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10 प्रतिशत कोटा: एक चुनावी तिकड़म है इससे कोई फायदा नहीं होगा

इस आरक्षण के लाभ के लिए पात्रता इतनी ऊंची रखी गयी है कि इससे गरीबों को कोई लाभ नहीं होगा, जबकि एससी/एसटी और ओबीसी के लिए पहले से सरकारी नौकरियों में मौजूद कोटा नहीं भरा जा रहा है।

आरक्षण
साभार -इंडिया टुडे

अगले आम चुनावों की आधिकारिक प्रक्रिया शुरू होने में अभी कुछ हफ्ते ही बाकी हैं और परेशानी  में फंसी मोदी सरकार ने अभी एक और निर्णय लिया है जो दिखावा अधिक है, लेकिन यथार्थ से काफी दूर है। वास्तव में यह फैसला सवर्णों को खुश करने के लिए और दलितों, आदिवासियों और यहां तक कि ओबीसी से दुरी दिखाने के एक राजनीतिक हथकंडे से कम नहीं है।

सरकार ने कल घोषणा की कि केंद्र सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। चूँकि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण के प्रावधान पर सुप्रीम कोर्ट की रोक है, और महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण का प्रावधान करता है, इसलिए इस तरह के अतिरिक्त कोटा के लिए संवैधानिक संशोधनों सहित विधायी कार्रवाई की आवश्यकता होगी।

जबकि सरकारी नौकरी या सरकारी संस्थानों में दाखिला पाने के लिए गरीब लोगों के लिए कुछ सहायता या राहत, सिद्धांत रूप में, एक वांछनीय नीति है, मोदी सरकार का यह नवीनतम प्रयोग इसे हासिल नहीं कर पाएगा। वास्तव में, यह कुछ भी हासिल नहीं करेगा। क्यों, आइये यहां गौर करें:

उच्च पात्रता इसे वास्तविक गरीबों से दूर कर देती है

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) की रिपोर्ट, सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) की रिपोर्ट और लेबर ब्यूरो की रिपोर्ट के अंतिम उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि भारत की लगभग 95 प्रतिशत आबादी प्रति वर्ष 8 लाख रुपये से कम कमाती है (जोकि लगभग 67,000 रुपये प्रति माह है)। अधिकांश दलित और आदिवासी, और ओबीसी का एक बड़ा हिस्सा भी इसमें शामिल हैं। फिर भी, शेष तथाकथित ऊंची जातियां भारत की आबादी का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा हैं। इसी तरह, अन्य शर्तों कि जैसे अधिकतम 5-एकड़ भूमि जोतना, आदि।

इस प्रकार जो किया गया है वह वास्तव में गरीबों को लक्षित नहीं करता है - जैसे कि  इस आरक्षण से 15 करोड़ भूमिहीन मजदूरों के घर या 10 करोड़ श्रमिकों के घर को कोई फायदा नहीं मिलेगा। उनके बीच प्रतिस्पर्धा उनके संबंधित आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक शक्तियों ताकत के बल पर निर्धारित की जाएगी। जाहिर है, सबसे गरीब, सबसे वंचित लोग फिर इससे बाहर हो जाएंगे।

नौकरियों के मुट्ठी भर अवसर

सशस्त्र बलों को छोड़कर, वर्तमान में लगभग 1.5 करोड़ सरकारी कर्मचारी हैं, जिनमें से लगभग 34 लाख केंद्र सरकार के कर्मचारी हैं, जबकि बाकी कर्मचारी राज्य सरकारों के अधीन हैं। सरकारी कर्मचारियों के महासंघों के अनुमानों के अनुसार, कुछ 20 लाख नौकरियां रिक्त पड़ी हैं। यदि केवल इन्ही रिक्तियों को भरा जाता है तो यह 10 प्रतिशत नया कोटा इसके तहत केवल 2 लाख नौकरियों की ही पेशकश करता है। उन दसियों करोड़ लोगों के लिए यह छलावा है जो लोग नौकरियों की तलाश में भटक रहे हैं।

इसलिए लेकिन यह केवल एक सैद्धांतिक पतंगबाजी है। वास्तव में, मोदी/भाजपा शासन के तहत केंद्र और राज्य दोनों सरकारें लगातार सरकारी नौकरियों की छंटनी कर रही हैं। 7 वें वेतन आयोग की घोषणा के बाद, कई राज्य सरकारों ने खुले तौर पर घोषणा की कि वे कर्मचारियों के संख्याबल को कम कर उच्च वेतनमान को पूरा करेंगे। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में, मोदी के तहत 2014 के बाद से नियमित कर्मचारियों की ताकत में 25 प्रतिशत की कमी आई है।

इसलिए, सरकारी नौकरियां नहीं हैं। वास्तव में, किसी भी तरह की नौकरियां नहीं हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमीज (सीएमआईई) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, 2018 में ही महज 1.1 करोड़ नौकरियां खत्म हुईं हैं। जनवरी 2016 के बाद से, कार्य सहभागिता दर (कामकाजी आबादी की कुल आबादी का हिस्सा) 47.6 प्रतिशत से 42.47 फीसदी कम हो गई है। मोदी सरकार की इस नाकामी पर जनता में व्यापक गुस्सा है।

आरक्षण की घोषणा केवल उच्च जातियों के लिए एक इशारा है कि हम आपके साथ हैं। कुछ समय बीतने के बाद हर कोई महसूस करेगा कि नए कोटे का मतलब नई नौकरियां नहीं है।

मौजूदा एससी/एसटी/ओबीसी कोटे को खोखला करने की कोशिश

दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदायों के बीच व्यापक संदेह है कि मोदी सरकार इस नए कोटा की घोषणा करके वह उनके  अधिकारों को सुरक्षित करने की किसी भी योजना को छोड़ रही है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मोदी ने अपने शासन के साढ़े चार साल में, एससी/एसटी के लिए आरक्षण की संवैधानिक गारंटी को लागू नही किया है। हालांकि, काफी समय से मोदी  सरकार केंद्र सरकार में आरक्षित पदों की स्थिति का खुलासा नहीं कर पाई है, लेकिन लोकसभा में दिए एक जवाब के अनुसार (# 4500, 14 दिसंबर 2016) में, सरकार ने कहा कि समूह ए के पदों में, एससी अधिकारी/स्टॉफ सिर्फ 12.75 प्रतिशत थे जबकि एसटी केवल 4.7 प्रतिशत और ओबीसी अधिकारी 13.09 प्रतिशत थे। वैधानिक आरक्षण का अर्थ है कि 16.5 प्रतिशत एससी, 8 प्रतिशत एसटी और 27 प्रतिशत ओबीसी होना चाहिए। और दूसरे छोर पर, सफाई कर्मचारी के बीच, एससी लगभग 25 प्रतिशत हैं जबकि एसटी लगभग 9 प्रतिशत हैं। इसी तरह, ग्रुप सी में, एससी 19 फीसदी और एसटी 7.7 फीसदी हैं।

दूसरे शब्दों में, एससी/एसटी/ओबीसी कर्मचारियों की कीमत पर उच्च जातियों का सरकारी कर्मचारियों के शीर्ष क्षेत्रों पर एकाधिकार बना हुआ है, जिन्हें निचले स्तरों पर होना चाहिए था। वास्तव में, संसदीय प्रश्न (आरएस # 1690, 16 मार्च 2017) के एक अन्य उत्तर में, सरकार ने खुलासा किया कि 85 कुल पदों में से केवल दो एससी और अन्य दो एसटी सचिव स्तर के अधिकारी थे, और 70 अतिरिक्त सचिवों के बीच, बस चार एससी और दो एसटी अधिकारी थे। 2009 से 2016 तक यूपीएससी द्वारा की गई 3166 नियुक्तियों में से सिर्फ 6 प्रतिशत एसटी थे, और 11 प्रतिशत एससी थे, एक और उत्तर के जवाब में (एलएस # 4500, 14 दिसंबर 2016) जबकि सीधी भर्ती प्रक्रिया में सिर्फ 14 प्रतिशत एससी और 6 प्रतिशतएसटी उम्मीदवारों का चयन उसी अवधि में 8,141 सफल उम्मीदवारों में से किया गया था।

मोदी सरकार के तहत नौकरी के लगातार नुकसान और आउटसोर्सिंग के माध्यम से नौकरियों के बढ़ते निजीकरण के संदर्भ में, वामपंथी और दलित/आदिवासी संगठनों द्वारा मांग की जाती रही है कि निजी क्षेत्र में एससी/एसटी आरक्षण को अनिवार्य किया जाना चाहिए ताकि इन सबसे उत्पीड़ित वर्गों में से कुछ को बचाया जा सके लेकिन सरकार द्वारा उनकों कुछ राहत दिए जाने की भी पूरी तरह से अनदेखी की है।

संवैधानिक सुरक्षा उपायों के इस तरह के उल्लंघन और एससी/एसटी/ओबीसी की उपेक्षा से, उच्च जाति के व्यक्तियों के लिए एक नया कोटा प्रदान करना उस दिशा का स्पष्ट संकेत है जिसमें मोदी सरकार आगे बढ़ रही है। यह केवल यही संकेत दे रहा है कि मोदी सरकार  उच्च जातियों के साथ खड़ी है, हालांकि जहां तक नौकरियों का सवाल है तो यह भी संदिग्ध ही लगता है।

कोई तैयारी नही

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि मोदी सरकार एक आश्चर्यजनक कदम उठाने के लिए जानी जाती है(विनाशकारी नोटबंदी/ विमुद्रीकरण और विफल सर्जिकल स्ट्राइक को याद रखें) नए कोटे के बारे में भी ऐसे ही घोषणा की है। हालाँकि, यह कदम जटिल कानूनी प्रक्रिया और राजनीतिक मुद्दों से भरा हुआ है, जिसमें एक संवैधानिक संशोधन पारित करना शामिल है, जिसके लिए संसद में दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। अन्य पक्षों के साथ या कानूनी और संवैधानिक विशेषज्ञों के साथ कोई परामर्श प्रक्रिया नहीं हुई है। संसद सत्र कुछ ही दिनों में समाप्त हो रहा है और जब तक बजट के लिए अगले सत्र को नहीं बुलाया जाएगातब तक चुनाव के लिए आदर्श आचार संहिता लागू हो चुकी होगी, और संशोधनों को पारित करना असंभव होगा। इससे पता चलता है कि यह पूरा कदम आम तौर पर गलत चुनावी जुमला है जो तुरंत चुनावी लाभ हासिल करने के लिए लिया गया है।

इसकी अधिक संभावना है कि इस नए कोटे के कदम को आने वाले चुनावों में लोगों द्वारा खारिज कर दिया जाएगा क्योंकि यह किसी भी तरह से नौकरियों के भीषण संकट को हल नहीं कर सकता है। यह जो कुछ भी किया गया है वह एक चुनावी स्टंट की सूची में शामिल है - राम मंदिर की तरह –जिनकि मोदी और उनके संघ परिवार के सदस्य चुनावों के वक्त जुगाली कर सके या कररहे हैं।

 

 

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