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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: क़ाफ़िला ये चल पड़ा है, अब न रुकने पाएगा...

पिछले महज़़ पचास सालों पर नज़र डालें तो जिन आंदोलनों में महिलाओं ने नेतृत्व किया वह बड़ी आवाज़ बन कर उभरे हैं। आइए देखते हैं चिपको आंदोलन से लेकर किसान आंदोलन तक का सफ़र
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस

तू बोलेगी, मुंह खोलेगी तब ही ये ज़माना बदलेगा... ये सच है कि महिलाओं ने बोलना शुरू किया तो ज़माना बदलने लगा। पितृसत्ता की ज़ंग खाई बीमार सोच की तबीयत में रवानी आने लगी। जिसे एक पीढ़ी नामुमकिन मानती रही उसे दूसरी पीढ़ी ने सिरे से खारिज कर दिया। ये सदी औरत की सदी है। जो देश में नई इबारत गढ़ रही है। औरतों के संघर्ष का इतिहास बहुत लम्बा है। उसे जो कुछ भी हासिल हुआ है वो महज उसके संघर्षों का ही परिणाम है। घर की चौखट के अन्दर से लेकर बाहर तक के उसके रास्ते बड़े कठिन रहे, इसके बावजूद महिलाओं ने अपना संघर्ष जारी रखा। 

पिछले महज़़ पचास सालों पर नज़र डालें तो जिन आंदोलनों में महिलाओं ने नेतृत्व किया वह बड़ी आवाज़ बन कर उभरे। तकरीबन 45 साल पहले 26 मार्च 1974 को उत्तराखंड के चमोली में एक ऐसे आंदोलन की बुनियाद पड़ी थी जिसने राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान दर्ज की, इस आंदोलन का नाम था चिपको आंदोलन और इसकी रूहेरवां थी उत्तराखंड की एक जुनूनी महिला गौरा देवी। पर्यावरण की रक्षा और जंगलों की अवैध कटाई के खिलाफ़ गौरा देवी और उनके साथियों ने पेड़ों से चिपक कर उन्हें कटने से बचाया था। इस आंदोलन का असर ये हुआ कि केन्द्र की राजनीति में पर्यावरण एक मुद्दा बना और केन्द्र सरकार को वन संरक्षण अधिनियम बनाना पड़ा।

1988 तक पहुंचते-पहुंचते महिलाएं और परिपक्व हो जाती हैं और मेधा पाटकर के नेतृत्व में नर्मदा बचाओ आंदोलन का जन्म होता है। नर्मदा व उसकी सहायक 41 नदियों पर दो विशाल बांधों से 2.27 करोड हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल, बिजली निर्माण, पीने के लिए पानी देना तथा बाढ़ रोकना मकसद था लेकिन इन परियोजनाओ से 248 गांव के ढाई लाख लोगों का विस्थापन हो रहा था उनके पुनर्वास का सवाल मेधा पाटकर ने उठा दिया। जेलें भरी गई, पुलिस ने लाठियां बरसाई पर ये महिलाएं टस से मस न हुई। मेधा के साथ संघर्षरत अरूंधती राय, अरून्धति धुरू ने कितनी लाठियां खाई, जंगलों में वक्त गुज़ारा लेकिन संघर्ष से पीछे नहीं हटी। इसी तरह शराब बंदी आंदोलन के लिए आन्ध्रप्रदेश के गोदावरी जिले की 55 साल की वरा लक्ष्मी का नाम हमेशा लिया जाएगा। गांव-गांव में लगी शराब की भट्ठियां नौजवानों को बर्बाद कर रहीं थी। 40 महिलाएं 16 दिनों तक अनशन पर बैठीं, अन्त में उन्होंने घोषणा कर दी कि अगर भट्ठियां नहीं हटीं तो वे तालाब में कूद जाएंगी। वरालक्ष्मी सहित कई महिलाएं तालाब में कूद गईं। तत्कालीन मुख्यमन्त्री एनटी रामाराव ने प्रदेश में शराब बंदी लागू की। इस आंदोलन का असर कई प्रदेशों में हुआ और महिलाओं ने शराब बंदी आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

वक़्त बदलता गया औरतें ताकतवर होती गईं, 1996 में राजस्थान की सामाजिक कार्यकर्ता भंवरी देवी ने गांव में एक 9 साल की बच्ची के विवाह को रोकने का काम किया। गांव के ऊॅंची जाति के दबंगों को ये रास न आया और उन्होंने भंवरी के पति मोहन लाल प्रजापति की डंडों से पिटाई की और उन्हीं के सामने भंवरी का बलात्कार किया। भंवरी ने उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया, लड़ाई आंदोलन में बदल गई। आंदोलन थमा नहीं, आखिर 1997 में सुप्रीम कोर्ट को कामकाजी महिलाओं पर होने वाली हिंसा के ख़िलाफ़ एक गाइडलाइन बनाई और 2013 में कार्य स्थल पर यौन हिंसा के खिलाफ एक कानून बना। यौन हिंसा को इस कानून में विस्तार से परिभाषित भी किया गया।

आयरन लेड़ी कही जाने वाली मणिपुर की इरोम शर्मिला चानू ने एक ऐसे आंदोलन की बुनियाद डाली जिसने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया। उन्होंने सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून 1958 को हटाए जाने की मांग की और 2 नवंबर 2000 को भूख हडताल पर बैठ गईं। उन्हें नाक में नली लगाकर ही भोजन दिया जाता था। यह सिलसिला 16 साल तक चला। दुनिया में सबसे लम्बी भूख हड़ताल व सबसे ज्यादा बार जेल जाने का रिकार्ड भी उनके नाम दर्ज हुआ। सैनिकों द्वारा बलात्कार किए जाने के खिलाफ ही उत्तर पूर्व की बहादुर औरतों ने नग्न होकर प्रदर्शन किया, बैनर पर लिखा “आओ और हमारा बलात्कार करो”, इस आंदोलन ने दुनिया को झकझोर कर रख दिया। बलात्कार के सवाल पर निर्भया आंदोलन भी मील का पत्थर बना। ऐसी हैं भारत की महिलाएं। 

हिम्मते औरतां तो मददे खुदा.... वक्त के साथ कहावतें भी बदलने लगी, औरत मुखर हुई अपनी इबारत खुद लिखने का फैसला किया। वक्त बदला बेडियां कमजोर पड़ने लगीं। 1986 के शाहबानों संघर्ष के बाद मुस्लिम महिलाओं में अन्दरखाने चिंगारी सुलगती रही। तीन-तलाक़ के ख़िलाफ़ उनके मन में गुस्सा धीरे-धीरे आकार लेने लगा, वह लामबंद होती गईं। शायरा बानो अपना केस लेकर 2014 में ऊपरी अदालत चली गईं, मामला तूल पकड़ता गया, देश के हर कोने से मुसलमान औरतें आंदोलित हो उठीं। आख़िर वो दिन भी आ गया जब सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक़ को असंवैधानिक घोषित कर दिया, और संसद ने तीन तलाक़ पर क़ानून पारित कर दिया। महिलाओं का ख़तना और हलाला के ख़िलाफ़ भी महिलाएं अदालत पहुंच चुकी हैं। 

अमेरिका से उठा मी-टू आंदोलन भारत में बड़ा आंदोलन बन कर उभरा, और कई सफेद पोशों की कलई खोलने में कामयाब रहा। प्रिया रमानी की हिम्मतवर आवाज़ को एमजे अकबर को खारिज करना कठिन हो गया, उन्हें सत्ता से बाहर होना पड़ा।

हरियाणा की एक छोटी सी बच्ची ने “हैप्पी टू ब्लीड” आंदोलन चलाया। माहवारी के सवाल को शर्म और धर्म के पर्दे से बाहर निकाल कर स्वास्थ्य के सवाल से जोड़ा, हाजी अली और शबरी माला में औरतों को अछूत बताना धर्मगुरूओं को भारी पड़ गया। पैडमैन फिल्म इसी आंदोलन के प्रभाव का हिस्सा बनी, आंदोलनकारी महिलाओं ने सस्ते सेनेटरी पैड की मांग उठाते हुए सरकार के सामने सवाल कर दिया कि वह “लहू का लगान” नहीं अदा करेंगी। मजबूर होकर सरकार को सस्ते पैड सरकारी दुकानों पर उपलब्ध कराने पड़े।

ऐसिड अटैक पीडित लक्ष्मी ने हार नही मानी, उनकी आवाज़ एक नया रंग लेती गई, और छपाक फ़िल्म ने तो बस कमाल कर दिया।    

पिछले साल नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ भारी संख्या में भारत की महिलाएं लामबंद हो गई। दिल्ली के शाहीन बाग से उठी ये चिंगारी देश के कोने-कोने में फैल गई। महिलाएं नेतृत्व की भूमिका में उभरी, शाहीन बाग़ वाली दादी कहलाने वाली बिल्कीस दुनिया की 100 प्रभावशाली महिलाओं में शुमार की गई। उनका कहना था मां और मुल्क न बदले जा सकते हैं न छोड़े। इतिहास रचती ये महिलाएं भयंकर सरदी में भी मोर्चे पर दिन-रात डटी रही। मुल्क में एक नई इबारत लिख दी, इतनी बड़ी तादाद में पहले कभी ऐसा आंदोलन नही देखा गया।'

किसान आंदोलन में महिला किसानों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। नौजवान महिलाओं ने भी किसानों के सवालों को दरकिनार करने वालों को सबक़ सिखाया। दिशा रवी, नवदीप कौर, कविता कुरूंगटी,  गीता भाटी को सियासतदानों ने परेशान करने में कोई कसर न छोड़ी, गीता भाटी के पैर की चप्पल तक छीन ली पुलिस ने ताकि वह तेज न चल सकें। खेती में 70 प्रतिशत श्रम महिलाओं का है, खेती उनकी लाइफ-लाइन है, आंदोलन को 100 दिन पूरे हो चुके है, हज़ारों की संख्या में महिलाएं किसान आंदोलन में आंदोलनरत हैं, जिन्हें सरकार भाड़े के लोग बता रही है वो महिलाएं सरकार को चुनौती देने में पीछे नहीं है।

यह तो नहीं मालूम कि आगे क्या होगा, कुछ न होगा तो भी हमारे भीतर का कायर तो टूटेगा ही, पांव के नीचे मज़बूत ज़मीन तो होगी ही, पितृसत्ता की जकड़ तो ढीली होगी ही, घरों के भीतर और बाहर सही मायने में लोकतंत्र स्थापित करने की लड़ाई मजबूत होगी ही, औरत का जर्रे-जर्रे में दख़ल बढ़ेगा ही, ये क़ाफ़िला जो चल पड़ा है इसे रोक पाना अब मुमकिन नहीं लगता। ये आंदोलन भी महिलाओं के अन्य आन्दोलनों की तरह दूर तक असर छोड़ जाएगा, ऐसी आहट मिलने लगी है।

(लेखिका रिसर्च स्कॉलर व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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