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समझ नहीं पाता कि बुज़ुर्ग और महिलाओं को इस विरोध में क्यों रखा गया हैं: सीजेआई की इस टिप्पणी से फूटा ग़ुस्सा

किसानों के विरोध प्रदर्शन में महिलाओं की भागीदारी पर सुप्रीम कोर्ट में की गयी इस टिप्पणी ने लोगों के ग़ुस्से को भड़का दिया है,कई  लोगों ने सोशल मीडिया पर इस टिप्पणी की आलोचना की है।
mahila
7 जनवरी,2021 को ट्रैक्टर रैली के दौरान महिला किसान।

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली और दिल्ली की सीमाओं पर विरोध कर रहे किसानों के मुद्दे को उठाने वाली याचिकाओं के एक समूह पर सुनवाई कर रहा था,उसी दरम्यान महिला प्रदर्शनकारियों के सिलसिले में शीर्ष अदालत में सोमवार और मंगलवार को की गयी कुछ टिप्पणियों से लोगों में आक्रोश पैदा हो गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को अगले आदेश तक इन नये कृषि क़ानूनों को लागू करने पर रोक लगा दी थी और और दिल्ली की सीमाओं पर विरोध कर रहे किसान यूनियनों और केंद्र के बीच चल रहे गतिरोध को हल करने के लिए चार सदस्यीय समिति का गठन कर दिया था।

11 जनवरी को सुनवाई के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश,एसए बोबडे ने लाइवलाव के हवाले से कहा था: “हम यह नहीं समझ पा रहे कि बुज़ुर्ग और महिलाओं,दोनों को विरोध प्रदर्शनों में क्यों रखा गया है। बहरहाल, यह एक अलग मामला है।”

इसके बाद,मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने इन कृषि क़ानूनों को लागू करने पर रोक लगाते हुए अंतरिम आदेश पारित कर दिया था,लेकिन इससे पहले भारतीय किसान यूनियन (Bhanu) की ओर से पेश होने का दावा करने वाले वकील,एपी सिंह ने कहा था कि महिलायें,वरिष्ठ नागरिक और बच्चे विरोध प्रदर्शन में भाग नहीं लेंगे। इस क़दम के उठाये जाने की वजह बताते हुए उन्होंने कहा कि ठंड और कोविड-19 महामारी के बीच ये विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं।

सीजेआई ने एपी सिंह से कहा: "हम आपके बयान को दर्ज करेंगे कि बुज़ुर्ग, महिलायें और बच्चे चल रहे विरोध प्रदर्शन में भाग नहीं लेंगे।" सीजेआई,बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की बेंच ने आगे कहा, "हम इस रुख़ को लेकर (भविष्य में बुज़ुर्गों, महिलाओं और बच्चों के विरोध प्रदर्शनों में भाग नहीं लेने को लेकर) अपनी सराहना दर्ज करना चाहते हैं ।"

सीजेआई की 11 जनवरी की इस टिप्पणी पर प्रतिक्रिया देते हुए चल रहे किसानों के विरोध प्रदर्शन में भागीदारी कर रहे स्वराज इंडिया के नेता योगेंद्र यादव ने ट्विटर पर कहा कि भारत में "70% कृषि श्रम" महिलायें करती हैं। उन्होंने महिला प्रदर्शनकारियों के लिए सीजेआई की तरफ़ से इस्तेमाल किये गये शब्द,'रखे जाने' को भी रेखांकित किया,जो इस बात का एहसास दिलाता है कि महिलायें अपनी सहमति से वहां नहीं आयी हैं और उनके पास ख़ुद का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।

यादव ने यह भी कहा कि बीकेयू (Bhanu) के शीर्ष अदालत में महिलाओं और बुज़ुर्गों को किसानों के इस आंदोलन से बाहर रखने के फ़ैसले को लेकर अधिवक्ता एपी सिंह शायद 'झूठ' बोल रहे थे। “लगता है एपी सिंह सुप्रीम कोर्ट से झूठ बोल रहे हैं। मैंने इस बयान को पढ़ने के बाद बीकेयू (Bhanu) के अध्यक्ष,श्रीमान भानु से बात की। उन्होंने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि कल या आज उनसे श्रीमान् सिंह से बात ही नहीं हुई है और उनके संगठन की तरफ़ से महिलाओं और बुज़ुर्गों को वापस चले जाने का कहने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता है।” बीकेयू (Bhanu) और स्वराज्य इंडिया,दोनों ही उस अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के हिस्से हैं, जो इन विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व कर रहे किसान संगठनों की एक छतरी संस्था है।

ट्विटर पर सीजेआई की टिप्पणी और एपी सिंह द्वारा महिलाओं और बुज़ुर्गों को विरोध प्रदर्शन से दूर रखने पर जतायी गयी सम्मति के ख़िलाफ़ पैदा होने वाला असंतोष जमकर दिखा। लोगों ने मज़बूती के साथ इस बात को रखा कि दूसरे लोग इन समूहों की ओर से बोल रहे हैं,उनके अपने प्रतिनिधित्व को दरकिनार करते हुए उन्हें कमज़ोर तबके के तौर पर चित्रित किया जा रहा है।

ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेन एसोसिएशन (AIPWA) की सचिव,कविता कृष्णन ने भी शीर्ष अदालत में की गयी इस टिप्पणी की आलोचना की है।कृष्णन ने ट्वीट किया “सीजेआई महोदय,आपको शायद समझ में आता हो कि महिलाओं, बुज़ुर्गों का भी अपने प्रतिनिधित्व है और इन विरोध प्रदर्शनों में शामिल होना उनकी मर्ज़ी है ? वे किसी के द्वारा "रखे" नहीं गये हैं। वैसे भी हम सब देख रहे हैं कि आप क्या कर रहे हैं-विरोध प्रदर्शन को ख़त्म करने के लिए "स्टे" और मध्यस्थता समिति तो सरकार को इन क़ानूनों को बनाये रखने में महज़ मदद के लिए है।"  

आम आदमी पार्टी के एक सदस्य ने कोविड-19 महामारी के मद्देनजर राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान शहरों से प्रवासी श्रमिकों के पलायन का ज़िक्र करते हुए कहा,"सीजेआई को लॉकडाउन के दौरान घर पहुंचने के लिए सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करने वाले महिलाओं, बच्चों और बुज़ुर्गों से किसी तरह की कोई दिक़्क़त नहीं थी, लेकिन उन्हें नरेंद्र के कृषि क़ानूनों का महिलाओं,बच्चों और बुज़ुर्गों का यह विरोध ठीक नहीं लग रहा है।"

अदालत में जो कुछ हुआ,उसकी आलोचना भारतीय युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय अभियान प्रभारी,वाईबी श्रीवत्स ने भी की।यह निष्कर्ष निकालते हुए कि यह कार्यवाही "न्यायपालिका पर धब्बा" थी,उन्होंने पूछा, “महिलायें आगे इस विरोध में हिस्सा लेंगी या नहीं लेंगी,सुप्रीम कोर्ट के सामने यह कहने वाले एसपी सिंह और एमएल शर्मा (जाने-माने गलत स्त्री विरोधी) कौन होते हैं ? सीजेआई,बोबडे उनकी सराहना क्यों कर रहे हैं ? ”

एक महिला यूज़र ने इस क़दम को ‘स्पष्ट लिंगगत भेदभाव’ क़रार दिया,जो महिलाओं को ऐसे कमज़ोर तबके के रूप में देखता है,जिन्हें संरक्षित किये जाने की ज़रूरत है।

लेखक और वकील,अवंतिका मेहता ने कहा कि एपी सिंह का निवेदन और सीजेआई की सराहना,दोनों ही महिलाओं और बुज़ुर्गों के प्रतिनिधित्व को नकारे जाने की सराहना है। 

सीजेआई की इस टिप्पणी से नाराज़गी इसलिए बढ़ गयी है,क्योंकि यह टिप्पणी महिलाओं के उन क़ानूनों के विरोध में भाग लेने के फ़ैसले को महत्वहीन क़रार देती है,जिन्हें वे अपने जीवन और आजीविका पर नुकसानदेह असर डालने वाले क़ानून के तौर पर देखती हैं। यह जानना अहम है कि तक़रीबन 80% या 17 करोड़ महिलायें कृषि और इससे जुड़ी गतिविधियों में लगी हुई हैं, ऑक्सफ़ैम द्वारा जारी एक तथ्यपत्र (factsheet) में कहा गया है कि महिलायें हमारे भोजन का लगभग 60-80% और डेयरी उत्पादों का 90% उत्पादन करती हैं, लेकिन इनमें से सिर्फ़ 13% के पास संपत्ति के अधिकार हैं।

एनएसएसओ 2017-18 के मुताबिक़,भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में तक़रीबन 55% पुरुष श्रमिक और 73.2% महिला श्रमिक कृषि क्षेत्र में लगे हुए थे। इसलिए,कृषि सुधारों और नीतियों से खेती-बाड़ी किस तरह प्रभावित होती है, इससे महिलाओं के हित ज़्यादा जुड़े हुए हैं। 

हालांकि,भूमि अधिकारों से वंचित होने की वजह से बहुत बड़ी संख्या में महिलाओं की को किसानों के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है। चाहे सरकारी योजनायें या सर्वेक्षण हों, भारत में किसी किसान की परिभाषा ज़्यादातर भूमि स्वामित्व से ही जुड़ी हुई होती है। दरअस्ल,इससे बड़ी संख्या में वे महिलायें किसान होने की मान्यता से अलग-थलग कर दी जाती हैं, जिनके पास ज़मीन का मालिकाना हक़ नहीं है।

जनगणना इस स्वामित्व की परवाह किये बिना भूमि के किसी टुकड़े पर काम करने वाले किसी भी व्यक्ति को एक कृषक के तौर पर मान्यता देती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के मुताबिक़,किसी किसान को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसके पास कुछ भूमि हो और जो पिछले वर्ष तक उस भूमि के किसी भी टुकड़े पर कृषि गतिविधियों में लगा रहा हो। इसके अलावा,भूमि के स्वामित्व से वंचित महिला किसानों को किसानों के लिए पीएम-किसान जैसी उन केंद्रीय योजनाओं से भी बाहर रखा गया है,जो दो हेक्टेयर तक की भूमि वाले छोटे और सीमांत किसानों के लाभ के लिये बनायी गयी हैं।

 

 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

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