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'यह एक बड़ी जीत है। भारत अब एक बहुसंख्यक लोकतंत्र है’

विपक्ष को चुनावों के बीच की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करना होगा। उसे बड़े पैमाने पर जन लामबंदी पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जिस पर उसने अब तक पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है।
'यह एक बड़ी जीत है। भारत अब एक बहुसंख्यक लोकतंत्र है’

इस दुखद और हतोत्साहित कर देने वाले दिन पर कोई क्या कह सकता है। लेकिन मैं कम से कम उसी को रेखांकित कर सकती हूँ जिसे दूसरों ने पहले ही कह दिया है। जो बहुत स्पष्ट है, वह यह है कि यह हिंदू एकीकरण का मत है।

दूसरी बात यह है कि भाजपा की विभाजन और ध्यान हटाने की रणनीति ने बख़ूबी काम किया है। बहुत ही सफ़लतापूर्वक। आख़िर वे हिंदू वोट बैंक को एक अर्थ में इकट्ठा करने, संरक्षित करने और अलग करने में कामयाब रहे हैं।

ऐसा लगता है कि भाजपा के वोट शेयर में वृद्धि होगी। पिछले पाँच वर्षों में हमने यह कहकर ख़ुद को केवल सांत्वना दी है कि उसने केवल 31 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं। आज अन्ततः अगर उनका वोट 40 प्रतिशत तक पहुँच जाता है तो यह काफ़ी महत्वपूर्ण वृद्धि होगी। यह हिंदू वोट बैंक के एकीकरण का एक संकेत है।

हमें भाजपा की दो या तीन क्षेत्रों में बढ़ोतरी पर भी ध्यान देना चाहिए। जिसमें बंगाल और काफ़ी हद तक तेलंगाना भी है, और बिहार और यूपी में भी भाजपा ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है। ये हिन्दू-मुस्लिम विभाजन के स्थल हैं।

तेलंगाना में भाजपा के अच्छा प्रदर्शन करने से, जहाँ मुसलमानों की बहुलता है, एक महत्वपूर्ण बदलाव है। हिंदू-मुस्लिम विभाजन की रणनीति काम कर रही है।
हालांकि यह ध्रुवीकरण की राजनीति महत्वपूर्ण है, आज़माई और परखी हुई है, और इसने स्पष्ट रूप से अच्छी तरह से काम किया है, यह चुनाव इससे भी कहीं अधिक कहता है।

यह मज़बूत व्यक्ति की राजनीति के बारे में है – यह नरेंद्र मोदी जैसे मज़बूत आदमी बनाम बिखरी हुई पार्टी के रूप में है। यहाँ तक कि कांग्रेस 44 सीटों के साथ भी एक टुकड़ा थी, जो तृणमूल कांग्रेस से कुछ ही अधिक थी। दलगत राजनीति के संदर्भ में, 2014 के बाद की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का पूरा ढांचा, 2019 के चुनाव को राष्ट्रपति प्रणाली और विशाल राजनीतिक केंद्रीकरण को देखते हुए बहुत अलग था, और चुनाव स्पष्ट रूप से इस तरह के मज़बूत व्यक्ति, मज़बूत राजनीति का समर्थन करने के लिए डिज़ाइन किया गया था।

दुनिया भर में, न केवल दक्षिणपंथ की तरफ़ झुकाव है, बल्कि दक्षिणपंथी लोकप्रियता की तरफ़ भी है जिसे मज़बूत व्यक्तियों के नेत्रत्व के नाम पर सन्निहित किया गया है। इस मामले में तुर्की, फ़िलीपींस, ब्राज़ील और दक्षिण अमेरिका और अन्य को देखा जा सकता है कि वे किस दिशा में जा रहे हैं - यह दुनिया भर में एक प्रवृत्ति के रूप में पनप रही है, हमने लोकतंत्र से उम्मीद की थी कि वो सत्तावादी प्रवृत्ति या निरंकुशता की जाँच करेगा, लेकिन वास्तव में यह इनके रास्ते में भी नहीं आ पाया।

यह हमारी व्यवस्था का विशेष सच है, हमारी चुनाव प्रणाली का सच, जो एक हद तक इस प्रवृत्ति में योगदान देता है।

भारत में आपके पास एक बेहद शक्तिशाली पार्टी है, जो दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है, जिसने 80-90 अन्य पार्टियों के मुक़ाबले जीत दर्ज की है। उदाहरण के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका में ऐसा नहीं है, जहाँ आपके पास एक स्पष्ट, अलग विकल्प है, जो एक अर्थ में वैचारिक है, या कम से कम अलग है। यहाँ भारत में हम यह नहीं कह सकते कि इस मज़बूत आदमी के ख़िलाफ़ कोई विकल्प है। हम दुनिया भर के इस रुझान को रोक नहीं पाए हैं।

इसका एक परिणाम ज़ाहिर है कि मानसून जल्दी आ गया है। यह एक ऐसा मानसून है जो केवल एक दिन में ही पूरे देश में छा गया है। 2014 में यह उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत में केंद्रित था, लेकिन अब यह पूर्व और साथ ही दक्षिण में भी छा गया है।

इसलिए, मेरा मानना है कि 2019 का चुनाव 2014 की तुलना में और भी अधिक महत्वपूर्ण है। जैसा कि सभी ने कहा और किया भी, कि अधिकांश लोग मोदी को पहला मौक़ा दे रहे थे। अधिकांश लोग 2002 की सामूहिक हिंसा से आँख मूंदने के लिए तैयार थे, जो कि गुजरात तक ही सीमित था और देश के कई हिस्सों में लोगों को वास्तव में परेशान नहीं करता था।

लेकिन 2019 में भाजपा और आरएसएस और मोदी का फिर से चुनाव करने के लिए, वह भी उनके बहुत ही ख़राब आर्थिक रिकॉर्ड के बावजूद, सामाजिक असहमति के बावजूद, कम तीव्रता वाले सांप्रदायिक और जातिगत संघर्षों को बरक़रार रखने के बावजूद – कुल मिलाकर इन कारणों के बावजूद 2019 में फिर से चुनाव जीतना कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।

मैं अक्सर कहती हूँ कि मुझे भारतीय मतदाता पर बहुत विश्वास है, मैं भारतीय मतदाता को सलाम करती हूँ - लेकिन वास्तव में यह आश्चर्य की बात है कि क्या इस विश्वास को जायज़ ठहराया जा सकता है क्योंकि वोट शेयर में वृद्धि है और कई राज्यों में भाजपा जीत रही है।

अतीत में हमने बहुसंख्यकतावाद के ख़तरों के बारे में बात की थी। अब, यह कुछ ऐसा है जो स्पष्ट रूप से मौजूद है, यह आ गया है, और इस चुनाव के आधार पर, भारत के लोकतंत्र को स्पष्ट रूप से एक बहुसंख्यक लोकतंत्र के रूप में वर्णित किया जा सकता है।

यह सही है, जबकि यह स्पष्ट है कि हिंदू-मुस्लिम मुद्दे हैं, लेकिन इसके अलावा भी बहुत कुछ है। भारत दक्षिणपंथ की ओर मुड़ा है, और बहुत मज़बूती से मुड़ गया है।

मोदी पंथ सिर्फ़ "यहाँ" नहीं है - यह पिछले पाँच वर्षों या उससे अधिक समय में तैयार किया गया है। मोदी मशीन के द्वारा, आरएसएस के द्वारा, तकनीक के द्वारा, और स्पष्ट रूप से मीडिया के द्वारा, जिसने मोदी पंथ के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान दिया है। मोदी के निर्माण के पीछे हमें मीडिया और आरएसएस की भूमिका के बारे में सोचना चाहिए।

अब हम विपक्ष के बारे में विचार छोड़ देते हैं। जबकि हमें विपक्ष की आलोचना करनी चाहिए, क्योंकि हम एक मज़बूत विपक्ष चाहते हैं और आशा करते हैं कि अगले कुछ वर्षों में एक बदलाव होगा, हमें एक ही समय में यह नहीं समझना चाहिए कि मोदी और भाजपा के पक्ष में बहुत अधिक अंतर था। जब आपके पास भारत सरकार जैसी शक्तिशाली सरकार हो, और मोदी जैसा नेता हो, जो पिछली सरकारों के बजाय इसका इस्तेमाल अलग-अलग तरह से करता है - आपातकाल के अपवाद को छोड़ दें तो – कि राज्य की मशीनरी का उपयोग बहुत महत्वपूर्ण है।

जब हम भाजपा के पास इतने पैसे होने की बात करते हैं, तो हाल के चुनावों में धन की भूमिका, और इस चुनाव में चुनावी बांड की भूमिका असाधारण है। और विपक्ष ने कुछ नहीं किया। क्या आप किसी अन्य देश की कल्पना कर सकते हैं, जहाँ सत्ता में रहने वाली पार्टी ग़ैर-पारदर्शी चुनावी बांड का इस्तेमाल करती है, और इस साधन के माध्यम से 95 प्रतिशत धन एकत्र करती है, और बिना जवाबदेही के इसको उड़ा ले जाती है? यह विश्वास करना मुश्किल है।

फिर बेशक, हमारे संस्थान हैं। संवैधानिक स्वायत्तता इस हद तक पहले कभी ख़त्म नहीं हुई थी। हम में से कई, यहाँ तक कि भाजपा और मोदी के आलोचक भी कहते हैं, "ओह, यह पहले भी हो चुका है।" हम भाजपा को इस तरीक़े से जो वैधता देते हैं - वह यह है कि आप जो कर रहे हैं उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है, और यह सब पहले हो चुका है - हमें यह विचार करना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में एक बहुत ही अलग, हम इस तरह की धुर दक्षिणपंथी सरकार के वैधीकरण में एक तरह से योगदान करते हैं।

चुनाव आयोग की भूमिका के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना बेहतर है। इससे पहले कभी भी चुनाव आयोग ने इस तरह से कार्य नहीं किया है। मैं उस बिंदु पर कुछ कहना पसंद नहीं करती हूँ।

हमें अंतिम परिणामों के लिए इंतज़ार करना होगा, विशेष रूप से यूपी में, लेकिन गठबंधन और इसके बारे में बहुत सारी बातें हुई हैं - और मुझे कहना होगा, अगर यह सच है कि भाजपा ने वोटों और सीटों का इतना बड़ा हिस्सा जीता है वह भी 50 प्रतिशत वोट के साथ, यूपी में गठबंधन या कोई गठबंधन नहीं है, यह सूखा का सूखा ही कहलाएगा।

कोई कह सकता है कि अगर अखिल भारतीय गठजोड़ होता, तो एक निश्चित गति, विपक्ष के लिए एक निश्चित सामंजस्य होता, और भाजपा की मज़बूत राजनीति कुछ हद तक विफ़ल हो सकती थी।

लेकिन यह एक भूस्खलन जैसी जीत है। यह सामान्य चुनाव नहीं है। संख्या के हिसाब से देखें तो, यूपी या कुछ अन्य राज्यों में गठबंधन से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है।

एक और बिंदु यह है कि ताली बजाने में दो हाथ लगते हैं। यदि मुख्य विपक्षी दल के पास 44 सीटें हैं, और उसके बाद 42 सीटें हैं, तो आप उनसे गठबंधन बनाने के लिए अलग से हटकर काम करने की उम्मीद क्यों करेंगे? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के बीच एक बुनियादी टकराव है - उनमें से ज़्यादातर कांग्रेस से टूटे हुए दल हैं, उनमें से कई के नाम भी कांग्रेस के नाम पर हैं! क्या हम उनसे एक समझ बनाने के लिए एक साथ आने की उम्मीद कर सकते हैं? हम इस धारणा के तहत थे कि पार्टियाँ अपने वास्तविक मतभेदों को अलग कर देंगी, लेकिन वे ऐसा क्योंकर करेंगे?

मैं कांग्रेस की छात्र हूँ, और इसमें मेरी शैक्षणिक रुचि है। इस चुनाव में, स्पष्ट रूप से उन्होंने रणनीतिक ग़लतियाँ की हैं, और यह तर्क दिया जा सकता है कि गठबंधन बनाने में असफ़ल रहना उनमें से एक था। लेकिन नेतृत्व का सवाल भी है जिसका कांग्रेस को सामना करना होगा: फिर चाहे वह इसे अपने परिवार या वंशवादी नेतृत्व के साथ जारी रखे।

एक और ग़लती राफ़ेल पर ध्यान केंद्रित करना था। चौकीदार चोर है के साथ हर भाषण को समाप्त करना काम नहीं कर रहा था, और स्पष्ट रूप से इससे कोई अच्छा परिणाम नहीं मिला है।

लेकिन कांग्रेस की सबसे बड़ी असफ़लता यह है कि उसका कोई संगठन नहीं है। न्याय (एनवाईएवाई) को लें - यदि आपके पास ज़मीन पर कोई संगठन नहीं है, तो न्याय (एनवाईएवाई) को जनता में कौन ले जाएगा? जहाँ तक इसके अपने संगठन का सवाल है, कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए दस साल में संगठन पर कुछ काम नहीं किया ना उसमें जोश भरा, और पिछले पाँच वर्षों में भी इसमें कोई जोश दिखाई नही दिया है।

अब आगे का पड़ाव क्या है? एक बात स्पष्ट है – उसके अलावा जो हम जो सुनने जा रहे हैं, उसके विपरीत, भाजपा एक आरामदायक बहुमत के साथ विकास पर ध्यान केंद्रित करेगी, कि 100 दिन की योजना नौकरशाहों के साथ तैयार की गई है - हमें यह सोचकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए कि आरएसएस और भाजपा में बदलाव आ गया है। यह सोचने का हर कारण मौजूद है कि उन्हें और अधिक, या इससे भी बदतर करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।

केंद्र-राज्य संबंध भी बदलेंगे, और संघीय संरचना को नए सिरे से दबाव में लाया जाएगा।

संस्थानों का पतन जारी रहेगा। विश्वविद्यालय प्रणाली को हमलों का सामना करना पड़ेगा, और इसलिए नागरिक समाज संगठनों, ग़ैर-सरकारी संगठनों, कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों को भी इन हमलों का सामना करना पड़ेगा।

लेकिन यह परिवर्तन अपरिवर्तनीय नहीं है। दक्षिणपंथी पार्टियाँ चुनाव के माध्यम से सत्ता में आती हैं, लेकिन उन्हें सत्ता से बाहर भी कर दिया जाता है।
इसे ध्यान में रखते हुए, मुझे लगता है कि विपक्ष को चुनावों के बीच की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करना होगा। उन्हें बड़े पैमाने पर जन लामबंदी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो उन्होंने अब तक पर्याप्त रूप से नहीं किया है। लड़ाई को आगे बढ़ाना होगा, जैसा कि होना चाहिए, और हमने पिछले पाँच वर्षों में जितना किया, उससे कहीं अधिक करना होगा।

ज़ोया हसन एक राजनीतिक वैज्ञानिक और टिप्पणीकार हैं। वे प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में एलेक्शन वाच में हिस्सा ले रही थीं जिसे "द सिटिज़न" द्वारा आयोजित किया गया था।

Courtesy: The Citizen

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