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2021-22 में आर्थिक बहाली सुस्त रही, आने वाले केंद्रीय बजट से क्या उम्मीदें रखें?

आइए एक नज़र डालते हैं कि आर्थिक बहाली के उपाय कहां तक सफल हुए हैं? क्या वे अर्थव्यवस्था को उच्च विकास पथ पर या कम से कम कोविड पूर्व स्तरों तक लाने के लिए पर्याप्त रहे?
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2020, जो महामारी का वर्ष थावो काफी असाधारण समय था। इसके तत्काल बाद आने वाला केंद्रीय बजट 2021-22 राहत और रिकवरी पर ध्यान केंद्रित करते हुए तत्काल संकट प्रबंधन बजट ही हो सकता था। वित्त मंत्री सुश्री निर्मला सीतारमण ने अर्थव्यवस्था की रिकवरी के उद्देश्य से बड़े सुधार उपायों की घोषणा की थी। इनमें शामिल थे– बड़े पैमाने पर कर छूट और एमएसएमईज़ को ऋण विस्तार के अलावा किसानों को आय सहायता और साथ ही समग्र मांग को प्रोत्साहित करने के लिए आत्मनिर्भर भारत के तहत गरीबों को मुफ्त अनाज योजना। ऐसे रिकवरी के उपाय कहां तक सफल हुए हैंक्या वे अर्थव्यवस्था को उच्च विकास पथ पर या कम से कम कोविड पूर्व स्तरों तक लाने के लिए पर्याप्त थे?

8% से अधिक के उच्च विकास पथ को तो भूल ही जाइएपुनरुद्धार अर्थव्यवस्था को विकास के पूर्व-कोविड स्तर पर तक भी वापस नहीं ला पाया। पहली तीन तिमाहियों के जीडीपी आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। बजट से एक दिन पहले पेश किए जाने वाले आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 में चौथी तिमाही समेत पूरे साल के आंकड़े उपलब्ध होंगे। यह सर्वेक्षण इस बात की पुष्टि करने को बाध्य है कि रिकवरी धीमी रही है।

आइए संक्षेप में विवरण देखें:

राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) के आंकड़ों के अनुसार भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 2020-21 में 7.3% घट गया। आईएमएफ ने 2021-22 के लिए सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 9.5% बने रहने का अनुमान लगाया। यदि आप पिछले वर्ष की नकारात्मक वृद्धि को समायोजित करते हैंतो 2021-22 में वास्तविक वृद्धि केवल 2.3% थी। इसे 'बेसलाइन इफेक्टकहा जाता हैयानी पिछले वर्ष में नकारात्मक वृद्धि के कारण 9.5% का उच्च आंकड़ा भ्रामक है। 2019-20 में विकास दर 4% थी। भले ही भारत आईएमएफ प्रोजेक्शन को हासिल कर लेता हैजो कि संदेहास्पद हैभारतीय अर्थव्यवस्था 2019-20 के विकास के स्तर तक नहीं पहुंच पाएगी। दूसरे शब्दों मेंमहामारी पूर्व स्तर को पार करने के लिए रिकवरी पर्याप्त जीवंत नहीं रही है, 8-9% की वास्तविक उच्च विकास दर तक पहुंचने की बात तो फिर हम छोड़ ही दें।

भारी प्रोत्साहन पैकेजों के बावजूद सुस्त रिकवरी

यह स्थिति मोदी सरकार द्वारा मौजूदा कंपनियों के लिए कॉर्पोरेट आय के 30% से 22% और नई कंपनियों के लिए 25% से 15% तक भारी कॉर्पोरेट कर कटौती की पेशकश के बावजूद थी। यह उन्होंने ट्रम्प और अमेरिकी निवेशकों को खुश करने के लिए 20 सितंबर 2019 कोमोदी के हाउडी मोदी मैडिसन मोमेंट’ से कुछ दिन पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के साथ किया था। इससे कॉरपोरेट टैक्स चुकाने वाले बड़े कॉरपोरेट्स को 1.45 लाख करोड़ का फायदा हुआ। इतनी ही सरकार को राजस्व हानि थी। 

सितंबर 2019 के इस विशाल बोनान्ज़ा से पहलेमोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में कॉरपोरेट्स का 4.3 लाख करोड़ का कर माफ कर दिया था। विकास प्रोत्साहन के नाम पर इस कुल 5.75 लाख करोड़ के उपहार के बावजूदकॉरपोरेट्स निवेश करने को तैयार नहीं थेक्योंकि विकास में गिरावट आ रही थी और कुल मांग नहीं बढ़ रही थी। स्वाभाविक रूप सेवर्ष 2019 केवल 4% की वृद्धि के साथ समाप्त हुआजो 'हिंदू विकास दरसे कुछ ही ऊपर था।

दूसरा, 2021-22 में सुस्त वृद्धि सुश्री निर्मला सीतारमण द्वारा 2020 में एमएसएमईज़ पर फोकस करने के बावजूद थी तथा बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा लेट डाउन’ के बाद व मई 2020 में 4.5 लाख करोड़ रुपये की आपातकालीन क्रेडिट लाइन गारंटी योजना (ईसीएलजीएस) की घोषणा के बावजूद थी। इसके तहत सरकार बीमार एमएसएमईज़ को पुनर्जीवित करने के लिए बैंकों को अतिरिक्त ऋण देने की गारंटी प्रदान करतीजो पहले से ही उधार ले चुके थे और बीमार पड़ने के कारण चुकाने में असमर्थ थे। लेकिन इस योजना की शुरुआत के साथ फिर लॉकडाउन हुआ और एमएसएमईज़ को और बीमार कर दिया तो उनके ऋण बैंकों के एनपीए (गैर-निष्पादित संपत्ति) में जुड़ गए। वैसे भी, 20 जनवरी 2022 तकइस योजना के तहत बीमार एमएसएमईज़ के लिए बैंकों द्वारा 2.9 लाख करोड़ रुपये के नए ऋण स्वीकृत किए गए थे। इस योजना ने 13.5 लाख एमएसएमईज़ और उनमें 1.5 करोड़ नौकरियों को बचाया। लेकिन आधे से ज्यादा एमएसएमईज़ अभी भी बीमार ही हैं।

इसलिएइससे प्रत्याशित विकास प्रभाव नहीं पड़ाक्योंकि लाभार्थी ज्यादातर मध्यम उद्योग थे न कि सूक्ष्म (micro) उद्योग जो लगभग 95% एमएसएमईज़ का निर्माण करते हैं। कोयंबटूर में कंप्रेसर इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष एम. रवींद्रन ने न्यूज़क्लिक को बताया, " अन्य मामलों में भी एमएसएमईज़ के खिलाफ लगातार पूर्वाग्रह बना हुआ है। जबकि बड़े कॉरपोरेट्स पर कर को घटाकर 25% कर दिया गया था, MSMEs बिना किसी तरजीही कमी के 25% कर का भुगतान करना जारी रखे हैंजबकि साझेदारी फर्मों पर 30% कर लगाया जाता है। नई MSME इकाइयों को 17% का भुगतान करना होता है जबकि नए कॉर्पोरेट्स को केवल 15% का भुगतान करना है। एमएसएमई संघ अपने उत्पादों के लिए समान कर कटौती और जीएसटी में कमी की मांग कर रहे हैं। विशेष रूप से यह कि सूक्ष्म इकाइयों द्वारा सभी खरीद/बिक्री पर 5% जीएसटी का एक फ्लैट रेट होना चाहिए। हम सुश्री निर्मला के 2022-23 के केंद्रीय बजट का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।

निम्न विकास दर बेरोज़गारी के संकट को बढ़ाता है

उच्च वृद्धि केवल प्रभावशाली संख्या की बात नहीं है। बेरोजगारी के विशाल बैकलॉग को साफ करने की तत्काल आवश्यकता है। रोजगार की तलाश में हर साल दस लाख नए युवा श्रम बल में शामिल होते हैं। इस प्रकार विकास और रोजगार का आपस में गहरा संबंध है। इसलिएबेरोजगारी संकट से निपटना बजट के समक्ष केंद्रीय नीतिगत चुनौती बन गया है।

बेरोजगारी महामारी का मुख्य सामाजिक-राजनीतिक परिणाम है। यह पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों में केंद्रीय चुनावी मुद्दे के रूप में भी उभर रहा हैजैसा कि लगभग सभी चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों द्वारा पुष्टि की गई है। मोदी के नेतृत्व में (जो जल्द ही मार्च में अपने कार्यकाल के आठ साल पूरे कर लेंगे) बेरोजगारी हमेशा से एक चिरस्थायी मुद्दा रहा है। लेकिन कोविड-पूर्व आर्थिक मंदी और कोविड-19 महामारी दोनों के कारणवर्तमान समय में इसने  भयावह आकार ग्रहण हासिल कर लिया है। नीचे संक्षेप में दिए गए  आंकड़ों पर विचार करेंजो हैरत में डाल देंगे।

गंभीर बेरोज़गारी के परिदृश्य पर डेटा का सारांश

भारत में रोजगार के आंकड़े मुख्य रूप से स्रोतों से उपलब्ध हैं। एक है रोजगार और बेरोजगारी पर सर्वेक्षण का पंचवर्षीय एनएसएसओ राउन्ड। दूसरा महत्वपूर्ण स्रोत है सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकोनॉमी (CMIE) द्वारा आयोजित बेरोजगारी पर मासिक सर्वेक्षण। हालांकि CMIE एक निजी फर्म हैयह एक विश्वसनीय एजेंसी है और इसके सर्वेक्षण और डेटा अच्छी गुणवत्ता के माने जाते हैं।

आइए देखें कि इन स्रोतों के डेटा कैसे अलार्म की घंटी बजा रहे हैं।

• 18 जनवरी 2022 को जारी सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसारदिसंबर 2021 तकभारत में 53 मिलियन लोग बेरोजगार थे। इनमें 17 मिलियन महिलाएं हैं।

• देश में दो संकट वर्षों में कुल नियोजित जनसंख्या 2019–20 में 408.9 मिलियन से घटकर 2021–22 में 406 मिलियन हो गई। यह स्थिति मुद्रा योजना के तहत बैंकों से 15 लाख करोड़ रुपये का ऋण आवंटित कर 28 करोड़ लोगों के लिए स्वरोजगार के सृजन के बावजूद है। और यह 2021-22 में मनरेगा के तहत 11.19 करोड़ व्यक्तियों के लिए प्रति व्यक्ति 52 दिनों का काम पैदा करने के बावजूद बेरोजगारी का स्तर हैजिसमें कुल आवंटन 2019-20 में 7.86 करोड़ कार्य दिवस के लिए 61,084 करोड़ रु के मुकाबले 1,11, 171 करोड़ रु था। 

• महामारी के कारण रोजगार में भारी कमी एक वैश्विक प्रवृत्ति है। 18 जनवरी 2022 को जारी ILO की वर्ल्ड इकोनॉमिक एंड सोशल आउटलुक-ट्रेंड्स 2022 रिपोर्ट के अनुसारइस साल वैश्विक स्तर पर कार्य किए गए कुल घंटे महामारी पूर्व स्तर से लगभग प्रतिशत नीचे रहेंगे। यह 52 मिलियन पूर्णकालिक नौकरियों के नुकसान के बराबर है। ILO की रिपोर्ट का अनुमान है कि वैश्विक बेरोजगारी 2022 में 207 मिलियन तक पहुंच जाएगीजबकि महामारी से पहले 2019 में यह 188 मिलियन थी। अगर हम भारत के लिए सीएमआईई डेटा के साथ इस आईएलओ डेटा की तुलना करते हैंतो इन 207 मिलियन में से 53 मिलियन भारत में होंगेजब देश 2022 में प्रवेश करेगाऔर आईएलओ का अनुमान है कि 2022 में बहुत अधिक रिकवरी नहीं होगी। इसका मतलब है कि लगभग एक-चौथाई वैश्विक बेरोजगार भारत में होंगे। ।

बेरोजगारी पूंजीवाद का एक सतत उपोत्पाद है। कार्ल मार्क्स के विश्लेषण मेंबेरोजगारी के माध्यम से पूंजीवाद श्रम बाजार में श्रम की एक आरक्षित सेना बनाए रखता है ताकि सस्ते श्रम की आपूर्ति सुनिश्चित हो सके। लेकिन भारत में इस गंभीर स्थिति में बेरोजगारी कोई आम बात नहीं है। यह कुछ असाधारण है क्योंकि इसमें कुछ चिंताजनक रुझान भी शामिल हैं। आइए इन पर एक नजर डालते हैं।

वर्किंग इंडिया नॉन वर्किंग इंडिया से छोटा है

महामारी से पहले 2019 में वैश्विक कार्य भागीदारी दर 58% थी। महामारी के आने के बाद, 2020 में यह घटकर 55% रह गया। इसकी तुलना में, 2019 में भारत की कार्यबल भागीदारी दर 43% थी और सीएमआईई ने इसे महामारी वर्ष 2020 के लिए 38% रखा। मार्च 2021 में यह बढ़कर 48.31 फीसदी हो गयालेकिन नवंबर 2021 में फिर से गिरकर 40.15% हो गया। रोजगार की वैश्विक दर तक पहुंचने के लिए भारत को अपने मौजूदा रोजगार स्तर, 406 मिलियन में 187.5 मिलियन लोगों को जोड़ना होगा। क्या मोदी इस चुनौती को स्वीकार कर पाएंगे?

यूथ जॉबलॉस दिमाग चकरा देने वाला है

जनवरी 2019 और जुलाई 2021 के बीच बेरोजगारी के सीएमआईई के आंकड़ों  को आधार बनाकर सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस (CEDA) ने दिखाया कि 2019-20 की तुलना में वर्ष 2020-21 में 15-19 वर्ष के युवाओं को रोजगार 42.4 प्रतिशत कम मिला। इसका मतलब है कि महामारी ने देश के 40% से अधिक युवाओं की नौकरी छीन ली। रिकवरी पूरी नहीं हुई है और कई तो अभी भी बिना नौकरी के हैं।

2019 की एनएसएसओ के रोजगार और बेरोजगारी रिपोर्ट से पता चला कि भारत में बेरोजगारी दर 45 वर्षों में सबसे अधिक थी। यह दर्शाता है कि 20 से 24 वर्ष आयु वर्ग के युवाओं में बेरोजगारी 34% थी और शहरी युवाओं में यह 37.5% (अधिक) थी। मोदी ने चुपके से उस रिपोर्ट के प्रकाशन पर रोक लगा दीलेकिन सच्चाई छिपाने से नहीं छिपती । सीएमआईई ने जल्द ही इस आंकड़े की पुष्टि करते हुए दिखाया कि भारत में 20-29 वर्ष आयु वर्ग के युवा बेरोजगार 2017 में 17.8 मिलियन की तुलना में अब 30.8 मिलियन थे।

मोदी सरकार उन श्रमिकों के लिए एक विश्वसनीय नौकरी हानि मुआवजा योजना लाने में बुरी तरह विफल रहीजिन्होंने नौकरी खो दी थी और उन बेरोजगार युवाओं के लिए एक सार्थक बेरोजगारी भत्ता भी देने में असक्षम रहीजिनके पास पहले से ही नौकरी नहीं थी। क्या सुश्री निर्मला का नया बजट विशिष्ट लक्षित नीतियों के साथ इस युवा रोजगार संकट को संबोधित करेगा?

संकट रोज़गार (distress employment) के लिए कृषि में शरण 

महामारी के कारण शहरी और ग्रामीण बेरोजगारी परिदृश्यों के बीच एक विचित्र बेमेल था। जबकि मुख्य रूप से शहरी विनिर्माण क्षेत्र (manufacturing sector) ने 2019-20 और दिसंबर 2021 के बीच 9.8 मिलियन नौकरियों को खो दियाइसके विपरीतकृषि 'श्रमिकों' (यानीकिसान और दिहाड़ी मजदूर दोनों) की संख्या में 7.4 मिलियन की वृद्धि हुई है। इस विरोधाभास की व्याख्या करना कठिन नहीं है। 2020 में करोड़ों प्रवासी कामगारों ने जीवित रहने के लिए अपने पैतृक गांवों की ओर प्रस्थान किया। ये सभी लॉकडाउन खत्म होने के बाद दिसंबर 2021 तक वापस नहीं आए। कम से कम 75 लाख अपनी आजीविका के लिए कृषि कार्य का सहारा लेकर गांवों में रह गए।

यह पहले से गंभीर कृषि संकट को और बढ़ाएगा। एक ही प्रकार के उपलब्ध कार्य करने वाले अधिक श्रमिकों का अर्थ होगा कम मजदूरी और प्रति व्यक्ति काम के दिनों की कम संख्या यानि कम आय और फिर कृषि कार्य भी एक अच्छी आय का माध्यम नहीं है।

नाबार्ड ने 2016-17 में एक अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेश सर्वेक्षण (All India Rural Financial Inclusion Survey) किया। एक सरकारी संस्थान द्वारा सर्वे के नतीजे चौंकाने वाले थे- खेती से एक खेतिहर परिवार की औसत आय केवल 3140 रुपये प्रति माह या 37,680 रुपये प्रति वर्ष थी। खेती से इस अल्प आय के बावजूदवे केवल इसलिए जीवित रहने में सक्षम थे क्योंकि वे इसके अलावा मजदूरी का भी सहारा लेते रहे थे। औसत खेती करने वाले परिवार की प्रति माह मजदूरी से आय 3025 रुपये या 36,200 रुपये प्रति वर्ष थी। यानी किसानों की लगभग आधी आय मजदूरी से आय हैजिसका अर्थ है कि आधे से अधिक भारतीय किसान गरीब किसान हैं। इससे पहलेग्रामीण क्षेत्रों से टिकाऊ उपभोक्ता वस्तु उद्योग (consumer durables industry) के उत्पादों की मांग शहरी क्षेत्रों की मांग से अधिक थी। यदि ग्रामीण आय प्रभावित होती हैतो यह स्वाभाविक रूप से औद्योगिक विकास को भी मंद कर देगा।

महामारी के बाद का भारत मुख्य रूप से एक अनौपचारिक भारत है

नवंबर 2021 मेंस्टेट बैंक ऑफ इंडिया रिसर्च विंग की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि गैर-कृषि अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 2011 में 54% से घटकर 2019-2020 में 12-15% हो गई। महामारी के बाद की वास्तविकताओं से इसकी पुष्टि नहीं होती है। वेतनभोगी लोगों का प्रतिशत 2019-2020 में 21.2 प्रतिशत से गिरकर 2021 में 19 प्रतिशत हो गया हैजिसका अर्थ है कि 9.5 मिलियन लोग वेतनभोगी स्थिति छोड़ कर बेरोजगार या अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा बन गए हैं। लेकिन कुल आंकड़ों पर लौटें तो अनौपचारिक क्षेत्र अपने आप में इतना सिकुड़ गया है कि- इसी अवधि में नियोजित आबादी 408.9 मिलियन लोगों से घटकर 406 मिलियन हो गई हैजबकि एक समय में लगभग 10 मिलियन युवा भारतीय हर साल रोज़गार बाजार में नए-नए प्रवेश कर रहे थे। 

अधिक अनौपचारिक नौकरियों का मतलब हैनौकरियों की गुणवत्तायानी उत्पादकता और आय भी दांव पर लगते हैं। श्रम ब्यूरो के अनुसार भारत में औपचारिक क्षेत्र के एक कर्मचारी का औसत वेतन 367 रुपये प्रति माह था। पर अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों का औसत वेतन 300 रुपये से बहुत कम हैजैसा कि श्रम मंत्रालय के ई-श्रम पोर्टल में पंजीकृत करोड़ अनौपचारिक श्रमिकों में से 92% के उल्लिखित आय स्तरों से देखा जा सकता है। न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने में मोदी सरकार की नीतिगत निष्क्रियता के कारण महामारी के बाद का भारत एक गरीब भारत है।

नरेंद्र मोदी की अब तक की सबसे बड़ी विफलता अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर रही है। उनकी सरकार अब तक 2020 और 2021 की महामारी और लॉकडाउन के नाम पर कम विकास और उच्च बेरोजगारी को उचित ठहरा सकती थीलेकिन 2022 में वही पुराना बहाना नहीं दोहरा सकती। सुश्री निर्मला को रोजगार बढ़ाने के लिए विशिष्ट नीतिगत उपायों की बात करनी चाहिए। इनमें सम्मिलित हैं:

1) मनरेगा का शहरी क्षेत्रों में भी विस्तार;

2) अधिक कर्मचारियों को काम पर रखने के लिए कॉरपोरेट्स को कर रियायत की पेशकश;

3) वस्त्र जैसे रोजगार प्रधान उद्योगों को प्रोत्साहन;

4) नए एमएसएमई उधारकर्ताओं के साथ-साथ और वर्षों के लिए इमर्जेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी स्कीम (ECLGS) जारी रखने के साथ-साथ सभी ऋण आवेदनों को मंजूरी देने के लिए बैंकों को एक निर्देश सहित ऋण का व्यापक विस्तार।

5) महिलाओं के लिए मुद्रा योजना का दूसरा संस्करण और शिक्षित लड़कियों को काम पर जाने या सुरक्षित रूप से पढ़ाई के लिए मुफ्त स्कूटी।

भारत में मेहनतकश लोगों को निर्मला सीतारमन के तीसरे बजट से इन सभी उपायों का बेसब्री से इंतजार है। देखना होगा कि क्या विपक्ष इन मांगों को पूरा करवाए बिना सरकार को बजट पास करने देगा।

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