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2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सिक्किम में 'एनआरसी और आईएलपी' की माँग तेज़

आईएलपी के लागू करने और एनआरसी में शामिल होने वाला सिक्किम नवीनतम पूर्वोत्तरीय राज्य है। हालांकि, भारत के साथ सिक्किम के संवैधानिक संबंधों के कारण यह अन्य राज्यों की तरह आसान नहीं है।
NRC
सांकेतिक चित्रI NRC असम का लोगो

सिक्किम के कुछ समूहों ने हाल ही में सिक्किम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) पर काम करने के साथ इनर लाइन सिस्टम (आमतौर पर इनर लाइन परमिट-आईएलपी कहा जाता है) को लागू करने और विधानसभा में सीट अनुपात बहाल करने की माँग करनी शुरू कर दी है। इस रिपोर्ट ने सिक्किम इंडिजेनस लेपचा ट्राइबल एसोसिएशन (एसआईएलटीए), द सिक्किम भूटिया लेपचा एपेक्स कमेटी (एसआईबीएलएसी) और नेशनलिस्ट सिक्किम यूनाइटेड ऑर्गनाइजेशन (एनएसयूओ) जैसे समूहों का नाम लिया है। बाहरी लोगों की बढ़ती संख्या के चलते सिक्किम के प्रभावित होने की धारणा की वजह से इस माँग में तेज़ी आई है। हालांकि, इस बढ़ती धारणा सहित प्रत्येक माँग में आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।

संभवतः सिक्किम के शहरी इलाकों में प्रवासियों की बढ़ती संख्या ने प्रवाह की इस धारणा को बढ़ावा दिया है। कुछ लोगों के चौंकाने वाली बात यह थी कि जब सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा (एसकेएम) के मुखिया प्रेम सिंह तमाँग (गोले) वित्तीय अनियमितताओं के चलते सजा काटने के बाद जेल से रिहा हुए तो उन्होंने राज्य के चार ज़िलों में रैलियों का आयोजन किया था। इसके बाद सत्तारूढ़ सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट (एसडीएफ) ने प्रत्येक ज़िले में जवाबी रैलियों की शुरुआत की क्योंकि एसकेएम राज्य में सबसे मज़बूत विपक्षी दल है। दक्षिण सिक्किम के नमची में हो रही चर्चाओं के अनुसार, यद्यपिर एसकेएम ने 'स्थानीय' लोगों की बड़ी संख्या को आकर्षित किया वहीं एसडीएफ की रैली में कमी दिखाई दी।

वर्ष 2017 में मोना चेत्री ने उत्तरी सिक्किम ज़िले के चुंगथांग पर एक अध्ययन में उल्लेख किया था कि यह शहर स्लम में बदल गया है जहां स्थानीय लोग सेना के छावनी और हाइड्रो-पावर प्रोजेक्ट के प्रवासी श्रमिकों के बीच पीस रहे हैं। स्थानीय लोगों के लिए एक और परेशान करने वाली बात सेना द्वारा स्थापित एक गुरुद्वारा है जिसके चुंगथांग के नाम लेकर है जिसका वास्तविक नाम चांगी-थांग है, तिब्बत जाने के दौरान इस स्थान पर गुरु नानक रूके थे। यह स्पष्ट है कि सिक्किम में परेशानी बढ़ रही है। ऐसे परिणाम एक लोकतंत्र, संख्या बल तथा 'वोट बैंक राजनीति'के आरोपों के रूप में सामान्यतः स्वभाविक है। हालांकि, उन समूहों के साथ समस्या उत्पन्न होती है जो इन मांगों को उठा रहे हैं।

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स

एनआरसी माँग पर जो तय किया जाने वाला पहला मुद्दा है वह अंतिम वर्ष की सीमा है। 16 मई 1975 को सिक्किम को आधिकारिक तौर पर भारतीय संघ में शामिल किया गया था। इसलिए, यह एक शुरुआती बिंदु के रूप में काम कर सकता है। हालांकि, समस्या यह है कि सिक्किम सब्जेक्ट रेगूलेशन, 1961 के तहत सिक्किम सब्जेक्ट रजिस्टर बनाए गए जो नामों का पूरा रजिस्टर नहीं था। कार्य संबंधी समस्याओं के चलते इससे कई नाम हटाए जा सकते हैं। इसलिएसिक्किम के 'विलय' के बाद सरकार ने उन लोगों को पहचान प्रमाणपत्र (सीओआई) जारी किए जिन्हें भूमि स्वामित्व,कृषिरजिस्टर में शामिल लोगों के रिश्तेदार और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ग्राम पंचायत की सिफारिश के आधार पर हटा दिए गए थें। दोनों दस्तावेज़ वंशानुगत हैं, लेकिन वे केवल पुरुष वंशावली के हैं। इसलिए, कोई अंतिम वर्ष का चयन करना उतना ही मुश्किल है जितना कि किसी पहचान पत्र को आधार बनाना।

सिक्किम सब्जेक्कट सर्टिफिकेट्स (एसएससी) से इनकार करने वाले भारत के प्रवासियों के संबंध में एक और मुद्दा उभरता है और बाद में सीओआई प्राप्त करने के लिए वे अयोग्य भी थे। अनजान लोगों के लिए यह अजीब लग सकता है कि सिक्किम में नागरिकता प्रोटोकॉल का एक अतिरिक्त स्तर है। हालांकि, संविधान के अनुच्छेद 371 एफ के खंड 'के' द्वारा एसएससी का निरंतर अस्तित्व अनिवार्य है। यह प्रावधान सिक्किम में लागू होने वाले सभी पुराने कानूनों का कार्यकाल उस वक्त तक बढ़ाता है जब तक कि किसी सक्षम क़ानून या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा संशोधित या निरस्त नहीं किया जाता है।

सीट अनुपात का पुनःस्थापन

देर से सीट पुनःस्थापन के मुद्दे ने लिंबू-तमाँग सीट मुद्दे के साथ एक नया वेग प्राप्त किया है। नेपाली भाषी समुदाय से संबंधन रखने के बावजूद दोनों समुदाय वर्ष 2002 में अनुसूचित जनजाति (एसटी) बन गए। वर्तमान में वे माँग कर रहे हैं कि सीटों को राज्य विधानसभा में उनके लिए आरक्षित किया जाए। ऐसा लगता है कि इसकी अनुमति देना तुलनात्मक रुप में अधिक जटिल है।

सबसे पहले यह कि सिक्किम विधानसभा में केवल 32 सीटें हैं। 'विलय' के समय, सिक्किम में सीट वितरण का विश्लेषित विवरण यह था कि संयुक्त रूप से भूटिया तथा लेपचा समुदाय और नेपाली समुदाय में प्रत्येक को 15 सीटें मिलेगी, जबकि एक सीट संघ (बौद्ध पादरी) और अनुसूचित जाति (एससी) में प्रत्येक के लिए आरक्षित होगी। हालांकि, वर्ष 1980 में संसद के एक अधिनियम द्वारा, नेपाली सीटों को 'सामान्य सीटों' में परिवर्तित कर दिया गया और भूटिया सीटों को कम कर दिया गया। वर्तमान विश्लेषित विवरण यह है कि भूटिया और लेपचा समुदायों के लिए 12 सीटें, अनुसूचित जाति के लिए दो सीटें और संघ के लिए एक सीट है। हालांकि, चूंकि नेपाली सिक्किमवासी राज्य की आबादी का बड़ा हिस्सा है जो लगभग 70 प्रतिशत है और दो सामान्य सीटों को लिंबू और तमाँग समुदायों के लिए आरक्षित सीटों में परिवर्तित करना उचित नहीं है। दूसरी तरफ भूटिया और लेपचा समुदाय अपनी सीट हिस्सेदारी में और कमी को लेकर विरोधी बने हुए हैं।

जो चित्रित किया जा सकता है उसके विपरीत कि भूटिया और लेपचा के लिए आरक्षित सीटें आदिवासी के रूप में उनकी 'पिछड़ेपन' के आधार पर नहीं बल्कि जातीयता के आधार पर की गई हैं। यह भी भारत सरकार, चोग्याल और राजनीतिक दलों के बीच 8 मई 1973 के त्रिपक्षीय समझौते में अपनी उत्पत्ति तलाशता है। सिक्किम के कुछ वर्गों का मानना है कि सिक्किम सरकार अधिनियम, 1974 – जो 8 मई 1973 के समझौते पर कानूनी प्रभाव डालता है- के आधार पर तीन बड़े समुदायों के बीच सीट वितरण अनुच्छेद 371 एफ के खंड 'के' द्वारा संरक्षित है। हालांकि, यह अधिनियम सीट वितरण को स्पष्ट नहीं करता है और इसके बजाय चोग्याल, विधानसभा और कार्यकारी परिषद के पावर-शेयरिंग डोमेन को व्यापक रूप से बताता है। इसके अलावा, जैसा कि इसकी उत्पत्ति 8 मई के समझौते में निहित है, ये अधिनियम अनुच्छेद 371 एफ के खंड 'एम' से प्रभावित होगा।

खंड 'एम' भारत में सभी न्यायालयों को किसी भी "संधि, समझौते, कार्य या सिक्किम से संबंधित अन्य समान साधन से उत्पन्न किसी भी विवाद की सुनवाई से रोकता है, जिसे नियुक्त दिन से पहले प्रवेश या निष्पादित किया गया था और जिस पर भारत सरकार या उसकी पूर्ववर्ती सरकारें एक पार्टी थीं, लेकिन इस खंड में अनुच्छेद 143 के प्रावधानों से अपमानित करने के लिए विचार नहीं किया जाएगा।" इसका तात्पर्य यह है कि जब तक राष्ट्रपति इस मामले को प्रस्तुत नहीं करते - एक गैर-न्यायसंगत तरीके से - सुप्रीम कोर्ट इन पुराने दस्तावेजों पर विचार नहीं कर सकता है।

एक और मुद्दा यह है कि खंड 'एफ' के आधार पर सीट वितरण पूरी तरह से संसद के हाथों में है। इसलिए इस तरह के परिवर्तन केवल बिल पारित करके ही किए जा सकते हैं। इसलिए, लिंबू-तमाँग सीट मुद्दे के परिप्रेक्ष्य से, इस मामले में कुछ भी करने में सक्षम एकमात्र प्राधिकरण संसद ही है। पिछले सीमांकन के अनुसार नेपाली सीटों को समाप्त करने के मामले को देखते हुए यह असंभव है कि संसद इस मामले को बहुत गंभीरता से लेगा।

इनर लाइन परमिट सिस्टम

पूर्वोत्तर में आईएलपी की माँग पुरानी है। मूल रूप से अंग्रेजों द्वारा कब्जे वाले क्षेत्रों से जनजातियों को बाहर करने के साधन के रूप में जो उद्देश्य था वह अब समुदायों के लिए 'बाहरी लोगों' के प्रवेश को नियंत्रित करने के लिए एक साधन बन गया है। पूर्वोत्तर में थोड़े-थोड़े अंतराल पर इसी तरह की मांगें उठाई गई हैं। मणिपुर में इन मांगों ने वर्ष 2015 में हिंसक मोड़ लिया।

हालांकि, आईएलपी स्वयं ही 'बाहरी लोगों' से पृथक नहीं है। 'बाहरी लोगों' को व्यापार या रहने से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 19 का एक हिस्सा है। इसके अलावा उन्हें मतदान करने से रोका नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह नागरिकों का मौलिक और लोकतांत्रिक अधिकार है। इसलिए, सिक्किम में आईएलपी को लागू करने से कथित 'प्रवेश' को नियंत्रित करने में अधिक प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके अलावा, सिक्किम में पहले से ही एक ऐसी व्यवस्था है जहां राज्य में प्रवेश करने वाले विदेशी लोगों को रिस्ट्रिक्टेड एरिया परमिट (आरएपी)जारी किया जाता है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन, म्यांमार और नाइजीरिया से संबंधित नागरिकों को गृह मंत्रालय के पूर्व अनुमोदन पर आरएपी जारी किए जा सकते हैं। ये परमिट मेली और रंगपो में सीमा चेक-पोस्ट पर प्राप्त किए जा सकते हैं। इसलिए, सिक्किम में प्रवेश को विनियमित करने का क़ानूनी साधन पहले से मौजूद है। इसमें न तो मौजूदा सिस्टम को बदलने और न ही अतिरिक्त स्तर जोड़ने से मौजूदा ज़मीनी सच्चाई बदल जाएगी।

इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि एनआरसी और सीट परिसीमन की माँग के लिए समस्या उत्पन्न करने वाली परिस्थिति अनुच्छेद 371 'एफ' का अस्तित्व है। हालांकि, अनुच्छेद को निरस्त करने से भारतीय संघ के साथ सिक्किम के रिश्ते दो कारण से प्रभावित होगा। सबसे पहले, सिक्किम के लोग गंभीरता से मानते हैं कि ये अनुच्छेद सिक्किम और सिक्किम के लोगों को 'सुरक्षा' प्रदान करता है। हालांकि, सिक्किम की राजनीति को प्रभावित करने के बावजूद इन प्रावधानों को प्रभावित किए बिना पिछली सीट व्यवस्था को समाप्त किया गया था। दूसरा, अगर अनुच्छेद 371 एफ को निरस्त किया जाना था तो 1950 की इंडो सिक्किम संधि कानूनी रूप से फिर से लागू होनी चाहिए। हालांकि, व्यावहारिक रूप से यह काफी असंभव है कि भारतीय संघ द्वारा संधि का सम्मान किया जाएगा, विशेष रूप से जब इसको 1975 में पूरी तरह से उपेक्षित किया गया था।

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