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2020: कोविड-19 वाले इस साल ने न्यायिक क्षेत्र पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी

2020 कई तरीक़ों से यादगार रहा है। क़ानूनी बिरादरी के लिए यह साल कई हक़ीक़तों से पर्दा उठाने वाला और सीख देने वाला रहा, क्योंकि कोविड-19 पूरे देश को अपनी चपेट में लेता चला गया, जिससे अदालतों के कामकाज़ पर भी असर पड़ा।
न्यायिक क्षेत्र

इंदिरा जयसिंह लिखती हैं कि 2020 कई तरीक़ों से यादगार रहा है। क़ानूनी बिरादरी के लिए यह साल कई हक़ीक़तों से पर्दा उठाने वाला और सीख देने वाला रहा,क्योंकि कोविड-19 पूरे देश को अपनी चपेट में लेता चला गया, जिससे अदालतों के कामकाज पर भी असर पड़ा। क्या अदालतें इस चुनौती से पार पा पायीं? हां, अदालतें, ख़ास तौर पर उच्च न्यायालय ऐसा ज़रूर कर पायीं, जबकि सुप्रीम कोर्ट लॉकडाउन, प्रवासी संकट, एक मज़बूत कार्यपालिका, स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों, विरोध और घृणा फ़ैलाने वाले भाषणों से निपटने और उनका सामना करने में और बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी। बहरहाल, कई ऐसे फ़ैसले थे, जिन्होंने संवैधानिक व्यवस्था के अंतिम गढ़, यानी न्यायपालिका में हमारे भरोसे को बनाए रखा। हालांकि, इस समय वर्चुअल अदालतें काम कर रही हैं, उम्मीद है कि नया साल अपने साथ नया आशावाद और उम्मीद लेकर आएगा और इससे भी अहम बात यह है कि इस नये साल में न्यायिक प्रक्रिया मज़बूत और स्वतंत्र होगी।

2020 का साल स्तब्ध कर देने वाला एक ऐसा साल रहा, जिसमें इस क़दर बदक़िस्मती और तबाही रही कि तक़रीबन दुनिया के किसी भी कोने में रह रहा कोई भी शख़्स इस साल को अपनी यादों को भूला देना चाहेगा। छोटे से संक्रामक और तेज़ी से फ़ैलने वाला यह वायरस, कोविड-19 ने दुनिया को अपना बंधक बना लिया, जो चीन के वुहान से शुरू हुआ था, लेकिन इसे रोक पाना नामुमकिन हो गया और देखते-देखते पूरी दुनिया में फ़ैल गया। विभिन्न देशों ने इस वायरस के बढ़ते उफ़ान को रोकने की कोशिश की और इसी कोशिश के हिस्से के तौर पर लॉकडाउन लगा दिये गये, इस वजह से स्वास्थ्य (स्वाभाविक रूप से), अर्थव्यवस्था, पर्यटन, श्रम और संबद्ध सेवाओं जैसे क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुए। लोगों की ज़िंदगी में गिरावट आती चली गयी, क्योंकि नौकरियाँ जाती रहीं और स्वास्थ्य की समस्या रोज़मर्रे की बात हो गयी।

यह साल भारत की कई समस्याओं को भी सामने ला दिया, उन समस्याओं से निपटने के सरकार और न्यायपालिका के तौर-तरीक़ों को भी सामने ला दिया। ये मुद्दे थे:

लॉकडाउन की अवैधता

इस विचार का शीर्षक साइरस बरुचा के शो,"द वीक दैट वाज़ नॉट" से लिया गया है। काश कि यह मज़ेदार होता, लेकिन ऐसा नहीं है। भारत में लगने वाला लॉकडाउन भयानक, वीरानगी, बीमारी और मौत से भरा हुआ था। क़ानूनी पेशे के लिए तो यह 2020 का साल निराशा और क़यामत का वर्ष था, क़ानूनी महामारी का साल।

लॉकडाउन शुरू करने के पीछे हमें कोई क़ानूनी आधार नहीं दिखता। यह 23 मार्च, 2020 में शुरू हुआ था, लेकिन सवाल है कि किस क़ानून के तहत इसे लागू किया गया था? इसे लागू करते हुए आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 का हवाला तो दिया गया था, लेकिन इसके पीछे क्या कोई जैविक आपदा योजना भी थी? अगर योजना थी, तो उस योजना को नज़रअंदाज़ कर दिया गया और उसे लागू करने को लेकर कुछ भी नहीं किया गया। बिना किसी अग्रिम सूचना के बेख़बर और बेतैयार जनता की आवाजाही की आज़ादी और काम करने के उनके अधिकार पर गंभीर प्रतिबंध लगा दिए गए। इस चलते उन हज़ारों प्रवासियों को मुसीबत उठानी पड़ी, जो अपनी परवाह किए बिना शहरों से अपने-अपने गांवों की तरफ़ भारी मन से पलायन कर गए और हममें से बाक़ी लोगों की कमाई भी ख़त्म हो गयी।

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वक़ीलों ने यह मांग रखी कि इस महामारी से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय योजना बनाई जाए, ताकि इसके असर को कम किया जा सके, लेकिन कानों पर जूं नहीं रेंगी। लॉकडाउन की वैधता और इसकी आनुपातिकता पर कभी सवाल नहीं उठाया गया। इसकी वजह शायद ख़ैरख़्वाही और कोई सवाल नहीं उठने वाला वह तरीक़ा था, जिसके साथ अदालत की तरफ़ से कार्यपालिका के बयानों को दब्बूपन के साथ स्वीकार किया जा रहा था। इससे हमारी पूरी की पूरी उम्मीद जाती रही कि हमारी याचिकाओं का निष्पक्ष परीक्षण किया जा जा सकेगा।

प्रवासी संकट

प्रवासियों को न्याय तक पहुंच से यह इनकार सबके सामने था। "जब आपके पास पगार है, तो आपको पैसे की ज़रूरत क्यों है" और "अगर उन्हें खाना दिया जा रहा है, तो उन्हें खाने के लिए पैसे की ज़रूरत क्यों है?" शीर्ष अदालत के इस तरह के कथनों ने देश को झकझोर कर रख दिया और न्यायिक कार्यप्रणाली की इस बेदर्द प्रकृति को उजागर कर दिया।

साफ़ था कि अदालतें इस महामारी की भयावहता से डरती थीं और इसीलिए उन्होंने यह रुख़ अख़्तियार किया कि कार्यकारी सत्ता ही इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीक़ा जानती है। हालांकि, यह सच है कि इस महामारी से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर और नतीजों से निपटने की उम्मीद अदालतों से नहीं की जा सकती है, लेकिन यह भी उतना ही स्पष्ट है कि आपातकाल के समय में मानवाधिकारों का विधिपूर्वक सम्मान किया जाना ज़रूरी है। यह ख़ास तौर पर उन प्रवासियों के लिए तो ज़रूरी था, जिन्होंने ख़ुद को अपने घर वापसी के दौरान भोजन, आश्रय या परिवहन से वंचित पाया।

प्रवासियों को राहत देने के लिए याचिका-दर-याचिका को इस आधार पर खारिज किया जाता रहा कि इस बारे में कार्यात्मक सत्ता को निश्चित रूप से सबसे अच्छे तरीक़े पता हैं । इस तरह, ज़बरदस्त नाकामी तब दिखी, जब शीर्ष अदालत ने भारत के महाधिवक्ता के उस बयान को स्वीकार कर लिया कि घर से पैदल जाने वाले लोग प्रवासी नहीं थे। उन्होंने कहा कि "सड़कों पर चलने वाले लोग क़स्बे /गाव स्थित अपने घरों तक पहुँचने के प्रयास करने वाले लोग नहीं हैं"। एक न्यायिक पीठ ने तो यहाँ तक कह दिया था कि "अदालत के लिए यह निगरानी कर पाना मुमकिन नहीं है कि कौन पैदाल चल रहा है और कौन नहीं चल रहा है"।

आख़िरकार, कोर्ट की भद्द तब पिट गयी, जब बॉम्बे स्थित वक़ीलों के एक समूह ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) को एक खुला पत्र लिखकर क़ानून के शासन के अंत को लेकर शिकायत की। तभी जाकर न्यायालय प्रवासियों के मुद्दे पर स्वत: संज्ञान ले पाया और उन्हें लेकर भारत संघ को निर्देश देना शुरू कर दिया था कि प्रवासियों को श्रमिक ट्रेनों से उनके घर पहुंचाया जाए।

वर्चुअल कोर्ट

हमने क़रीब-क़रीब एक ऐसे वर्चुअल आदलत की तलाश पूरी कर ली है, जो सार्वभौम न्यायिक क्षमता से लैस है, जहां "कंट्रोल रूम" को ही आख़िरी तौर पर तय करना होता है कि अदालत तक पहुँच किसकी होगी। यह प्रणाली इसलिए अक्षम और ग़ैर-बराबरी वाली थी, क्योंकि डिजिटल मीडिया तक सबकी पहुँच नहीं थी। वक़ीलों पर न्यायाधीशों की ताक़त कई गुनी बढ़ गयी। प्रशांत भूषण, जिन्होंने न्यायपालिका के कामकाज़ पर सवाल उठाने की हिम्मत की थी, उन्हें अदालत की अवमानना के मामले में घसीटा गया। भले ही उनके ट्वीट तथ्यात्मक रूप से ग़लत थे, लेकिन अवमानना का यह तरीक़ा एक सही सोच वाली न्यायपालिका के लिए ठीक नहीं था।

उस समय भी ऐसा लगा था कि महामारी के दौरान हममें से हर कोई ग़ायब कर दिया गया था, एकदम से हम नज़रों से ओझल कर दिये गए थे, क्योंकि न्यायपालिका के ठीक से काम नहीं कर पाने को लेकर थोपी गई चुप्पी हर तरफ़ थी। हमने पहली बार इंसाफ़ का एक ऐसा रूप देखा था, जो जनता की नज़र में साफ़ ही नहीं था। पहली बार, हमने इस सिस्टम की नाकामी को तब देखा, जब प्रशांत भूषण के ख़िलाफ़ मामले  को किसी की सेवानिवृत्ति की समय सीमा को ध्यान में रखते हुए तेज़ी से निपटाया गया, जबकि इसी तरह का रवैया ज़मानत के लिए पड़े दरख्वास्तों के साथ नहीं अपनाया गया, हालांकि इसकी तत्काल ज़रूरत थी। यह मानते हुए कि न्याय तो किया गया, लेकिन न्याय होता हुआ नहीं दिखा। ये हालात हमारे समय की नाइंसाफ़ी थी, क्योंकि हम अपने साथी सदस्यों का समर्थन करने के लिए अदालत में मौजूद होने में भी असमर्थ थे।

जिस समय मैं यह लेख लिख रही हूं, उस समय भी सुप्रीम कोर्ट वर्चुअल तरीक़े से ही काम-काज कर रही है, जबकि कई हाई कोर्ट में शारीरिक मौजूदगी के साथ सुनवाई हो रही है। इसे लेकर वकीलों की अलग-अलग मिश्रित प्रतिक्रिया है, कुछ तो शारीरिक रूप से मौजूद होकर सुनवाई किए जाने की मांग करते हैं, जबकि बाक़ी वक़ील अपने घरों में मिल रही सुरक्षा को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। कोविड-19 के दौरान सबसे बुरी स्थिति उन ट्रायल कोर्ट की रही, जिनकी पहुँच तकनीक तक नहीं थी। इसका मतलब यह था कि परिवारों और वक़ीलों के साथ उनकी मुलाक़ात को नकारते हुए क़ैदियों को अदालत में पेश तो नहीं ही किया जाता था और ऊपर से  जेलें भी वीडियो सुविधाओं से लैस नहीं थीं। सबसे जाने माने मामले, मशहूर एक्टिविस्ट स्टेन स्वामी का न्यायायिक सहायता लेने से मना किया जाना था, जबकि जेल में बंद तेलुगु कवि, वरवारा राव को बॉम्बे हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद ही राहत मिल पायी थी कि उनके तीन महीने पुराने कैथेटर को हटा दिया जाए। 81 वर्षीय यह तेलगू कवि पहले से ही मूत्र-नली के संक्रमण और मनोभ्रंश सहित कई ख़तरनाक बीमारियों से पीड़ित हैं। इस महामारी के दौरान जेल की सलाखों के पीछे रह रहे लोगों के लिए किसी तरह का कोई इंसाफ़ नहीं था।

वेबिनार

अन्य क्षेत्रों की तरह न्यायपालिका में भी वेबिनार का प्रसार हुआ और हमने देखा कि कई मौजूदा न्यायाधीश अपने विचार हमारे साथ साझा करते हैं। विधि से जुड़े कई फ़र्मों ने भी ब्रांडेड वेबिनार आयोजित किए और आम लोगों के बीच भी क़ानूनी विचारों का प्रसार किया। क्या हम कह सकते हैं कि यह क़ानून के सार्वभौम होने का साल था?

अदालती काम-काज

कुछ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट को "कार्यकारी अदालत" के रूप में वर्णित किया, जबकि कुछ लोगों ने इसके कामकाज को "न्यायिक बर्बरता" बताया। मैं इस दौर का वर्णन "वैचारिक न्यायालय" के उद्भव के दौर के तौर पर करना पसंद करूंगी। हमने इंदिरा गांधी की "प्रतिबद्ध न्यायपालिका" के बारे में पढ़ा है, लेकिन यह मौजूदा दौर ही है, जिसमें हमने कुछ न्यायाधीशों को प्रधान मंत्री को अपने "नायक" के तौर पर घोषित करते हुए देखा और कुछ न्यायाधीशों ने तो उन्हें "सत्य की प्रतिमूर्ति" के तौर पर संदर्भित कर दिया। यह एक खुला प्रश्न है कि न्यायाधीश जो कुछ करते हैं, उसका वास्ता उनसे उम्मीद रखने वाली कार्यकारी सत्ता से किस हद तक है और उन कार्यों का कितना वास्ता कार्यकारी सत्ता के विचारों के साथ उनकी वैचारिक समरूपता के साथ है। इस मामले में कहा जा सकता है कि यह ख़ुद को लेकर एक बहुत ही सचेत न्यायालय है।

चुनावी बॉन्ड को दी गयी चुनौती की सुनवाई को स्थगित करने, धारा 370 के ख़ात्मे और नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) 2020  को लेकर बहुत ही सचेत फ़ैसले होने चाहिए। हालांकि न्यायाधीशों ने इन मामलों को अलग तरीक़े से देखा, हमारे पास एक ऐसा नया संविधान है, जो हमारी नाक के नीचे ही अपना आकार ले रहा है, जो मेरी पीढ़ी के वकीलों के लिए बिल्कुल अपरिचित है। जब न्यायाधीश निष्क्रिय स्थिति में दिख रहे थे, उसी दरम्यान हमने एक सूबे को ख़त्म होते हुए और केंद्रशासित प्रदेशों को जुड़ते हुए देखा और देश के हर कोने में हमने साज़िशों की बातें होती हुई पाईं। दिल्ली दंगे, शाहीन बाग़ का विरोध और अब किसानों का विरोध सबके सब "राष्ट्रविरोधी" तत्वों की तरफ़ से किए गए "साज़िश" ही तो थे ! कुख्यात भीमा कोरेगांव मामले में ज़्यादा से ज़्यादा कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को गिरफ़्तार कर लिया गया और सीखचों के भीतर उन्हें अमानवीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ा और बुनियादी सुविधाओं से उन्हें वंचित रखा गया।

हेट स्पीच(नफ़रती भाषण)

भारतीय न्यायशास्त्र में हेट स्पीच एक कानूनी श्रेणी के तौर पर सामने आया। अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ सांप्रदायिक रिपोर्टिंग के लिए सुदर्शन टीवी को चुनौती दी गई। कहा गया कि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं को अनुचित तरीक़ों से भरा गया है। दलील दी गयी कि हेट स्पीच का यह एक रूप था और इसे क़ाबू में रखने की ज़रूरत है।

हेट स्पीच एक बार फिर एक क़ानूनी श्रेणी के रूप में सामने तब आया, जब टेलीविज़न एंकर, अमीश देवगन पर सूफ़ी संत ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ मोइनुद्दीन चिश्ती के ख़िलाफ़ कथित अपमानजनक टिप्पणी के लिए दर्ज करायी गयी एक एफ़आईआर को दी गयी चुनौती को अदालत ने ख़ारिज करने से इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने शायद पहली बार इस हेट स्पीच के न्यायशास्त्र की व्याख्या की। हालांकि, यह एक स्वागत योग्य घटनाक्रम था, क्योंकि इस क़ानून का इस्तेमाल उन लोगों के ख़िलाफ़ किया जा सकता है, जो पहचान के आधार पर मानवाधिकारों का अभियान चलाते हैं। इसका एक उदाहरण यूपी सरकार की तरफ़ से लगाए गए उस आरोप में पाया जा सकता है कि दलितों को उच्च जाति के ख़िलाफ़ जातिगत घृणा के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है, यह उस न्यायशास्त्र की धारणा के बिल्कुल उलट है, जिसमें दलितों के ख़िलाफ़ अपमानजनक भाषा के रूप में हेट स्पीच को निरुपित करने के उद्देश्यों की बात की गई है।

हालांकि, त्रासदी यही है कि मुकदमा चलाने का विवेकाधिकार राज्य और उसकी एजेंसियों के हाथों में है और इसका इस्तेमाल पक्षपात तरीक़े से किया जाता है। हम देखते हैं कि राज्य अपने समर्थकों पर नहीं, बल्कि अपने आलोचकों पर मुकदमा चला रहा है। इससे हाथरस मामले में सामने आई उस ख़तरनाक स्थिति की तरह के हालात पैदा हो सकते हैं, जब केरल के पत्रकार सिद्दीक़ी कप्पन को सांप्रदायिक विद्वेष पैदा करने के प्रयास के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया था। ऐसा लगता है कि इस तरह के अभियोजन तभी लगाया जाता है, जब शासन चाहता है, लेकिन, यहाँ तो क़ानून के शासन का पूरा मज़ाक ही बना दिया गया।

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत को आत्महत्या के लिए कथित तौर पर उकसाए जाने को लेकर रिया चक्रवर्ती की तत्काल गिरफ़्तारी की मांग करते टेलीविज़न एंकरों के साथ ही अदालतों पर मीडिया रिपोर्टिंग अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई। अदालतों को अभी भी लंबित अदालती कार्यवाही पर रिपोर्टिंग की सीमा तय करनी है, ताकि निष्पक्ष पड़ताल में किसी तरह का कोई पक्षपात न हों।

सोशल मीडिया पोस्ट के चलते "धार्मिक समन्वयय बिगाड़ने" को लेकर मुकदमे चलाये गए। कम से कम मुंबई में तो हमने देखा कि न्यायाधीश ऐसे सभी मामलों में "कोई ठोस कार्रवाई" के आदेश देने के लिए तैयार नहीं थे। यह एक स्वागत योग्य घटनाक्रम था

स्वास्थ्य और दवाओं तक पहुँच

कोविड-19 के दरम्यान दवा,परीक्षण सुविधाओं और अस्पताल में भर्ती की उच्च लागत को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकायें दायर की गयीं। अदालत ने शुरू में एक आदेश पारित किया कि सभी अस्पतालों को उचित दरों पर सुविधाएँ देनी होंगी, लेकिन बाद में उस आदेश को  तब वापस ले लिया गया, जब निजी क्षेत्र से इस आदेश को चुनौती मिली, इसका एकमात्र मक़सद मुनाफ़ा है। दवाओं तक पहुँच को लेकर न्यायशास्त्र की ग़ैर-मौजूदगी दर्दनाक तौर पर स्पष्ट थी और इसे लेकर एक क़ानून बनाए जाने का एक बेहतरीन मौक़े को हाथ से जाने दिया गया।

वाईएस जगन मोहन रेड्डी की चिट्ठी

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री, जगन रेड्डी की तरफ़ से अदालत के एक वरिष्ठ न्यायाधीश पर गंभीर आरोप लगाते हुए भारत के उच्च न्यायाधीश(CJI) को लिखी गयी चिट्ठी को लेकर हुए विवाद का विषय हमेशा के लिए एक रहस्य बना रहेगा। सवाल है कि जगन मोहन रेड्डी के ख़िलाफ़ इस अवमानना को लेकर अदालत ने कार्रवाई की अवमानना क्यों नहीं माना गया? भारत के अटॉर्नी जनरल ने इस आधार पर सम्मति देने से इनकार कर दिया कि मामला भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास लंबित है। हमने इस पत्र को लेकर न्यायालय की तरफ़ से कोई प्रेस विज्ञप्ति या अदालत की अवमानना का नोटिस जारी होते नहीं देखा।

हम इस तथ्य पर ध्यान दिये बग़ैर भला कैसे रह सकते कि इस हमले का लक्ष्य भारत के होने वाले मुख्य न्यायाधीश थे। यह देखते हुए कि जगन रेड्डी और एनडीए सरकार के बीच के राजनीतिक सम्बन्ध अच्छे हैं, हम तो महज़ इस बात पर अटकलें ही लगा सकते हैं कि ऐसा तो नहीं कि उस चिट्ठी के लिखे जाने के पीछे मौजूदा सरकार का वह आशीर्वाद हासिल था कि सभी तरह की क़ानूनी कार्रवाई से बचा लिया जाएगा।

दूसरी ओर, कॉमेडियन कुणाल कामरा ने एक संस्था के तौर पर न्यायालय पर किए गए व्यंग्यात्मक टिप्पणी के लिए अदालत की अवमानना को  लेकर ख़ुद पर मुकदमा चलाने का आह्वान किया। 12 नवंबर, 2020 को कामरा ने 2018 के आत्महत्या के लिए उकसाये जाने के एक मामले में रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ़,अर्नब गोस्वामी को अंतरिम ज़मानत दिए जाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए कुछ ट्वीट पोस्ट किया। उन्होंने भाजपा के भगवा झंडे के साथ शीर्ष अदालत की तस्वीर भी पोस्ट की। हालांकि कई लोग उस विधा से असहमत हो सकते हैं, जिसमें उन्होंने ख़ुद को व्यक्त किया था, यह बहस का विषय है कि क्या हास्य भी अवमानना का विषय हो सकता है।

साल के आख़िर में पत्रकार नहीं, बल्कि वादी अर्नब गोस्वामी ख़ुद ही ख़बर बन गए। महाराष्ट्र पुलिस द्वारा उनकी गिरफ़्तारी और बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा ज़मानत के लिए उनकी अर्ज़ी की अस्वीकृति ने उस समय एक नाटकीय मोड़ ले लिया, जब न्यायमूर्ति डी.वाई.चंद्रचूड़ ने उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया। न्यायालय यह संकेत देता दिखा कि राज्य सरकार के विरोध के चलते अर्नब गोस्तामी अभियोजित किए जाने के निशाने पर थे और इस मायने में यह सत्ता की तरफ़ से उठाया गया एक दुर्भावनापूर्ण क़दम था। हालांकि ,इस फ़ैसले के मुनासिब और ग़ैर-मुनासिब होने पर लंबे समय तक बहस चलती रहेगी, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह फ़ैसला क़ानून को विकसित किए जाने की एक ऐसी कोशिश है कि बुरे इरादे किसी अभियोजन को निष्प्रभावी भी कर सकते हैं।

विरोध को लेकर

दिल्ली के शाहीन बाग़ में चल रहे विरोध प्रदर्शन के पूरी तरह ख़त्म हो जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय का उस मामले में फ़ैसले का आना ग़ैर-ज़रूरी था। अजीब बात है कि उस फ़ैसले में किसी औपनिवेशिक शासन के तहत चलने वाले विरोध को लोकतंत्र के तहत होने वाले विरोध से अलग बताने की कोशिश की गयी। किसी औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ इस तरह के विरोध को जायज़ ठहराते हुए लोकतंत्र के तहत इसकी सीमाएँ बतायी गयीं। मुझे लगता है कि हालात कितने उलट हो गये हैं, उस संविधान के तहत, जो शांतिपूर्क और बिना हथियारों के इकट्ठा होने के अधिकार की गारंटी देता है, आख़िर विरोध का यह अधिकार उस औपनिवेशिक शासन से किस तरह विपरीत था, जिसके तहत कोई मौलिक अधिकार तक नहीं था।

यह तुलना काफ़ी ग़लत तरीक़े से की गयी थी। विरोध का अधिकार है, क्योंकि विकास के मुद्दे पर या राजनीति में आगे बढ़ने के तरीकों पर हमेशा मतभेद होंगे। कोई भी संसद विरोध करने से रोके जाने का दावा सिर्फ़ इसलिए नहीं कर सकती कि संसद "लोगों की इच्छाओं" का प्रतिनिधित्व करती है।

दूसरी ओर, हमने भारत के मुख्य न्यायाधीश को यह कहते हुए सुना कि किसानों के विरोध प्रदर्शन के अधिकार पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है। विरोध के मुद्दे पर दृष्टिकोणों में आए इस फ़र्क़ की आख़िर वजह क्या हैं ? चूंकि इस मामले में कोई फ़ैसला नहीं है, इसलिए हम जो कुछ भी कहते हैं,वह अटकलों के दायरे में ही होगा। मौजूदा दौर के लिए तो हम कह सकते हैं कि भारत में एक से ज़्यादा सुप्रीम कोर्ट हैं।

सेवानिवृत्त न्यायाधीश

न्यायाधीशों के सेवानिवृत्ति के बाद किसी पद पर आसीन होने के मुद्दे ने न्यायपालिका को बार-बार परेशान किया है। जब न्यायपीठ के भीतर या बाहर रहते हुए न्यायाधीश पीएम पर टिप्पणी करते हैं कि वे एक असली "प्रतिभाशाली" व्यक्ति हैं, तो सवाल पैदा होता है कि क्या वे अपनी सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले पदों की तलाश में हैं ? पूर्व भारतीय मुख्य न्यायाधीश (CJI), रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया था, इससे उस संस्था की गरिमा को ठेस पहुँची, जहाँ वे पदास्थापित थे। अन्य, जिन्होंने अपने फ़ेसबुक वॉल पर प्रधान मंत्री के लिए वोट देने के लिए प्रचार किया था और उनसे अच्छी तरह जुड़े हुए थे,उन्हें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया। न्यायाधीशों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद के पद बनाने वाली क़ानूनों को न्यायपालिका की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिहाज़ से ख़त्म किया जाना चाहिए।

वहीं अन्य सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को मानवाधिकारों के समर्थन में बोलते हुए देखकर खुशी होती है; न्यायमूर्ति मदन लोकुर एक ऐसे ही शख़्स हैं, जो हमारे भीतर भविष्य की उम्मीद जगाते हैं।

हाई कोर्ट

इस बात को लेकर एक आम सहमति रही है कि हाई कोर्ट उम्मीद की किरण रहे हैं और ये अदालतें मानवाधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट से बेहतर प्रदर्शन करती रही हैं। हाई कोर्टों का रुख़ तब प्रवासी मुद्दे पर एकदम स्पष्ट था, जब हाई कोर्टों ने उनके लिए उचित परिवहन पर ज़ोर दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इस बात का विरोध किया गया, यहाँ तक कि कुछ न्यायाधीशों का कहना था, "अगर उन्हें खाना दिया जा रहा है, तो उन्हें खाने के लिए पैसों की ज़रूरत क्यों है?"

नागरिक स्वतंत्रता के मुद्दों पर भी हाई कोर्ट का रुख़ गंभीर रहा है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यूपी सरकार को निर्देश दिया कि डॉ कफ़ील ख़ान को प्रतिबंधात्मक निरोध से मुक्त कर दिया जाए, क्योंकि सीएए विरोध प्रदर्शन के दौरान दिए गए उनके भाषण में सार्वजनिक व्यवस्था को लेकर कोई ख़तरा नहीं था। हाईकोर्ट ने यूपी सरकार को यह निर्देश भी दिया था कि वह उन होर्डिंग्स को हटाए, जिन्हें सीएए के ख़िलाफ़ विरोध कर रहे लोगों को लखनऊ में सरेआम करने के लिए लगाए गए थे। हाई कोर्ट ने हाथरस मामले का भी स्वतः संज्ञान लिया था और परिवार की ग़ैर-मौजूदगी में रात के अंधेरे में बलात्कार पीड़िता के शव को निपटाने पर भी सवाल उठाया।

विरोध के मुद्दे पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के नज़रिये के इस फ़र्क़ की आख़िर वजह क्या हैं? इसके पीछे की वजह शायद यह हक़ीक़त है कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट तक आगे जाने की कोई संभावना नहीं दिखती है, या उनके लिए सेवानिवृत्ति के बाद के पद पर्याप्त नहीं हैं या फिर शायद वे लोगों से जुड़े मुद्दों के क़रीब हैं।

अगर अगले साल सब ठीक ठाक रहता है और कोई अधिक्रमण (supersession) नहीं होता है, तो हमें एक ऐसे नये मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस एनवी रमना मिलेंगे, जिनकी अपनी  ही कार्यशैली है। जिन मुख्य न्यायाधीशों को अभी तक हमने जाना है, सबकी अपनी-अपनी शैली है।

क्या कोई अच्छी भी थी ?

कोई शक नहीं कि कुछ फ़ैसले ऐसे भी थे, जिन्होंने परिवार के भीतर और परिवार के बाहर, दोनों ही तरह के महिलाओं के अधिकारों को प्रोत्साहन दिया।

एस.आर. बत्रा और एएनआर बनाम श्रीमती तरुणा बत्रा मामले में जस्टिस मार्कंडेय काटजू द्वारा दिए गए एक दशक पुराने फ़ैसले को पलटते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी महिला को इस हक़ीक़त के बावजूद उस साझे घर में रहने करने का हक़ है कि उसका पति उस संपत्ति का मालिक नहीं है। सास-ससुर के साझे घरों में रह रहीं संयुक्त परिवारों की महिलाओं ने इस आदेश के बाद अपने घरों में थोड़ा सुरक्षित महसूस किया।

उत्तराधिकार के सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय ने 11 अगस्त, 2020 को विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा मामले में फ़ैसला सुनाया कि 2005 के हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के तहत किसी महिला को समान रूप से हिस्सा मिलेगा, भले ही उस समय उसका पिता जीवित नहीं हों।

एक अन्य ऐतिहासिक फ़ैसले में अदालत ने कहा कि सशस्त्र बलों में महिलाएँ स्थायी कमीशन की हक़दार होंगी, ताकि उन्हें रोज़गार की सुरक्षा मिले (सचिव, रक्षा मंत्रालय बनाम बबीता पुनिया और ओआरएस)।

हैरानी की बात है कि ये सभी ऐतिहासिक फ़ैसले महिलाओं के मुद्दों को लेकर ही थे। क्या ऐसा इसलिए तो नहीं कि न्यायालय द्वारा उन्हें शायद पितृसुलभ तरीक़े से "सुरक्षित" मुद्दा माना जाता है ?

इन सभी का सबसे मशहूर फ़ैसला तूफ़ान सिंह मामले में जस्टिस रोहिंटन नरीमन द्वारा दिया गया था। मुद्दा यह था कि एनडीपीएस अधिनियम के तहत दी गई शक्तियों से लैस केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के अधिकारी पुलिस अधिकारी हैं या नहीं, हालांकि वे औपचारिक तौर पर पुलिस नहीं हैं, और क्या उनके लिए दिया गया कोई बयान साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत सबूत के रूप में स्वीकार्य है या नहीं। फ़ैसला यही था कि वे पुलिस अधिकारी थे और उनके लिए दिए गए बयान सुबूत के तौर पर स्वीकार्य नहीं हैं।  यह स्वतंत्रता की हिफ़ाज़त और अभियुक्तों के अधिकारों के लिहाज़ से एक बड़ा फ़ैसला है।

न्यायमूर्ति नरीमन का एक और स्वागत योग्य फ़ैसला यह था कि सीबीआई, ईडी और एनआईए जैसी सभी जांच एजेंसियों के दफ़्तरों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाए ताकि पुलिस की जवाबदेही तय हो सके। इस आदेश में इन कैमरों को सभी पुलिस स्टेशनों में कहाँ और कैसे लगाया जाना चाहिए, इस पर विस्तृत निर्देश दिये गये हैं। इसमें सभी प्रवेश और निकास बिंदु, मुख्य द्वार, लॉक-अप, गलियारे और लॉबी और रिसेप्शन के इलाक़े शामिल हैं। पीठ ने यह फ़ैसला भी दिया कि सीसीटीवी कैमरों की रिकॉर्डिंग उस किसी को भी उपलब्ध कराई जाए, जो हिरासत में यातना और मानवाधिकारों के उल्लंघन की शिकायत करता है।

असंवैधानिक विकासक्रम

यूपी सरकार ने शादी के उद्देश्य से कराए गए दूसरे धर्म में धर्मांतरण को अपराधी कृत्य ठहाराते हुए अध्यादेश पारित किया। एक ही झटके में इस अध्यादेश ने महिलाओं की स्वायत्तता और उनसे जुड़ी एजेंसियों को कमज़ोर करने के अलावा, विवाह करने के अधिकार और स्वतंत्र रूप से धर्म का पालन करने के अधिकार के दोहरे असंवैधानिक उल्लंघन को अंजाम दे दिया। जिस समय यह आलेख लिखा जा रहा है,उस समय इस अध्यादेश को चुनौती मिली हुई है और उम्मीद है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट इस अवसर पर उचित फ़ैसला देगी और इसे ख़त्म कर देगी।

कृषि क़ानून

ये क़ानून भी अध्यादेशों के ज़रिए ही लाए गए। ये क़ानून न सिर्फ़ किसानों के अधिकारों, बल्कि खाद्य सुरक्षा के हमारे अधिकार को भी ख़तरे में डालते हैं। कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं होगा, ख़रीद की कोई गारंटी नहीं होगी, इसका मतलब सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ख़ात्मा और बीपीएल श्रेणी में आने वाले लोगों के लिए कोई भोजन का इंतज़ाम नहीं होगा। ऐसा देश, जहाँ 2015 और 2020 के बीच कुपोषण कई गुना बढ़ गया है, वहाँ इसका मतलब तो यही है कि हमें किसी अकाल का इंतज़ार होगा। किसानों के इस विरोध ने खेती के मौलिक अधिकार की उस ज़रूरत को सामने ला दिया है, जिस विचार पर कभी संविधान सभा में चर्चा हुई थी। उस बहस को पुनर्जीवित करने का समय आ गया है।

बुरी ख़बर

पहले से ही परेशानी झेल रहे साल के अंत में हमने देखा कि किस तरह दिल्ली दंगों के मामले में अभियुक्तों के बचाव पक्ष के वक़ीलों की गिरफ्तारी हुई और उन्हें छापेमारी की आशंका का सामना करना पड़ा।

इसके अलावा, हाल ही में यूपी में "लव जिहाद" के एक मामले में एक वक़ील, मोहम्मद हाशिम अंसारी, जिन्होंने एक ऐसी महिला की मदद की थी, जो इस्लाम में धर्मांतरित होना चाहती थी, उन्होंने आरोप लगाया कि उन्हें यूपी पुलिस द्वारा परेशान किया गया और उनके 10 रिश्तेदारों को किसी अज्ञात स्थानों पर गिरफ़्तार कर लिया गया। बाद में उस महिला ने एक मुस्लिम लड़के से शादी कर ली। इससे क़ानूनी प्रतिनिधित्व के अधिकार का अंत हो सकता है।

आने वाले दिनों में क्या ?

ऐसा लगता है कि वर्चुअल सुनवाई 2021 में भी जारी रहेगी, कम से कम गर्मियों की छुट्टी तक तो जारी ही रहेगी, क्योंकि टीके की खोज के बावजूद यह महामारी कहीं नहीं जा रही। तब तक अगर अगले साल सब ठीक ठाक रहता है और वरीयता का कोई अधिक्रमण (supersession) नहीं होता है, तो हमें एक ऐसे नये मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस एनवी रमना मिलेंगे, जिनकी अपनी  ही कार्यशैली है। जिन मुख्य न्यायाधीशों को अभी तक हमने जाना है, सबकी अपनी-अपनी शैली है।

हाल की स्मृति में हमारे पास क़िस्म-क़िस्म के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं, कुछ तो पेंडिंग काम के लिहाज़ से कुछ भी नहीं कर पाने की बात करते हुए रोना रोते हैं, कुछ ख़ुद को मास्टर ऑफ़ द रोस्टर  घोषित करते हैं, कुछ ऐसे भी रहे हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्रियों का कोर्ट नंबर 1 में स्वागत किया है और कुछ को "रॉक स्टार" के तौर पर वर्णित किया गया।

सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों के लिए नौकरियों के नए रास्ते खुल सकते हैं और कौन जानता है कि जब उनके लिए नए रास्ते उपलब्ध होंगे, तब हम किसी सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायाधीश को भारत के राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के लिए चुनाव लड़ते पाएँ।

यह शायद एक अस्पष्ट-सा पूर्वानुमान है। लेकिन, इसके बावजूद मैंने हमेशा माना है कि एक स्वतंत्र न्यायपालिका की एकमात्र गारंटी एक स्वतंत्र वक़ालत है। आख़िर,कार्यपालिका को न्यायपालिका तक पहुँच बनाने के लिए इन वक़ीलों से होकर ही गुज़रने की ज़रूरत पड़ती है। 2021 का एजेंडा एक मज़बूत और स्वतंत्र वक़ालत का निर्माण होना चाहिए।

शायद नया साल हम सभी के लिए बेहतर ख़बरें लेकर आए।

(इंदिरा जयसिंह भारत के सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ वकील हैं और द लिफ़लेट की संस्थापक हैं।)

मूल रूप से लिफ़लेट में प्रकाशित

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
2020: The Year Covid-19 Left its Indelible Footprint on the Judicial Landscape

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