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क्या भाजपा बंगाल की तरह उत्तर प्रदेश में भी लड़खड़ाएगी

आक्रोशित किसान और महामारी से निबटने के खराब प्रबंधन का मतलब तो यही है कि विपक्ष अगले कुछ महीने बाद उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव पर अपना क़ब्ज़ा जमा सकता है। 
भाजपा
छवि केवल प्रतीकात्मक उपयोग के लिए 

पिछले महीने हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को मिली प्रचंड जीत के बाद ऐसे कई लोग, जो चुनाव-प्रक्रिया शुरू होने के पहले या उस दौरान अपना पाला बदल लिया था, जिनके बारे में बताया जा रहा है कि वे अब अपनी घर वापसी के लिए बेताब हैं। अलग-अलग कद के नेताओं के बीच यह घर वापसी की होड़ सैलाब की शक्ल अख़्तियार करने लगी है।

11 जून को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल राय और उनके बेटे और पूर्व विधायक शुभ्रांग्शु औपचारिक रूप से तृणमूल काग्रेस में फिर से शामिल हो गए हैं। हम वफादारी को लेकर चल रहे मंथन पर ज्यादा बात इसलिए नहीं करेंगे क्योंकि बंगाल के बाहर कुछ अहम चीजों पर ध्यान दिये जाने के अलावा स्थिति कुछ दिनों में काफी अलग दिख सकती है।

पहली बात तो यह कि भाजपा की चुनावी अजेयता की अवधारणा को बुरी तरह चोट पहुंची है और मोदी ब्रांड की चमक थोड़ी फीकी पड़ी है। स्पष्ट है कि प्रत्येक राज्य में चुनावी और राजनीतिक गतिविधियां अलग-अलग होती हैं, फिर भी यह बात अपनी जेहन में रखना जरूरी है कि बंगाल में सारा कुछ झोंक देने के बावजूद भाजपा के चुनाव जीतने की वास्तविक आकांक्षा को तगड़ी शिकस्त मिली है। इसका सबक तो यही है कि तमाम बाधाओं के बावजूद ऐसा किया जा सकता है।

दूसरी बात कि कई पार्टियों के लोगों, जिनमें ज्यादातर टीएमसी के लोग थे, उन्होंने भाजपा के पार्टी दफ्तर के बाहर अपने-अपने शिविर इसलिए लगा लिये थे कि उन्हें इसकी जीत की उम्मीद थी, हालांकि यह रॉय के बारे में सच नहीं है, जो 2017 के आखिर में भाजपा में तब शामिल हुए थे, जब उन्हें कोई तत्काल लाभ नहीं मिलने जा रहा था। लेकिन, वे अब भाजपा छोड़कर इसलिए जा रहे हैं, क्योंकि पार्टी में उन्हें संकट का बोध हो गया है। इसका सबक, फिर से वही है कि भाजपा कोई अचूक मशीन नहीं है।

अब हम उत्तर प्रदेश की ओर रुख करें। जैसा कि हर एक व्यक्ति जानता है, देश की सबसे सघन आबादी वाला राज्य बेहद अहम है क्योंकि लोकसभा में 80 सीटों का योगदान करता है-जो महाराष्ट्र की तुलना में 67 फीसद अधिक है, जहां मात्र 48 सीटें हैं। लेकिन संख्या से अधिक उत्तर प्रदेश देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा भारतीय राजनीति के लिए एक मंच तैयार करता है, उसका एजेंडा तय करता है।

उत्तर प्रदेश में 2019 के लोक सभा चुनाव में, भाजपा को 80 में से 62 सीटें (जो 2014 के चुनाव की तुलना में 9 सीटें कम) मिली थीं जबकि इसके नेतृत्व वाले गठबंधन राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (राजग) के सहयोगी अपना दल को दो सीटें मिली थीं। 2017 के विधानसभा चुनाव में, कुल 403 सीटों में से भाजपा के सहयोगी दलों की 13 सीटें मिलाकर 312 सीटें मिली थीं। यह बहुत बड़ी विजय थी, भाजपा को अपने दम पर ही तीन चौथाई से ज्यादा सीटें मिली थीं। इन दोनों चुनावों में एक जैसी संख्या में जीत हासिल हुई थी।

2020 में, उत्तर प्रदेश में सात विधानसभा उप चुनाव हुए जिनमें भाजपा ने छह सीटें जीतीं, समाजवादी पार्टी ने एक सीट जीती। सत्ताधारी पार्टी ने अपनी सभी सीटें बरकरार रखीं। इस संदर्भ में, आप सोचेंगे कि फरवरी 2022 में होने वाले चुनावों को लेकर हिन्दुत्व खेमे में चिंता का कोई बड़ा कारण नहीं होगा। मौजूदा सदन का कार्यकाल 18 मार्च को पूरा हो रहा है।

लेकिन हिन्दुत्व खेमे में स्पष्ट रूप से एक बेचैनी-सी दिखाई दे रही है। पहला कारण यह है कि कोविड-19 महामारी से निपटने में केंद्रीय नेतृत्व की अक्षमता जिसे राज्य सरकार की अकुशलता ने और बढ़ा दिया। अस्पताल में बेड, ऑक्सीजन और जरुरी दवाओं के लिए उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने जिस प्रकार सख्ती से काम लिया, उससे समस्या और बढ़ी। यह कोई मतभेद का मामला नहीं था, जिसे वह दबाने का प्रयास कर रहे थे।

दूसरा, किसानों की हड़ताल अभी जारी ही है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार उन तीन कृषि कानूनों पर बातचीत करने से इंकार कर रही है, जिसकी वापसी देश भर के किसानों का एक बड़ा हिस्सा चाह रहा है। छह महीनों से अधिक समय से किसान, खासकर, हरियाणा, पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अपनी बात रखने के लिए बहादुरी से डटे हुए हैं। अभी तक सरकार के अपने रुख से मुकरने की संभावना दिखाई नहीं दे रही है। इसका अर्थ यह हुआ कि कृषक समाज, खासकर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट किसान भाजपा से काफी दूर होते जा रहे हैं। इसकी वजह से भाजपा खेमे में भी मनमुटाव के संकेत दिखाई पड़ने लगे हैं जिसका भाजपा नेता जोर-शोर से खंडन कर रहे हैं। लेकिन ये अफवाहें कि मोदी अपने भरोसे के व्यक्ति ए के शर्मा को उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडल में देखना चाहते हैं वह थमने का नाम नहीं ले रही हैं। शर्मा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं, जिन्हें मोदी ने महामारी की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र वाराणसी भेजा था। ऐसा स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि आदित्यनाथ उन्हें नहीं चाहते।

अगर भाजपा खेमे में कुछ मतभेद व्यक्तित्व संघर्ष से पैदा रहा है तो इसका काफी हिस्सा प्रशासनिक अक्षमता है और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यह जातिगत समीकरणों को लेकर भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्तित्व संघर्ष मुख्य रूप से आदित्यनाथ और मोदी के बीच है, न कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ जो अभी तक पृष्ठभूमि में ही रहे हैं और उनके मशविरा देने वाले अपने लोग हैं।

आदित्यनाथ किसी अन्य भाजपा नेता की तुलना में अधिक मोदी जैसे ही हैं। वह कर्कशतापूर्ण रूप से लोकप्रियतावादी हैं, उनकी शैली जनमत संग्रह वाली है और वे प्रशासन की तुलना में अपनी छवि की अधिक चिंता करते हैं, जिससे मोदी की ही तरह वह भी अनभिज्ञ हैं। लेकिन उनके बारे में एक खास बात यह है कि हिन्दुत्व की उनकी पिच अधिक तीखी और बेदाग है। ऐसी व्यापक धारणा है कि जो कुछ भी हो, आदित्यनाथ अपनी ही शर्तो पर मुख्यमंत्री पद के अगले उम्मीदवार होंगे ही। राज्य के कई दूसरे नेताओं की तरह उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।

जहां तक प्रशासन का सवाल है और अधिक विशिष्ट रूप से महामारी से निपटने का प्रश्न है तो ऐसा लगता है कि जानबूझकर उन्हें जिम्मेवार व्यक्ति ठहराने की कोशिशें की जा रही है। इससे बात नहीं बनेगी क्योंकि पहली बात तो यह कि जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है तो दूसरी लहर से पैदा भीषण आपदा के लिए अधिक जिम्मेदारी केंद्रीय नेतृत्व पर ही रही है, हालांकि आदित्यनाथ ने भी इसमें खासा योगदान दिया। दूसरी बात यह कि देश भर में भाजपा के ट्रैक रिकार्ड को देखते हुए, वह शायद ही प्रशासन और विकास जैसे मुद्दों पर चुनावी अभियान चलाएगी।

और अंत में, अब तक यह पूरी तरह मालूम हो चुका है कि आदित्यनाथ ने अपनी जाति-ठाकुरों का काफी अधिक पक्ष लिया है। शर्मा को उनके मंत्रिमंडल में शामिल करने का मोदी का प्रयास मुख्य रूप से यह है कि वह प्रधानमंत्री के आदमी हैं और उन्हें इसका भी लाभ है कि वह भूमिहार हैं।

जितिन प्रसाद का कांग्रेस से भाजपा में दलबदल को भी ब्राह्मणों को मंत्रिमंडल में शामिल करने की एक कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। अगर यह सच है तो ऐसा लगता है कि प्रसाद के वंशवादी होने के बावजूद, भाजपा उनकी उपस्थिति से होने वाले आंशिक लाभ को भुनाने की कोशिश कर रही है। और प्रसाद तथा ज्योतिरादित्य सिधिंया जैसे लोगों को पार्टी में शामिल करने के बाद भाजपा द्वारा गांधी परिवार को लेकर आलोचना करने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।

अब, बंगाल और उत्तर प्रदेश में एक कनेक्शन है। भाजपा बंगाल में चुनौती देने वाली पार्टी थी और चुनाव में उसने ऐसा जबर्दस्त माहौल पैदा किया कि वह चुनाव जीत सकती है। भाजपा इस भ्रम में जीतोड़ मेहनत करती रही कि वह जीत ही जाएगी, जब तक कि वह जमींदोज नहीं हो गई। ममता बनर्जी के नेतृत्व में, तृणमूल कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की क्योंकि उसने विश्वास नहीं खोया और किसी भी चीज को हल्के में नहीं लिया।

उत्तर प्रदेश में, भाजपा को अधिक जोखिम है क्योंकि वहां उसे विरोध की दोहरी लहर अर्थात केंद्र तथा राज्य दोनों के ही विरोध की लहर का सामना करना पड़ेगा। हालांकि भाजपा लोगों को बरगला कर वोट लेने में बहुत निपुण रही है लेकिन बड़े पैमाने पर हुई मौतों और श्मशान घाटों में जगह न होने के कारण तथा अस्पतालों में मौतों की संख्या कम दिखाने के दबाव में गंगा में लाशों को बहाने की मजबूरी के बाद ऐसा कर पाना बहुत आसान नहीं होगा।

अगर तृणमूल कांग्रेस की तरह, विपक्ष खुद में यकीन रखता है, जैसा कि पिछले महीने पंचायत चुनावों में भाजपा को पटखनी देने के बाद उसे खुद में विश्वास होना चाहिए तो वह भाजपा को जबरदस्त चुनौती दे सकता है। इसके लिए, न केवल समान विचारधारा की पार्टियों की एक व्यवहार्य गठबंधन बनाने की जरुरत है बल्कि उन्हें सामाजिक आंदोलनों के साथ समान प्रयोजन का निर्माण करने की आवश्यकता है, जो हिन्दुत्व के झंडाबरदारों के खिलाफ हो।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार तथा शोधकर्ता हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

Will BJP Repeat Bengal, Trip and Fall in Uttar Pradesh too?

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