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पॉक्सो के लाखों मामले फ़ास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट में लंबित, क्यों हो रही है देरी और ज़िम्मेदार कौन?

एक रिसर्च पेपर के अनुसार फ़ास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स में 31 जनवरी 2023 तक देश में 2,43,237 मामले लंबित थे। साल 2022 में पॉक्सो के सिर्फ़ तीन फ़ीसदी मामलों में सज़ा सुनाई गई।
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फ़ोटो: न्यूज़लॉन्ड्री

अपराधों का लेखा जोखा रखने वाली सरकारी संस्था नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो यानी NCRB ने बीते दिनों 'क्राइम इन इंडिया 2022' रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 के दौरान बच्चों के खिलाफ अपराध के कुल 1,62,449 मामले दर्ज किए गए, जो 2021 (1,49,404 मामले) की तुलना में 8.7% की बढ़ोतरी दिखाता है। इसमें 39.7 प्रतिशत ऐसे मामले थे, जो पॉक्सो यानी यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के तहत दर्ज हुए थे, जिसमें बाल बलात्कार भी शामिल है। इस रिपोर्ट के कुछ ही दिन के बाद गैर सरकारी संगठन इंडिया चाइल्ड प्रोटेक्शन फंड (आईसीपीएफ) ने भी एक रिसर्च पेपर ‘जस्टिस अवेट्स : ऐन एनालिसिस ऑफ द एफिकेसी ऑफ जस्टिस डेलिवरी मैकेनिज्म इन केसेज ऑफ चाइल्ड एब्यूज’ जारी किया है जिसमें पॉक्सो मामलों की सुनवाई में देरी का पूरा ब्योरा पेश किया गया।

बता दें कि इस रिसर्च पेपर के अनुसार पॉक्सो के मामलों की सुनवाई के लिए बनाई गई विशेष त्वरित अदालतें यानी फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स में 31 जनवरी 2023 तक देश में 2,43,237 मामले लंबित थे। अगर लंबित मामलों की इस संख्या में एक भी नया मामला नहीं जोड़ा जाए तो भी इन सारे मामलों के निपटारे में कम से कम नौ साल का समय लगेगा। रिपोर्ट बताती है कि साल 2022 में पॉक्सो के सिर्फ तीन फीसदी मामलों में सजा सुनाई गई। ये सभी आंकड़े विधि एवं कानून मंत्रालय, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय एवं राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के डेटा पर केंद्रित हैं।

इस रिसर्च पेपर में और क्या खास है?

इस अध्ययन की मानें तो फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट्स जैसी विशेषीकृत अदालतों की स्थापना का प्राथमिक उद्देश्य ही यौन उत्पीड़न के मामलों और खास तौर से यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम से जुड़े मामलों का त्वरित गति से निपटारा करना था। इनका गठन 2019 में किया गया और भारत सरकार ने हाल ही में केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में इसे 2026 तक जारी रखने के लिए 1900 करोड़ रुपये की बजटीय राशि के आवंटन को मंजूरी दी है।

हालांकि रिपोर्ट ये भी दावा करती है कि इन फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालतों के गठन के बाद माना गया कि वे इस तरह के मामलों का साल भर के भीतर निपटारा कर लेंगी लेकिन इन अदालतों में आए कुल 2,68,038 मुकदमों में से महज 8,909 में ही अपराधियों को सजा सुनाई जा सकी है। डेटा कहता है कि जनवरी, 2023 तक के पॉक्सो के लंबित मामलों के निपटारे में अरुणाचल प्रदेश को 30 साल लग जाएंगे, जबकि दिल्ली को 27, पश्चिम बंगाल को 25, मेघालय को 21, बिहार को 26 और उत्तर प्रदेश को 22 साल लगेंगे।

इस अध्ययन से ये भी उजागर हुआ है कि प्रत्येक फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालत ने साल भर में औसतन सिर्फ 28 मामलों का निपटारा किया। शोधपत्र के अनुसार, “प्रत्येक विशेष अदालत से हर तिमाही 41-42 और साल में कम से कम 165 मामलों के निपटारे की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन आंकड़ों से लगता है कि गठन के तीन साल बाद भी ये विशेष अदालतें अपने तय लक्ष्य को हासिल करने में विफल रही हैं।”

इस रिपोर्ट में बाल विवाह का भी जिक्र किया गया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए शोध पत्र कहता है कि बाल विवाह बच्चों के साथ बलात्कार है। साल 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि देश में रोजाना 4,442 नाबालिग लड़कियों को बालिका वधु बना दिया जाता है। इसका मतलब यह है कि देश में हर मिनट तीन बच्चियों को बाल विवाह के दलदल में धकेल दिया जाता है जबकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की हालिया रिपोर्ट कहती है कि देश में बाल विवाह के रोजाना सिर्फ तीन मामले दर्ज होते हैं। यानी इससे साफ है कि बड़ी संख्या में मामले के रिपोर्ट ही नहीं होते।

न्याय सुनिश्चित करने को लेकर कई अहम सिफारिशें

आईसीपीएफ ने इस अध्ययन के जरिए यौन शोषण के पीड़ित बच्चों के लिए न्याय सुनिश्चित करने को लेकर कई अहम सिफारिशें की हैं। इन सिफारिशों में सभी फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालतों का संचालन और उनमें मामलों के निपटान पर निगरानी का फ्रेमवर्क बनाने की बात कही गई है। तो वहीं इन अदालतों से संबद्ध पुलिस से लेकर जज और और पूरे स्टाफ को पूरी तरह सिर्फ इन्हीं अदालतों के काम पर फोकस करने की सलाह दी गई है, जिससे मामले की सुनवाई में देरी न हो। इसके अलावा इन अदालतों के कामकाज में पारदर्शिता के लिए इन सभी फास्ट ट्रैक स्पेशल अदालतों को सार्वजनिक दायरे में लाने की बात भी कही गई है।

बाल अधिकार कार्यकर्ता और पूर्व में चाइल्ड राइट्स एंड यू से जुड़े अभिषेक सिंह बताते हैं कि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में कई मामले अक्सर रिपोर्ट ही नहीं किए जाते हैं, खासकर दूरदराज के इलाकों में, इसलिए बच्चों के खिलाफ किए गए अपराधों का वास्तविक पैमाना स्पष्ट रूप से दिखाई देने वाली संख्या से कहीं अधिक हो सकता है। ये बात सिर्फ उन केसों के निपटारे से जुड़ी है जो रिपोर्ट होकर अदालत तक पहुंचे हैं और इसके बावजूद इसके निपटारे का हाल बुरा है।

अभिषेक कहते हैं, “हमारा ध्यान तब तक उन गंभीर मामलों पर नहीं जाता, जब तक वो पूरे देश के अखबारों के लिए सुर्खियां नहीं बन जाता। इन फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन के समय भी कई बाल अधिकार कार्यकर्ताओं ने इसे बीना दांत वाला शेर करार दिया था। और इसकी वजह थी कि इसकी घोषणा तो आनन-फानन में हो गई थी, लेकिन इसके लिए अतिरिक्त जज, पुलिस और स्टाफ की नियुक्ति को लेकर कुछ स्पष्ट नहीं था। और यही कारण था कि ये एक तरीके से पहले से ही दबाव झेल रही अदालतों को एक अलग नाम देकर अलग क्लेवर में बिना तैयारी के जनता के सामने रख दिया गया। ये सरकार की पहल अच्छी थी, लेकिन नतीज़ा सबका सामने है। कई सरकारी उपायों के बावजूद, हमारे बच्चे कहीं भी सुरक्षित और संरक्षित बचपन के करीब नहीं हैं।"

गौरतलब है कि बच्चों के खिलाफ यौन अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। ऑनलाइन- ऑफलाइन दोनों ही जगह बच्चे सुरक्षित नहीं हैं। अदालतों में सालों लटके मामले बच्चों के मनोबल और भविष्य तक को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसका जल्दी और सही निपटारा ही बाकी बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए एक हिम्मत और मिसाल भी बन सकता है। हालांकि ये एक कानूनी प्रक्रिया है जिसमें शायद बच्चों के परिवार वाले ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं। लेकिन अपने बच्चे को सतर्क और जागरूक करना जरूर आपके हाथ में है। प्रोसेस और नतीज़ा जो भी हो लेकिन ऐसे मामलों को रिपोर्ट करने से न हिचके क्योंकि ऐसे मामले लंबे समय तक बच्चों के दिल और दिमाग पर हावी रहते हैं।

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