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'टू किल ए टाइगर': ऑस्कर अवॉर्ड न मिलने से एक पिता के संघर्ष की कहानी कम नहीं आंकी जा सकती 

ये डॉक्यूमेंट्री समाज के ओढ़े उस लिबास के धागों को उधेड़ देती है जिसके नीचे ढकी वो घिनौनी सोच नज़र आती है जो लड़की के साथ हुए जघन्य से जघन्य अपराध में भी उसकी ग़लती तलाश लेती है।
Tiger

'टू किल ए टाइगर' (To Kill a Tiger) निशा पाहुजा द्वारा निर्देशित एक डॉक्यूमेंट्री है जिसे इस साल (2024) के ऑस्कर में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री फीचर फ़िल्म कैटेगरी में नॉमिनेट किया गया था। 

'टू किल ए टाइगर' नाम सुनते ही पहला ख़्याल आता है कि फ़िल्म वाइल्ड लाइफ के बारे में हो सकती है। लेकिन फ़िल्म एक ऐसे मुद्दे पर है जो रोंगटे खड़े कर देती है, ये फ़िल्म डराती है, और देखते हुए कई बार रुलाती है। 

फ़िल्म के शुरुआती सीन में एक पिता दुलार से पाली अपनी बड़ी बेटी के बारे में बता रहा है और स्क्रीन पर वही बेटी एक कमरे में अपने बालों को संवारती दिखती है, वह बालों में चटख रंग के रिबन को कुछ यूं गूंथ रही थी जैसे वो एक बड़ा फूल हो, यह फूल बिल्कुल पलाश का सा लगता है, वैसा ही बड़ा और अपने मनमोहक रंग में गुम कर देने वाला पलाश जो झारखंड का राज्य पुष्प है।

लाड-प्यार से पाल रहे अपनी फूल सी बेटी के बारे में पिता कहते हैं ''जितना प्यार उसको दिए हैं ना उतना प्यार किसी को दे नहीं पाए हमको लगता है इतना प्यार उसको मिला है कि बाकी के लिए बचा ही नहीं''

फ़िल्म ऑस्कर जीतने में नाकाम रही

ऑस्कर से पहले फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज कर दी गई, दुनियाभर में कई बड़े सम्मान और नामी प्लेटफॉर्म पर चर्चा के बाद ये फ़िल्म ऑस्कर में पहुंची हालांकि फ़िल्म ये अवॉर्ड जीतने में नाकाम रही, लेकिन इस फ़िल्म का बनना ही अपने आप में एक बड़ी बात है।  इस कैटेगरी में रूस-यूक्रेन के युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी डॉक्यूमेंट्री फीचर फ़िल्म '20 Days in Mariupol' ने अवार्ड जीता । 

ये कहानी जितनी उस बच्ची की है उससे कहीं ज्यादा उसके पिता की है

'टू किल ए टाइगर' नाम की डॉक्यूमेंट्री झारखंड की एक 13 साल की बच्ची के गैंगरेप और उसके बाद इंसाफ की लड़ाई पर आधारित है। ये कहानी जितनी उस बच्ची की है उससे कहीं ज्यादा उसके पिता की है। ये डॉक्यूमेंट्री समाज के ओढ़े उस लिबास के धागों को उधेड़ देती है जिसके नीचे ढकी वो घिनौनी सोच नज़र आती है जो लड़की के साथ हुए जघन्य से जघन्य अपराध में भी उसकी ग़लती तलाश लेती है। दरअसल ये कमाल का हुनर है जो मासूम बच्चियों को भी नहीं बख़्शता। 

पीड़ित परिवार पर समझौते का दबाव क्यों बनाया जाता है? 

फ़िल्म में दिखाया गया कि किस तरह से गैंगरेप के बाद गांव ने पीड़ित परिवार के सामने तीन आरोपियों (जिन्हें बाद में सज़ा हुई) में से एक के साथ पीड़ित लड़की की शादी करवाने का प्रस्ताव रख कर समझौता करवाने की सलाह दी। वो लड़की जो उस वक़्त 13 साल की थी, वो लड़की जिसके साथ अन्याय हुआ था, उसे ताउम्र के लिए एक ऐसे हैवान के साथ रिश्ते में बांधने की सलाह दी जा रही थी जो उसका गुनहगार था। 

फ़िल्म में दिखाया गया कि जब पीड़ित परिवार समझौते के लिए तैयार नहीं हुआ तो उन्हें जान से मारने की धमकी मिली, परिवार के मुखिया के सामने एक ऐसा वक़्त भी आया जब वो हिम्मत हारता दिखा लेकिन जब पिता ने अपनी बेटी का हौसला देखा तो उसे दोबारा इंसाफ की लड़ाई लड़ने की हिम्मत मिली। 

पीड़ित पिता शायद खुशकिस्मत था कि उन्हें ऐसी बहादुर बेटी मिली जिसने पीछे ना हटने की ठान ली थी लेकिन ऐसा हर केस में नहीं होता। 

''गैंगरेप के बाद आत्महत्या करने वाली बेटियों के पिता ने भी दी जान''

हाल ही में उत्तर प्रदेश के कानपुर में दो नाबालिग बेटियों ने गैंगरेप के बाद आत्महत्या कर ली। ख़बरों के मुताबिक दोनों चचेरी बहनें थीं, उनका परिवार ईंट भट्टे पर ही रहकर काम करता था और वहीं उनके साथ ये जघन्य अपराध हुआ, आरोपियों को गिरफ़्तार तो कर लिया गया था लेकिन बताया जा रहा है कि ईंट भट्टे के मालिक की तरफ से समझौते के दबाव की वजह से पीड़ित लड़कियों में से एक के पिता ने आत्महत्या कर ली। 

सोचिए परिवार पर कैसा दबाव बनाया गया कि पिता ने आत्महत्या कर ली, आख़िर क्यों? क्यों पीड़ित पक्ष पर सारे दर्द के बादल टूट के बरसते हैं? क़ानून, समाज, दबाव और धमकी पीड़ित परिवार को ही क्यों घेरता है? 

न्याय मिलने की रफ़्तार धीमी ?

देश की राजधानी दिल्ली हो या फिर दूर-दराज का गांव-देहात छोटी बच्चियों से लेकर बुजुर्ग महिलाएं तक रेप की शिकार हो रही हैं, कई मामलों में रेप के बाद बच्चियों को मौत के घाट तक उतार दिया जाता है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो यानी NCRB ने 'क्राइम इन इंडिया 2022' की रिपोर्ट जारी की तो देश में बच्चियों के साथ अन्याय और इंसान मिलने की हालत बेहद बुरी दिखी। इस रिपोर्ट के मुताबिक साल 2022 में बच्चों के खिलाफ अपराध के कुल 1,62,449 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 (1,49,404 मामले) की तुलना में 8.7% की बढ़ोतरी दिखाता है। इसमें 39.7 प्रतिशत ऐसे मामले थे, जो पॉक्सो यानी यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के तहत दर्ज हुए थे, जिसमें बाल बलात्कार भी शामिल है। इस रिपोर्ट के कुछ ही दिन के बाद गैर सरकारी संगठन इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड (आईसीपीएफ) ने भी एक रिसर्च पेपर ‘जस्टिस अवेट्स : ऐन एनालिसिस ऑफ द एफिकेसी ऑफ जस्टिस डिलीवरी मैकेनिज्म इन केसेज ऑफ चाइल्ड एब्यूज’ जारी किया है जिसमें पॉक्सो मामलों की सुनवाई में देरी का पूरा ब्योरा पेश किया गया।

बता दें कि इस रिसर्च पेपर के अनुसार पॉक्सो के मामलों की सुनवाई के लिए बनाई गई विशेष त्वरित अदालतें यानी फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स में 31 जनवरी 2023 तक देश में 2,43,237 मामले लंबित थे। अगर लंबित मामलों की इस संख्या में एक भी नया मामला नहीं जोड़ा जाए तो भी इन सारे मामलों के निपटारे में कम से कम नौ साल का समय लगेगा। रिपोर्ट बताती है कि साल 2022 में पॉक्सो के सिर्फ तीन फीसदी मामलों में सजा सुनाई गई। ये सभी आंकड़े विधि एवं कानून मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय एवं राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के डेटा पर केंद्रित हैं।

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देश में चुनाव के दौरान महिला वोटरों को लुभाने के लिए रैलियों में भाषणबाज़ी तो होती है लेकिन असलियत बेहद डरा देने वाली है। साल दर साल महिलाओं के साथ बढ़ते अपराध डरा रहे हैं। आख़िर वो क्या वजह है कि महिलाओं के साथ अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे? 

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क्या दिक्कत समाज के किसी कोने छुपी बैठी है, या फिर शिक्षा का बुनियादी ढांचा ऐसा है जो लड़कों में वो सीख और समझ पैदा करने में पिछड़ा हुआ है जो महिलाओं और बच्चियों को एक सुरक्षित माहौल दे पाए? 

''हम एक लड़की हैं, ये तो हमेशा याद रखना होगा''

फ़िल्म में दिखाया गया कि कैसे घटना के बाद गांव-समाज के लोग ही पीड़ित बच्ची को भी घटना के लिए जिम्मेदार ठहराने वाली बातें करने लगे। आरोपियों की महिला वकील भी पीड़ित लड़की के लिए ये कहती है कि शादी समारोह में '' रात को 12 बजे के बाद आप क्यों थे, हमको ये नहीं भूलना चाहिए ना कि हम एक लड़की हैं, ये तो हमेशा याद रखना होगा, आप हो हम हो कोई भी हो, ये झारखंड है फोरन (विदेश) नहीं'' 

समाज-सिस्टम सरकार सुरक्षित माहौल देने में भले नाकाम हो जाए लेकिन लड़की ये ना भूले कि वो लड़की है!

पढ़ी-लिखी वकील साहिबा कहती हैं कि ''ये नहीं भूलना चाहिए कि आप लड़की हैं'' तो क्या लड़की के लिए उसका शरीर ही उसके लिए सबसे बड़ा ख़तरा है?  महिलाओं, बच्चियों के लिए सुरक्षित माहौल देना या बनाना समाज-सिस्टम या सरकार भूल जाए या नाकाम हो जाए लेकिन महिलाओं और बच्चियों को हमेशा याद रखना होगा कि वे लड़की हैं। आख़िर ये कैसी सोच है? दुख की बात ये है कि ये सोच सिर्फ उनकी नहीं बल्कि समाज की सोच है और कमाल की बात ये है कि ये सोच कब, कैसे बदलेगी कोई नहीं जानता। 

झारखंड में विदेशी महिला के साथ गैंगरेप का आरोप

इसी सोच का एक मुज़ाहिरा हाल ही में झारखंड में दिखा, स्पेन की महिला पति के साथ दुनिया घूमने निकली थी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक ये कपल बाइक से 66 देशों में घूमा। अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे देशों में भी वे बेधड़क रहे जिन्हें ह्यूमन राइट्स वॉच संस्था ने रिहाइशी इलाकों के नज़रिए से सबसे ख़तरनाक बताया है। ये कपल भारत में झारखंड के दुमका में रुका। आरोप है कि महिला का यहां गैंगरेप हुआ और उनके पति के साथ मारपीट की गई, मामला दर्ज हुआ, गिरफ़्तारी हुई और पीड़ित कपल को मुआवज़ा देकर विदा कर दिया गया। जिस वक़्त सोशल मीडिया पर घटना की निंदा की जा रही थी उस वक़्त महिला आयोग की चीफ रेखा शर्मा अजीब से बयान देकर विवाद को और बढ़ा रही थीं। 

महिला सुरक्षा और उसके मान-सम्मान के मुद्दे पर ना ख़त्म होने वाली बहस की जा सकती है। देश में महिलाओं के साथ अपराध एक बड़ी समस्या है। एक अनुमान के मुताबिक बच्चियों और महिलाओं के साथ जितने मामले अपराध के आंकड़ों में दर्ज होते हैं उससे कहीं ज़्यादा छूट जाते हैं (दर्ज नहीं होते) 

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 '' अकेला बाघ कैसे मारते हैं हम दिखा देंगे ''

ये फ़िल्म ख़ास है, 13 साल की बच्ची का गैंगरेप और उसके बाद समझौता करवाने की कोशिश, धमकी और समाज की तरफ से जो सहयोग मिलना चाहिए ना मिलते देख रोना आता है , उदासी होती है, गुस्से से झुंझलाहट होती है लेकिन फिर उम्मीद बंधती है क्योंकि ऐसे पिता कम ही होते हैं जो अपनी बेटी के लिए समाज से भी भिड़ जाते हैं, एक ग़रीब किसान पिता के लिए कोर्ट के चक्कर काटना, परिवार की सुरक्षा के लिए कई रातों को जाग कर पहरेदारी करना आसान नहीं होता। जिस वक़्त एक बेटी के पिता को समाज ने अकेला छोड़ दिया था उस वक़्त उसे जो हिम्मत दे रही थी वो उसकी वो पीड़ित बच्ची थी जिसकी रूह तक जख़्मी थी। फ़िल्म में एक जगह पीड़ित बच्ची के पिता कहते हैं कि '' कोई हमको बोला था अकेला बाघ कोई नहीं मारता है, तब हम उसे बोले भी थे अकेला बाघ कैसे मारते हैं हम दिखा भी देंगे'' 

पीड़ित बच्ची और उसके परिवार ने इंसाफ मिलने तक लड़ाई लड़ी क़ानूनी तौर पर उन्हें इंसाफ मिल भी गया लेकिन बच्ची के ज़ेहन में जो चोट लगी क्या पता वो जीवन भर उससे उबर पाएगी कि नहीं? 

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