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2021-22 की पहली तिमाही के जीडीपी आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश किये गए: आर्थिक झटके कार्यपद्धति पर प्रश्न खड़े कर रहे हैं 

विमुद्रीकरण के झटके ने संगठित क्षेत्र की तुलना में असंगठित क्षेत्र को कहीं अधिक प्रतिकूल तौर पर प्रभावित किया है।
GDP

डॉ. अरुण कुमार के अनुसार वार्षिक एवं त्रैमासिक जीडीपी के आंकड़ों का अनुमान लगाने में प्रणालीगत त्रुटियाँ हैं, खासकर तब जब अर्थव्यवस्था ही खुद झटके की मार को झेल रही हो। ऐसे दौर में पिछले वर्ष के अनुमानों का सहारा लेकर वार्षिक अनुमानों को चार तिमाहियों में विभाजित करने और उत्पादन लक्ष्यों का इस्तेमाल कर उसे ही हासिल कर लिया गया मान लेने से हम सही नतीजों तक नहीं पहुँच सकते हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने 2021-22 के लिए अपने विकास दर के अनुमानों को 9.5% पर बनाये रखा है जबकि विश्व बैंक ने इसे 8.3% पर ही बनाये रखा है। ये अनुमान केंद्र सरकार के 2021-22 की पहली तिमाही के लिए निर्धारित 20.1% के विकास पर आधारित हैं, जिसे 2020-21 की समान तिमाही के निचले आधार पर आधारित एक अभूतपूर्व विकास दर के तौर पर दर्शाया गया है, जिसमें 24.1% की भारी गिरावट देखने को मिली थी।

पिछले वर्ष की भारी गिरावट के बाद विकासदर में तीव्र बढ़ोत्तरी अर्थव्यवस्था के लिए कोई नई परिघटना नहीं है। 1999 से पहले तक त्रैमासिक की बजाय केवल वार्षिक आंकड़े ही उपलब्ध रहा करते थे। आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि आजादी के बाद से अर्थव्यवस्था में कई बार तेजी से उछाल देखने को मिला है: 1953-54 में (6.2%), 1958-59 (7.3%), 1967-68 (7.7%), 1975-76 (9.2%), 1980-81 (6.8%), 1988-89 (9.4%) और 2010-11 में (9.8%) की विकास दर देखी गई थी। 2011-12 के आधार संशोधन के बाद के आंकड़े विवादास्पद रहे हैं। उदाहरण के लिए, नई श्रृंखला में 2016-17 के लिए 8.3% की उच्च विकास दर को दर्शाया गया था, हालाँकि यह सर्वविदित है कि विमुद्रीकरण ने अर्थव्यवस्था को तबाहो-बर्बाद कर डाला था।

प्रणालीगत संबंधी समस्याएं 

यदि नई श्रृंखला में, 2011-12 को आधार वर्ष के रूप में उपयोग करते हुए 2016-17 के लिए उच्च विकास दर को दर्शाया गया है तो यह कार्य-प्रणाली सही नहीं है। इस बारे में 2015 के बाद से ही, इस श्रृंखला की घोषणा के बाद से ही व्यापक स्तर पर चर्चा की जा चुकी है। 2015 से कॉर्पोरेट मामलों के केंद्रीय मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गये आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है, जिसे एमसीए-21 डेटाबेस कहा जाता है। लेकिन इस बारे में पता चला है कि इस डेटाबेस में मौजूद कई कंपनियां शेल फर्म हैं और इनमें से कई को सरकार ने 2018 में बंद कर दिया था। इसके अलावा इसमें शामिल कई कंपनियां गायब पाई गईं।

एक और समस्या जिसकी शुरुआत विमुद्रीकरण के वर्ष से हुई थी, वह यह है कि असंगठित क्षेत्र के योगदान का आकलन, जो कि सकल घरेलू उत्पाद के 45% हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है, वह अपने आप में स्वतंत्र आंकड़ों पर आधारित नहीं है।

गैर-कृषि क्षेत्र के लिए आंकड़ों को प्रत्येक पांच वर्षों में सर्वेक्षण के दौरान इकट्ठा किया जाता है। इन वर्षों के बीच में, संगठित क्षेत्र को बड़े पैमाने पर प्रतिनिधि के तौर पर उपयोग में लाया जाता है और अतीत के सहारे अनुमानों को तैयार किया जाता है। लेकिन झटके के दौर वाली अर्थव्यवस्था में आकलन की ये दोनों विशेषताएं समस्या खड़ी कर देती हैं।

विमुद्रीकरण के झटके ने असंगठित क्षेत्र को संगठित क्षेत्र की तुलना में कहीं अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया था। इसलिए विमुद्रीकरण के पश्चात, कायदे से असंगठित क्षेत्र के योगदान को मापने के लिए संगठित क्षेत्र के आंकड़ों को प्रॉक्सी के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए था।इसके अलावा, झटके के चलते अतीत के अनुमानों के आधार पर भविष्य के लिए अनुमानों को पेश करना वैध प्रक्रिया नहीं कही जा सकती है। यह समस्या वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के कार्यान्वयन से और भी अधिक गहरा गई, जिसने एक बार फिर से असंगठित क्षेत्र को और प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने का काम किया था।

असंगठित क्षेत्र से मांग खिसककर संगठित क्षेत्र में स्थानांतरित होने लगी, जिसने स्थिति को और भी अधिक प्रतिकूल बना दिया। उदहारण के लिए, ई-कामर्स ने आस-पड़ोस की दुकानों को बुरी तरह से प्रभावित किया है और ओला-उबर जैसे टैक्सी समूहों ने स्थानीय टैक्सी स्टैंडों को विस्थापित कर दिया है।

इन झटकों के कारण, जीडीपी की गणना करने की पहले की प्रक्रिया अमान्य हो जाती है और इसमें बदलाव किये जाने की आवश्यकता थी। चूँकि ऐसा नहीं किया गया, इसलिए प्रभावी तौर पर जीडीपी के आंकड़ों को संगठित क्षेत्र और कृषि के आधार पर मापा जा रहा है, जो कि गलत तथ्यों पर आधारित हैं।

और इस प्रकार अर्थव्यवस्था के 31% हिस्से का आकलन नहीं किया जा रहा है और हर प्रकार से यह हिस्सा बढ़ने के बजाय घटता जा रहा है। इसलिए, 2016-17 के बाद से ही आधिकारिक तौर पर अनुमानित जीडीपी विकास दर की तुलना में वास्तविक विकास दर काफी कम है।

महामारी और लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था को सबसे बड़ा झटका पहुंचाया है।लेकिन इसमें भी असंगठित क्षेत्र की तुलना में संगठित क्षेत्र पर इसका प्रभाव काफी कम पड़ा है। विमुद्रीकरण या जीएसटी के कारण दोनों क्षेत्रों के बीच का विभाजन कहीं विशाल पैमाने पर हुआ है। इसलिए, जीडीपी की गणना की पद्धति को भी संशोधित करने की तत्काल आवश्यकता है। इसके साथ ही साथ अतीत के अनुमानों के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालने में कोई तुक नहीं है।

त्रैमासिक आंकड़ों के साथ समस्यायें 

त्रैमासिक जीडीपी की वृद्धि दर का अनुमान लगाते समय समस्या और भी अधिक बढ़ जाती है। इसमें उपयोग किये जाने वाले आंकड़े वार्षिक आंकड़ों की बनिस्बत ज्यादा आधे-अधूरे होते हैं। न सिर्फ असंगठित क्षेत्र के लिए अधिकांश आंकड़े अनुपलब्ध रहते हैं (कृषि को छोड़कर), बल्कि संगठित क्षेत्र के आंकड़े भी आंशिक होते हैं। उदहारण के लिए, व्यवसायों के लिए दिए पेश किये जाने वाले आंकड़े उन कंपनियों पर आधारित होते हैं जो उस तिहाही में अपने परिणामों को घोषित करती हैं। हजारों में से सिर्फ कुछ सौ कंपनियां ही हैं जो इस प्रकार के आंकड़ों की घोषणा करने में सक्षम रहती हैं।

इससे भी बदतर स्थिति यह है कि ये अनुमान क) पिछले साल की इसी तिमाही के अनुमानों पर आधारित हैं, ख) वहीँ कई मामलों में, अनुमानों को केवल तिमाही के लिए नहीं बल्कि पूरे साल भर के लिए किया जाता है, और फिर इसे एक तिमाही के लिए आंकड़े प्राप्त करने के लिए चार भागों में विभाजित कर दिया जाता है और ग) मामलों में जहाँ वास्तविक उत्पादन के आंकड़ों के बजाय लक्ष्यों को सकल घरेलू उत्पाद में योगदान का अनुमान लगाने के लिए उपयोग में लाया जाता है।

मछली पालन एवं जलीय कृषि, खनन एवं उत्खनन और अर्धशासी-कॉर्पोरेट एवं असंगठित क्षेत्र कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जो पहले समूह से संबंधित हैं। दूसरी श्रेणी में आने वाले कुछ क्षेत्रों में अन्य फसलें, प्रमुख पशुधन उत्पाद, अन्य पशुधन उत्पाद सहित जंगलात एवं लकड़ी का भंडारण शामिल है। पशुधन तीसरी श्रेणी के अंतर्गत आते हैं, जहाँ वार्षिक लक्ष्यों/अनुमानों को इस्तेमाल में लाया जाता है।

यह प्रक्रिया स्पष्ट रूप से अपर्याप्त है लेकिन संभवतः किसी सामान्य वर्ष के लिए इसे स्वीकार्य किया जा सकता है। लेकिन जब अर्थव्यवस्था पूरी तरह से झटके की स्थिति में हो, क्या इसका कोई मतलब रह जाता है? यदि पिछले वर्ष से आकलन लगाया जाता है तो इसमें बेहतर परिणाम दिखाने की पूरी-पूरी संभावना रहती है, क्योंकि अर्थव्यवस्था ने पिछले वर्ष बेहतर प्रदर्शन किया होता है। इसके अलावा, अनुमानों को कुछ संकेतकों पर आधारित होना चाहिए और लॉकडाउन की वजह से ये संकेतक आंशिक तौर पर ही उपलब्ध थे।

और अंत में, आखिरकार वार्षिक अनुमानों को कैसे तैयार किया जा सकता है और फिर तिमाही के अनुमान को हासिल करने के लिए उसे चार भागों में विभाजित किया जा सकता है, जब अर्थव्यवस्था एक तिमाही से दूसरी तिमाही के बीच में अत्यधिक परिवर्तनशील बनी हुई हो। 2020 में हम पाते हैं कि प्रत्येक तिहामी अपनी पिछली तिमाही से पूरी तरह से भिन्न थी।

और फिर, यदि 2020-21 के आंकड़े त्रुटिपूर्ण हैं जब अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आ गई थी, तो यह झटका 2021-22 में भी जारी रहेगा। ऐसे में 2020-21 से 2021-22 के अनुमानों को कैसे तैयार किया जा सकता है? इस प्रकार से, हम कह सकते हैं कि चालू वर्ष के लिए तिमाही के आंकड़े में भारी त्रुटियाँ होंगी। इन्हीं आंकड़ों को फिर 2022-23 के आंकड़ों के लिए इस्तेमाल में लिया जायेगा। इस प्रकार से अर्थव्यवस्था को लगा झटका कई वर्षों तक खुद ही चलता रहने वाला है।

अन्य स्थूल परिवर्तनीय कारकों पर प्रभाव 

सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्रों द्वारा खपत और निवेश जैसे अन्य स्थूल परिवर्तनीय कारकों के लिए भी तिमाही के आंकड़ों को प्रकाशित किया जाता है। सरकार से संबंधित आंकड़े बजट दस्तावेजों से तो उपलब्ध हो जाते हैं, लेकिन निजी क्षेत्र के आंकड़ों को हासिल कर पाना एक कठिन चुनौती बना हुआ है। ये अनुमान एक बार फिर से पिछले वर्ष के अनुमानों पर आधारित होते हैं, और कुछ मामलों में तो वार्षिक अनुमानों को विभिन्न तिमाहियों के बीच में विभाजित कर दिया जाता है। निजी क्षेत्र द्वारा उत्पादन के आंकड़ों का उपयोग खपत और निवेश का पूर्वानुमान लगाने में किया जाता है। ऐसे में यदि पहला वाला गलत है जैसा कि उपर इंगित किया गया है, तो फिर बाद के लिए भी किये गए अनुमान गलत होंगे।

संगठित क्षेत्र के बारे में आरबीआई के सर्वेक्षण से पता चलता है कि जनवरी 2021 में क्षमता उपयोग में 63% तक की गिरावट थी, लेकिन आधिकारिक तिमाही के आंकड़े इसमें 10% की गिरावट के बजाय 1.3%की वृद्धि को दर्शा रहे थे। इस प्रकार कहा जा सकता है कि त्रैमासिक आंकड़े संगठित क्षेत्र तक का प्रतिनिधित्व कर पाने में विफल हैं।

इसी प्रकार से, एक साल पहले तक के 105 उपभोक्ता संवेदी सूचकांक की तुलना में यह घटकर 55.5 तक रह गया, जिसका अर्थ है कि संगठित क्षेत्र की खपत भी महामारी-पूर्व के स्तर पर नहीं पहुँच पाई है। इन दोनों ही परिवर्तनीय कारकों को 2021-22 की पहली तिमाही में कोविड-19 की दूसरी लहर ने और भी अधिक प्रभावित किया है। इसका निहितार्थ यह है कि इन परिवर्तनीय कारकों के लिए उपलब्ध आंकड़े भी विश्वसनीय नहीं हैं।

यदि उत्पादन के आंकड़े पिछले साल के अनुमानों के उपयोग के कारण बढ़ा-चढ़ाकर अनुमानित हैं तो खपत और निवेश के आंकड़े भी अधिक अनुमानों पर आधारित होंगे। इसका अगला निहितार्थ यह है कि यदि 2020-21 के आंकड़े सही नहीं हैं तो 2021-22 की तिमाही के लिए पिछले साल से लिए गए अनुमानित आंकड़े भी त्रुटिपूर्ण और बढ़ा-चढ़ाकर अनुमानित किये गए होंगे।

2021-22 की पहली तिमाही के लिए स्थूल परिवर्तनीय कारकों का विश्लेषण 

फिलहाल के लिए आइये हम उपर इंगित की गई त्रुटियों को एक तरफ रखकर पहली तिमाही के आंकड़ों का विश्लेषण करते हैं। जब अर्थव्यवस्था पिछले वर्ष अपने ढलान पर थी, तो ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद के स्तर की तुलना करने के बजाय विकास दर की तुलना करना कम अक्लमंदी का परिचायक है।

2020-21 (-24.4%) के निचले आधार पर 2021-22 के लिए (+20.1%) की विकास दर देखने में बेहद प्रभावशाली नजर आती है। लेकिन यह 2019-20 की महामारी-पूर्व की पहली तिमाही की तुलना में 9.2% कम है, यानि अभी भी अर्थव्यवस्था महामारी-पूर्व के स्तर तक नहीं पहुँच पाई है।

इसके अलावा, यदि अर्थव्यवस्था महामारी-पूर्व की रफ्तार से बढ़ रही थी तो अर्थव्यवस्था को अगले दो वर्षों में 7.5% की रफ्तार से बढ़ जाना था। इस प्रकार, 2021-22 में जीडीपी के संभावित स्तर की तुलना में यह लगभग 16% कम पर बनी हुई है।

आंकड़े इस बात को दर्शाते हैं कि कृषि एवं उपयोगिता क्षेत्र को छोड़कर कोई भी अन्य क्षेत्र 2019-20 के स्तर तक नहीं पहुंचा सका है। निजी अंतिम उपभोग पर व्यय में 11.9% और सकल अचल पूंजी निर्माण क्षेत्र में 17.1% की कमी आई है। हाँ यह बात अवश्य है कि सरकारी खपत व्यय और निर्यात में 2019-20 के स्तर से वृद्धि हुई है। इसमें से पहला मांग में बढ़ोत्तरी लाकर अर्थव्यवस्था को गति देने में मदद पहुंचाता है लेकिन बाद वाले के साथ ऐसा नहीं है क्योंकि निर्यात की तुलना में आयात काफी उच्च स्तर पर बना हुआ है।

इसलिए, मांग के चार स्रोतों में से सिर्फ सरकारी खर्च में ही बढ़ोत्तरी हुई है -लेकिन यह बाकी तीन क्षेत्र में आई गिरावट की भरपाई कर पाने के लिए यह पर्याप्त नहीं है और यही कारण है कि 2019-20 की तुलना में अर्थव्यवस्था अभी भी नीचे चल रही है।

इस पर यह तर्क भी दिया जा सकता है कि समय के साथ-साथ आंकड़ों में संशोधन संभव है, क्योंकि तब तक और भी आंकड़े उपलब्ध हो जायेंगे। किंतु फिलहाल की स्थिति महामारी की वजह से असामान्य है। ऐसे में आंकड़ों की कमी और सभी तिमाहियों और वर्षों में परिणामी गैर-तुलनात्मकता के चलते, इसके स्वंय की कार्यप्रणाली में ही एक बड़े संशोधन की आवश्यकता आन पड़ी है।

(डॉ. अरुण कुमार सामाजिक विज्ञान संस्थान, मैल्कम आदिसेशिय्या के चेयर प्रोफेसर हैं। व्यक्त किये विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल रूप से यह लेख द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

2021-22 Q1 GDP Data Overestimates: Economic Shocks Question Methodology

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