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2022: हिंदी रचना संसार पर सरसरी नज़र

साहित्य का दायरा बढ़ा है, और अब इसमें समाज, संस्कृति, राजनीति, आंदोलन से जुड़े मुद्दे और विषय भी शामिल हैं।
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हिंदी साहित्य जगत के लिए बीता साल (2022) विविधतापूर्ण रहा। साहित्य का दायरा बढ़ा है, और अब इसमें समाज, संस्कृति, राजनीति, आंदोलन से जुड़े मुद्दे और विषय भी शामिल हैं। अगर ‘एक कप चाय’ साहित्य है (जो कि वह है), तो ‘परिवारनामा’ और ‘शाहीन बाग़ः लोकतंत्र की नयी करवट’ भी साहित्य है। पत्रिकाओं में और किताबों की शक्ल में रचनाएं आयी हैं।

जितना मैं देख-पढ़ पाया, उनमें से कुछ पर सरसरी निगाह डालने की कोशिश कर रहा हूं।

कहानीकार और उपन्यासकार किरण सिंह की लंबी कहानी ‘एक कप चाय’ 2022 के हिंदी कथा जगत की उल्लेखनीय उपलब्धि है। यह विशिष्ट, महत्वपूर्ण कहानी ‘पल प्रतिपल’ पत्रिका के अंक 88-89 (जून 2022) में छपी है। यह कहानी भारतीय समाज व राजनीति के उस अधःपतन की शिनाख़्त करती है, जहां एक कश्मीरी मुसलमान नौजवान को सिर्फ़ इसलिए फांसी पर चढ़ा दिया जाता है कि ‘देश की सामूहिक चेतना यही चाहती है’, और उसकी आख़िरी ख़्वाहिश (एक कप चाय) पूरी भी नहीं की जाती।

मुफ़ज़्ज़ल और उसकी दोस्त मेहर ख़ान के माध्यम से कही गयी इस कहानी ‘एक कप चाय’ की कई परतें हैं और इसकी एक सीधी-सरल व्याख्या नहीं हो सकती। किरण सिंह की यह कहानी गहरे विश्लेषण की मांग करती है। मंजे हुए, गहन शिल्प में लिखी गयी इस कहानी में भारतीय राजनीति की, ख़ासकर जेल जीवन की, क्रूर छवियां—और प्रतिरोधमूलक छवियां भी—झिलमिलाती हैं। पाठक को विचलित कर देनेवाली कहानी है यह।

कम्युनिस्ट नेता जीता कौर (इंतकाल 2007) को याद करते हुए कवि, कहानीकार और वाम ऐक्टिविस्ट शोभा सिंह का लिखा ह्रदयस्पर्शी संस्मरण ध्यान देने लायक है। नवंबर 2022 में लिखे इस संस्मरण का शीर्षक है, ‘क्यों बार-बार याद आती हैं कॉमरेड जीता कौर’। इसे जीता कौर पर केंद्रित लेखों के एक संकलन में शामिल किया गया है।

जीता कौर को ‘मानवीय संवेदना और जन प्रतिबद्धता से भरपूर’ राजनीतिक नेता बताते हुए शोभा सिंह ने गहरी आत्मीयता और आलोचनात्मक दृष्टि से उनकी विचार यात्रा और संघर्ष यात्रा की पड़ताल की है। उनकी कुछ वैचारिक और व्यवहारगत असंगतियों पर भी टिप्पणी की गयी है। व्यक्ति पूजा से अलग हट कर लिखा गया यह पठनीय संस्मरण जीता कौर को, और जिस माहौल में वह रहीं उसको, समझने में हमारी मदद करता है, और जीता के महत्व को रेखांकित करता है। कम्युनिस्ट नेताओं और कार्यकर्ताओं के बारे में, जो अब हमारे बीच नहीं रहे और जिन्हें कुछ समय के बाद आम तौर पर भुला दिया जाता है, ऐसे संस्मरण ज़्यादा-से-ज़्यादा लिखे जाने चाहिए। कैंसर की वजह से अपेक्षाकृत कम उम्र में जीता कौर का गुज़र जाना हम सब के लिए सदमा-जैसा था।

लेखक और कलाकार शैहला हाशमी ग्रेवाल की किताब ‘परिवारनामा’ (गुलमोहर किताब) का उप शीर्षक हैः बटवारे से पहले और बाद की एक दास्तान। पहले तो इस बात के लिए शैहला हाशमी ग्रेवाल की तारीफ़ की जानी चाहिए कि उन्होंने यह किताब मूल रूप से हिंदी/हिंदुस्तानी ज़बान में, और हिंदी लिपि में, लिखी है। आज के दौर में यह ज़रूरी, मौंज़ू किताब है—जब देश की सत्तारूढ़ फ़ासिस्ट हिंदुत्ववादी ताक़तें नफ़रत, हिंसा और आतंक का खुला खेल खेल रही हैं, इस्लामोफ़ोबिया की राजनीति चला रही है, और देश को नये सिरे से बांटने की साज़िश रच रही हैं। ऐसे में इस किताब का महत्व और बढ़ जाता है।

‘परिवारनामा’ एक प्रकार से मौखिक इतिहास है। यह दिल्ली के एक परिवार (हाशमी परिवार) की दिलचस्प दास्तान है, जो 19वीं शताब्दी से शुरू होकर आज तक जारी है। इसमें हम दिल्ली की—और उसके माध्यम से उत्तर भारत की—सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक तस्वीर देख सकते हैं। परिवार की कहानी देश की कहानी बन जाती है। जानकारी के लिए बता दूं कि इस किताब की लेखक (दिवंगत) सफ़दर हाशमी की बहन हैं, और जन नाट्य मंच की संस्थापक सदस्य हैं।

लेखक और पत्रकार भाषा सिंह की किताब ‘शाहीन बाग़ः लोकतंत्र की नयी करवट’ (राजकमल प्रकाशन) नये भारत की खोज के लिए चलाये गये ज़बर्दस्त आंदोलन की महत्वपूर्ण, जीवंत गाथा है। यह बेहतरीन तरीक़े से—गहरी संवेदना, दृष्टि और लगाव के साथ—लिखा गया आख्यानमूलक इतिहास (narrative history) है।

शाहीन बाग़ आंदोलन पर आगे जब भी कुछ लिखा जायेगा, इस किताब की बार-बार ज़रूरत पड़ेगी। इस किताब ने शाहीन बाग़ आंदोलन को अदृश्य और विस्मृत होने से बचा लिया है। किसी भी जन आंदोलन का दस्तावेज़ीकरण—भाषा और शैली की रवानी और ज़िंदादिली के साथ—करना कितना ज़रूरी और ऐतिहासिक महत्व का काम है, यह इस किताब से पता चलता है। किताब बेहद दिलचस्प और पठनीय अंदाज़ में लिखी गयी है और ज़रा भी उबाऊ (boring) नहीं है।

मुस्लिम-विरोधी नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के ख़िलाफ़ दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाक़े में ख़ासकर मुस्लिम महिलाओं ने अपनी ख़ुद की अगुवाई में 15 दिसंबर 2019 को आंदोलन शुरू किया, जो 24 मार्च 2020 तक चला। यह आंदोलन देश के 20 राज्यों में फैल गया। इस आंदोलन ने मुस्लिम महिलाओं के घर-परिवार में, उनके अपने जीवन में, उनके व्यक्तित्व के रूपांतरण में, उनका राजनीतिकरण करने में कितना सकारात्मक असर डाला—इसे भाषा सिंह ने अपनी किताब ‘शाहीन बाग़ःलोकतंत्र की नयी करवट’ में बड़ी बारीकी से देखा-समेटा है।

‘पितृसत्ता चाहती है कि औरतें घर को याद रखें और अपने को भूल जायें। घर पितृसत्ता की सबसे मारक और क़ामयाब खोज है।’ घर-परिवार की औरत-दबाऊ भूमिका पर हमला करनेवाले ये तीखे वाक्य कवि-कहानीकार उषा राय की बढ़िया और नयी राह ढूंढती कहानी ‘डुप्लीकेट चाबी’ (‘हंस’, दिसंबर 2022) से लिये गये हैं। इसी को केंद्र में रखकर भूमि और क्षितिज (कहानी के किरदार) के आपसी संबंध और आगे चलकर इस संबंध में आये तनाव और जटिलता को ढंग से उषा राय ने व्यंजित किया है।

स्त्री-पुरुष संबंध में तनाव या जटिलता नया विषय नहीं है। लेकिन ‘डुप्लीकेट चाबी’ कहानी की ख़ास बात यह है कि इसकी मुख्य पात्र (भूमि) अपने को, अपने अस्तित्व को, अपनी स्वतंत्रता को फिर से ढूंढ रही है और एक झटके में नयी राह पर चलने का फ़ैसला करती है। कहानी एक सार्थक नोट पर ख़त्म होती है, और उसका असर देर तक बना रहता है।

रख़्शंदा जलील ने शायद पहली बार हिंदी में लिखने की कोशिश की है—उन्होंने पहली बार हिंदी में कहानी लिखी है। वह अंगरेज़ी की लेखक और साहित्यिक इतिहासकार हैं। उनकी पहली हिंदी कहानी ‘हंस’ पत्रिका ने दिसंबर 2022 अंक में छापी है। इसका शीर्षक है, ‘स्टॉकर’ (stalker: लुक-छिप कर पीछा करनेवाला/वाली)। रख़्शंदा जलील की यह कहानी अलग ढंग की है और कुछ-कुछ रहस्य का पुट लिये हुए है। अति-यथार्थवाद (suurealism) का असर भी इस पर दिखायी देता है।

लगभग अविश्वसनीय-सी परिस्थिति की कल्पना की गयी है। एक अधेड़ औरत है, शादीशुदा, दो बच्चों की मां, वह एक दफ़्तर में नौकरी करती है। एक व्यक्ति उसका हर जगह पीछा करता है—घर के बाहर, सड़क पर, दफ़्तर के बाहर, सब्ज़ी/परचून की दुकान पर। इसकी कोई वजह नहीं मालूम पड़ती। जहां भी वह जाती-आती है, वह अनाम व्यक्ति उसका पीछा करता दिखायी देता है। यहां तक कि उसके सपने में भी आता है। वह दूर चुपचाप खड़ा रहता है, नज़दीक नहीं आता, कोई नुकसान भी नहीं पहुंचाता। वह पहचान में नहीं आता, क्योंकि उसका आधार चेहरा फ़ेल्ट कैप से ढंका रहता है। महीनों-महीनों यह सिलसिला चलता है। औरत के दिल में उस व्यक्ति के लिए दिलचस्पी पैदा होने लगती है, और उधेड़बुन भी चलती रहती है। एक दिन अचानक पता चलता है कि वह नौजवान लड़का है—औरत के बेटे की उम्र के बराबर, जिसकी आंखों में ‘एक अजीब-सी नाउम्मीद, गूंगी, बेबस मोहब्बत थी’।

कवि अनुपम सिंह का पहला कविता संग्रह ‘मैंने गढ़ा है अपना पुरुष’ (राजमकल प्रकाशन) ताज़ा हवा के झोंके की तरह है। यह शीर्षक राजनीतिक ध्वनि लिये हुए है। संग्रह की ज़्यादातर कविताओं में औरत स्वतंत्र व्यक्ति और मुख्य कर्ता के रूप में सामने आती है, न कि वस्तु (object) के रूप में। कविताओं में औरत की स्वतंत्र यौनिकता की दावेदारी पुख़्ता ढंग से—और कलात्मक सुघड़ता के साथ—व्यक्त हुई है, जहां उसकी उद्याम यौन इच्छाएं अपने लिए लोकतांत्रिक स्पेस तलाश रही हैं। औरत के यौन अनुभव के सुख और आनंद को जितनी सहजता और सम्मान से, और बिना हिचक के, कविताओं में व्यक्त किया गया है, वह सराहनीय है।

अनुपम सिंह ने अपनी कविताओं में काले रंग (काली चमड़ी) से जुड़े दंश और अपमान बोध को भी बड़े तीखे ढंग से व्यक्त किया है। काली लड़की को कितने अपमान और लांछन से गुज़रना होता है, यह हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है, और इसे कवि ने बख़ूबी पकड़ा है।

कहानीकार विनीता परमार के पहले कहानी संग्रह ‘तलछट की बेटियां’ (रुद्रादित्य प्रकाशन) में 14 कहानियां हैं। यह संग्रह कहानीकार के रूप में विनीता परमार की संभावना को उजागर करता है। स्त्री लेख की सीमा और संकोच को लेखक ने लांघने की कोशिश की है। कहानियों में यौन प्रसंग, पानी, पौराणिक/मिथकीय चरित्र आते-जाते रहते हैं। कभी-कभी घालमेल-जैसा भी लगता है। ‘तलछट की बेटियां’, ‘पानी’ और ‘विसर्जन’ शीर्षक कहानियां हमारा ध्यान खींचती हैं। लेखक को अपनी लेखन दृष्टि और विचार दृष्टि को और सुसंगत बनाने की ज़रूरत है।

(लेखक कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार-विश्लेषण व्यक्तिगत है।)

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