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हसरत मोहानी: दरवेशी ओ इंक़िलाब है मसलक मेरा...

संदर्भ : 14 अक्टूबर जंग—ए—आज़ादी के सूरमा, सहाफ़ी-एडिटर-शायर मौलाना हसरत मोहानी का जन्मदिवस।
Hasrat Mohani

जंग-ए-आज़ादी में सबसे अव्वल ‘इन्क़लाब ज़िंदाबाद’ का जोशीला नारा बुलंद करना और हिंदुस्तान की मुकम्मिल आज़ादी की मांग, महज़ ये दो बातें ही मौलाना हसरत मोहानी की बावकार हस्ती को बयां करने के लिए काफ़ी हैं। वरना उनकी शख़्सियत से जुड़े ऐसे अनेक किस्से और हैरतअंगेज़ कारनामे हैं, जो जंग-ए-आज़ादी के पूरे दौर और फिर आज़ाद हिंदोस्तां में उन्हें अज़ीम बनाते हैं। वे एक ही वक़्त में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सहाफ़ी, एडिटर, शायर, कांग्रेसी, मुस्लिमलीगी, कम्युनिस्ट थे। उन्नाव की डौडिया खेड़ा के राजा राव रामबक्श सिंह की शहादत का मौलाना हसरत मोहानी के दिलो दिमाग पर ऐसा असर पड़ा कि वे छात्र जीवन से ही आज़ादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे।

अपनी इंक़लाबी विचारधारा और आज़ादी के आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से कई बार वे कॉलेज से निष्कासित हुए, लेकिन आज़ादी के जानिब उनका जुनून और दीवानगी कम नहीं हुई। पढ़ाई पूरी करने के बाद, वे नौकरी चुनकर एक अच्छी ज़िंदगी बसर कर सकते थे, मगर उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना। पत्रकारिता और क़लम की अहमियत को पहचाना और साल 1903 में अलीगढ़ से ही एक सियासी-अदबी रिसाला ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ निकाला। जिसमें अंग्रेज़ी हुकूमत की नीतियों की कड़ी आलोचना की जाती थी। इस रिसाले में हसरत मोहानी ने हमेशा आज़ादी पसंदों के लेखों, इंक़लाबी शायरों की क्रांतिकारी ग़ज़लों-नज़्मों को तरजीह दी, जिसकी वजह से वे अंग्रेज़ सरकार की आंखों में ख़टकने लगे।

साल 1907 में अपने एक मज़मून में मौलाना हसरत मोहानी ने सरकार की तीखी आलोचना कर दी। जिसके एवज में उन्हें जेल जाना पड़ा और सज़ा, दो साल क़ैद बामशक़्क़त ! जिसमें उनसे रोज़ाना एक मन गेहूँ पिसवाया जाता था। क़ैद के हालात में ही उन्होंने अपना यह मशहूर शे’र कहा था, ‘‘है मश्क़-ए-सुख़न जारी, चक्की की मशक़्क़त भी/इक तुर्फ़ा तमाशा है शायर की तबीयत भी।’’

वैचारिक स्तर पर मौलाना हसरत मोहानी कांग्रेस के ‘गरम दल’ के ज़्यादा करीब थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से उनका लगाव था। कांग्रेस के ‘नरम दल’ के लीडरों की पॉलिसियों से वे मुतमईन नहीं थे। वक्त पड़ने पर वे इन नीतियों की कांग्रेस के मंच और अपनी पत्रिका ’उर्दू-ए-मुअल्ला’ में सख़्त नुक्ताचीनी भी करते। साल 1907 में कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक कांग्रेस से जुदा हुए, तो वे भी उनके साथ अलग हो गए। यह बात अलग है कि बाद में वे फिर कांग्रेस के साथ हो लिए। साल 1921 में मौलाना हसरत मोहानी ने ना सिर्फ ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ नारा दिया, बल्कि अहमदाबाद में हुए कांग्रेस सम्मलेन में 'आज़ादी ए कामिल’ यानी पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव भी रखा। कांग्रेस की उस ऐतिहासिक बैठक में क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला खां के साथ-साथ कई और क्रांतिकारी भी मौजूद थे। महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया। बावजूद इसके हसरत मोहानी ‘पूर्ण स्वराज्य’ का नारा बुलंद करते रहे और आख़िकार यह प्रस्ताव, साल 1929 में पारित भी हुआ।

भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद समेत तमाम क्रांतिकारियों ने आगे चलकर मौलाना हसरत मोहानी के नारे ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद’ की अहमियत समझी और देखते-देखते यह नारा आज़ादी की लड़ाई में मक़बूल हो गया। एक समय देश भर में बच्चे-बच्चे की ज़बान पर यह नारा था। अपनी क्रांतिकारी और साहसिक सरगर्मियों के लिए मौलाना हसरत मोहानी दो बार साल 1914 और 1922 में भी ज़ेल गए। लेकिन उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया। वे जेल से वापस आते और फिर उसी जोश और जज़्बे से अपने काम में लग जाते। अंग्रेज हुकूमत का कोई जोर-जुल्म उन पर असर नहीं डाल पाता था।

साल 1925 में मौलाना हसरत मोहानी का झुकाव कम्युनिज़्म की तरफ़ हो गया। यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के पहले सम्मेलन की नींव उन्होंने ही रखी। साल 1926 में कानपुर में हुई पहली कम्युनिस्ट कॉफ्रेंस में मौलाना हसरत मोहानी ने ही स्वागत भाषण पढ़ा। जिसमें उन्होंने पूर्ण आज़ादी, सोवियत रिपब्लिक की तर्ज़ पर स्वराज की स्थापना और स्वराज स्थापित होने तक काश्तकारों और मज़दूरों के कल्याण और भलाई पर ज़ोर दिया। साल 1936 में जब लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस हुई, तो मौलाना हसरत मोहानी सिर्फ एक दावतनामे पर बिना किसी औपचारिकता के कानपुर से इस कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने लखनऊ पहुंच गए। अपनी तक़रीर में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र और इसके मक़सद से रज़ामंदी जाहिर की, बल्कि इस बात भी जोर दिया कि ‘‘अदब में आज़ादी की तहरीक की अक्कासी होनी चाहिए। प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लेख़कों को मज़दूरों, किसानों और तमाम पीड़ित इंसानों की पक्षधरता करना चाहिए। लेखक को ज़िंदगी के ज़्यादा महत्वपूर्ण और गंभीर मसलों की तरफ ध्यान देना चाहिए।’’

अपने साम्यवादी विचारों के जानिब मौलाना हसरत मोहानी इस कदर आग्रही थे कि उन्होंने अपनी इस तकरीर में लेखकों से मुख़ातिब होते हुए साफ़ तौर पर कहा,‘‘महज़ तरक़्क़ीपसंदी काफ़ी नहीं है, आधुनिक साहित्य को सोशलिज्म और कम्युनिज्म का समर्थन करना चाहिए, इसे इन्क़िलाबी होना चाहिए।’’ अलबत्ता यह बात अलग है कि मौलाना का साहित्य, ख़ास तौर पर उनकी शायरी में इन बातों का कोई अक्स नहीं दिखाई देता। बावजूद इसके वे तरक़्क़ीपसंद अदब की तख़्लीक के हामी थे। कानपुर में जब प्रगतिशील लेखक संघ की पहली इकाई बनी, तो उन्होंने ख़ुद इस संगठन के अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली। तरक़्क़ीपसंद तहरीक पर जब भी प्रतिक्रियावादी शक्तियां हमला करतीं, तो मौलाना हसरत मोहानी उन्हें मुंह तोड़ जवाब देते। तहरीक के लिए मर-मिटने को तैयार हो जाते।

मौलाना हसरत मोहानी के सियासी नज़रिए के बारे में अपनी किताब ‘रौशनाई’ में सज्जाद ज़हीर ने एक टिप्पणी की है, जो लखनऊ अधिवेशन में मौलाना की तक़रीर के संबंध में ही है, ‘‘उन्होंने यह समझाने की कोशिश की कि इस्लाम और कम्युनिज्म में कतई कोई तज़ाद नहीं है। उसके नज़दीक इस्लाम का जमहूरी नस्बुलएन इसका मुतकाज़ी है कि सारी दुनिया में मुसलमान इश्तराकी निजाम (साम्यवाद) कायम करने की कोशिश करें। हमारे ख़याल में तरक़्क़ीपसंद अदबी तहरीक में महज सोशलिस्ट या कम्युनिस्ट ही नहीं, बल्कि मुख़्तलिफ़ अक़ायद के लोगों के लिए जगह थी। मौलाना के नजदीक तरक़्क़ीपसंदी के लिए इश्तराकी होना ज़रूरी था।’’

हसरत मोहानी के नाम के आगे भले ही मौलाना लगा रहा, लेकिन उनका मसलक क्या था ? यह उन्होंने ख़ुद अपने एक मशहूर शे’र में बतलाया है,‘‘दरवेशी ओ इन्क़िलाब है मसलक मेरा/सूफ़ी मोमिन हूँ, इश्तराकी मुस्लिम।’’

मौलाना हसरत मोहानी, फ़ारसी और अरबी ज़बान के बड़े विद्वान थे। उनके कलाम में अपना ही एक रंग है, जो सबसे जुदा है। हुस्न-ओ-इश्क में डूबी उनकी ग़ज़़लें, हमें एक अलग हसरत मोहानी से तआरुफ़ कराती हैं। मिसाल के तौर पर उनकी ग़ज़लों के कुछ अश्आर देखिए, ‘‘न सूरत कहीं शादमानी की देखी/बहुत सैर दुनिया-ए-फ़ानी की देखी।’’, ‘‘क़िस्मत-ए-शौक़ आज़मा न सके/उन से हम आँख भी मिला न सके।’’

मौलाना हसरत मोहानी की ऐसी और भी कई ग़ज़लें हैं, जो आज भी बेहद मक़बूल हैं। ख़ास तौर पर ग़ज़ल,‘‘चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है’’ तो जैसे उनकी पहचान है।

मौलाना हसरत मोहानी ने अपनी ज़िंदगानी में तेरह दीवान संकलित किए और हर दीवान पर ख़ुद ही प्रस्तावना लिखी। उनके अशआर की तादाद भी तक़रीबन सात हज़ार है। जिनमें से आधे से ज़्यादा उन्होंने ज़ेल की क़ैद में लिखे हैं। उनकी लिखी कुछ ख़ास किताबें ’कुलियात-ए-हसरत’, 'शरहे कलामे ग़ालिब’, ’नुकाते सुख़न’, ’मसुशाहदाते ज़िन्दां’ हैं। वहीं ’कुल्लियात-ए-हसरत’ में उनकी ग़ज़ल, नज़्म, मसनवी आदि सभी रचनाएं शामिल हैं। मौलाना हसरत मोहानी आज़ादी के बाद भी लगातार मुल्क की ख़िदमत करते रहे। संविधान बनाने वाली कमेटी में मौलाना हसरत मोहानी शामिल थे। संविधान सभा के मेंबर और संसद सदस्य रहते, उन्होंने कभी वीआईपी सहूलियतें नहीं लीं। यहां तक कि वे संसद से तनख़्वाह या कोई भी सरकारी सहूलियत नहीं लेते थे। सादगी इस कदर कि ट्रेन के थर्ड क्लास और शहर के अंदर तांगे पर सफ़र करते थे। छोटा सा मकान उनका आशियाना था। दिल्ली में जब भी संविधान सभा की बैठक में आते, तो एक मस्ज़िद में उनका क़याम होता।

मौलाना हसरत मोहानी की ज़िंदगानी से जुड़ा यह एक ऐसा वाकया है, जो उनके उसूलपसंद होने को दर्शाता है। मौलाना हसरत मोहानी, संविधान सभा के एक अदद ऐसे मेम्बर थे, जिन्होंने संविधान पर अपने दस्तख़त इसलिए नहीं किये, क्योंकि उन्हें लगता था कि देश के संविधान में मज़दूरों और किसानों की हुक़ूमत आने का कोई ठोस सबूत नहीं है। 13 मई, 1951 को मुल्क के इस जांबाज़ सिपाही, आज़ादी के मतवाले मौलाना हसरत मोहानी ने दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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