामने अर्जुन सिंह, प्रणब मुखर्जी या पी चिदंबरम जैसे दिग्गज नेता थे।

बहुमत की सरकार के प्रधानमंत्रियों को उनके ताकतवर साथी ज़मीन पर रखते हैं। जैसे जवाहरलाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में सरदार वल्लभभाई पटेल, बीआर अंबेडकर, राजेंद्र प्रसाद, मौलाना अबुल कलाम आजाद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे कई दिग्गज थे। इनमें से कुछ लोगों की मौत हो गई, तो कुछ ने इस्तीफा दे दिया और आगे बढ़ गए, इसके चलते कांग्रेस में नेहरू का एकतरफा प्रभुत्व हो गया। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कभी क्षेत्रीय क्षत्रपों की इच्छाओं का दमन नहीं किया।

इसके ठीक उलट, इंदिरा गांधी ने क्षेत्रीय प्रभुत्व वाले नेताओं को पार्टी से निकाल दिया। कांग्रेस अपनी जीत और ताकत के लिए इंदिरा गांधी पर निर्भर हो गई। इंदिरा गांधी की राजनीतिक और प्रशासनिक कार्यप्रणाली का ही परिणाम आपातकाल था। इसके बावजूद पार्टी के भीतर उन्हें जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे नेताओं का प्रतिरोध झेलना पड़ा। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। लेकिन उनके सामने वीपी सिंह की चुनौती आई, जिन्होंने आखिरकार उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। 

मोदी के सामने बीजेपी के भीतर कोई चुनौती नहीं है। क्योंकि कोई भी इतने बड़े कद का नेता नहीं है, जो मोदी की खामियों वाली नीतियों का फायदा उठाते हुए उन्हें चुनौती दे पाए। 75 साल से ऊपर के नेताओं को निकालने की नीति से आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और दूसरे दिग्गजों की चुनौती को ख़त्म कर दिया गया। मोदी हर राज्य के चुनाव में बहुत सक्रिय होते हैं, क्योंकि इससे उनकी ताकत बढ़ती है और उन्हें बेलगाम शासन चलाने की छूट मिलती है।

बीजेपी और एनडीए के भीतर से मोदी को मिलने वाली संभावित चुनौतियों को योजनागत् तरीके से ख़त्म कर दिया गया। उदाहरण के लिए मोदी की बीजेपी ने एलजेपी नेता चिराग पासवान का इस्तेमाल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी को बिहार में तीसरे नंबर पर पहुंचाने के लिए किया। इस तरह नीतीश कुमार का दर्जा निर्भरता वाला हो गया। मोदी अब वो नेता नहीं हैं, जो अपने समकक्षों में सबसे प्रथम हों। मोदी अपनी पार्टी और गठबंधन में एकमात्र सबसे बड़े नेता हैं। इसलिए सभी कार्यक्रमों में, चाहे वह शौचालयों का उद्घाटन हो या पुलों का भूमि पूजन, सभी का केंद्र मोदी होते हैं। बीजेपी के हर विज्ञापन में मोदी होना चाहिए।

इसके लिए जरूरी था कि ऐसा विमर्श तय किया जाए, जिसमें मोदी के अलावा कोई विकल्प ही ना दिखाई दे। बीजेपी ने राहुल गांधी को बदनाम करने में बहुत निवेश किया है, ताकि कांग्रेस वैकल्पिक गठबंधन के लिए मध्यस्थ का काम ना कर सके। चुनाव जीतने में गांधी की असफलता ने मोदी को मजबूत ही किया है। मोदी के बहुमत ने उन्हें मुख्यधारा की मीडिया पर एकाधिकार दिया है, ताकि उनकी खुद की छवि चमकाई जा सके। विपक्षी नेताओं पर नियमित ढंग से छापे मारे जाते हैं, ताकि उनका मनोबल तोड़ा जा सके और उन्हें भ्रष्टाचारी दिखाया जा सके। 

मोदी का कोई विकल्प नहीं होने वाला विमर्श सबसे ज़्यादा खुलकर जनवरी, 2019 में दिखाई दिया। तब विपक्षी पार्टियां एक महागठबंधन बनाने की कोशिश कर रही थीं। मोदी ने इस पर व्यंग्य करते हुए कहा कि जनता को तय करना चाहिए कि वे "मजबूत सरकार चाहती हैं या मजबूर सरकार"। मोदी ने दावा किया कि सिर्फ़ वही मजबूत सरकार दे सकते हैं, क्योंकि वे ही बीजेपी को भारी जीत दिला सकते हैं और गठबंधन के सहयोगियों पर निर्भर ना रहने वाली सरकार बना सकते हैं। ऐसी सरकार जिसे समझौता नहीं करना होगा। 

मजबूत सरकार के मोदी के नारे ने लोगों को पिछली गठबंधन सरकारों की समस्याओं की याद दिला दी। जिनमें बहुत आंतरिक झगड़ा और प्रतिस्पर्धा रहती थी। याद करिए कैसे जयललिता के के चलते वाजपेयी सरकार सिर्फ़ एक वोट से गिर गई थी। कैसे चंद्रशेखर ने वीपी सिंह की सरकार को गिरा दिया था। कैसे सीताराम केसरी ने एचडी देवगौड़ा को सिंहासन से उतारा था। कैसे 2009 से 2014 के बीच यूपीए की आंतरिक राजनीति के चलते मनमोहन सिंह की अवहेलना की गई थी।

इसके बावजूद गठबंधन सरकारों के दौरान 1989 से 2014 के बीच भारत की जीडीपी ज़्यादा बेहतर ढंग से बढ़ी। इसके ठीक उलट, मोदी के कार्यकाल में 2016 के बाद से विकास दर लगातार कम हो रही है। गठबंधन सरकार ने पिछड़ा वर्ग को नौकरियों और बाद में शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण दिया। गठबंधन सरकार ने ही परमाणु परीक्षण किया और इस खास समूह में भारत को शामिल करवाया। ग्रामीण रोज़गार और सूचना के अधिकार पर ऐतिहासिक कानून गठबंधन सरकार के कार्यकाल में लागू किए गए। 

मोदी जी की मजबूत सरकार ने नोटबंदी के अलावा हमें सिकुड़ती अर्थव्यवस्था और कोरोना महामारी में खराब रणनीति के चलते होने वाली लाखों मौतें दी हैं। उनकी ही वैक्सीन नीति का नतीज़ा है कि भारत को कई महीनों तक "हर्ड इम्यूनिटी" हासिल नहीं हो पाएगी। ऊपर से आज समाज में बहुत कड़वाहट घोली जा चुकी है। ऐसी राजनीति हो रही है जो विभाजन पर चलती है और अब हमारा संघीय ढांचा भी काफ़ी कमजोर हुआ है।

भारत के लोगों को कोरोना महामारी से कई सीखें हासिल हुई हैं। जैसे- चुनावी अखाड़े के दिग्गज का प्रशासन में कार्यकुशल होना जरूरी नहीं है; जो नेता फ़ैसला लेने में जरूरी वक़्त लेता है, वह हमारी सुरक्षा के लिए बेहतर होता है; एक स्थायी सरकार हमारी जिंदगियों को अस्थिर कर सकती है; एक सी साख वाले और प्रतिस्पर्धी हितों वाले कई नेताओं की मौजूदगी, सभी के लिए अच्छी नीति बनाने में मददगार होती है। याद रखिए पीछे चलने वाला कछुआ दौड़ में जीत गया था, क्योंकि खरगोश मानकर बैठा था कि वह आसानी से जीत जाएगा। बिल्कुल वैसे ही मोदी कोरोना के बारे में मान रहे थे।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Why No Other PM Would Have Picked Modi’s Covid-19 Strategy

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