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2022: कुछ और हिंदी किताबों पर नज़र

वरिष्ठ कवि-लेखक अजय सिंह ने बीते वर्ष छपीं कई महत्वपूर्ण किताबों पर संक्षेप में टिप्पणी की है, लेकिन यह उनकी सार-वस्तु को स्पष्ट रूप से हमारे सामने रखती है और पढ़ने की जिज्ञासा जगाती है।
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वर्ष 2022 में साहित्य और समाज चिंतन से जुड़ी कई किताबें हिंदी में छपीं। उनमें से कुछ और किताबों पर यहां निगाह डाली जा रही है।

अगर हम आदिम साम्यवाद से लेकर आधुनिक, वैज्ञानिक समाजवाद (मार्क्सवाद/कम्युनिज़्म) तक की विकास यात्रा और विचार यात्रा को जानना चाहते हैं, तो ‘मूसा से मार्क्स तक’ (गार्गी प्रकाशन, दिल्ली) एक ज़रूरी किताब है। कम्युनिस्ट नेता और लेखक सय्यद सिब्ते हसन (1916-1986) ने यह किताब उर्दू में लिखी थी, जो 1976 में कराची (पाकिस्तान) से छपी थी। (अब यह हिंदी में आयी है।) इसका मक़सद था, पाकिस्तान की जनता को समाजवाद के इतिहास से परिचित कराना। आदिम साम्यवादी समाज से शुरू करके किताब कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स पर ख़त्म होती है।

मूल उर्दू में लिखी इस किताब का हिंदी अनुवाद पेशे से डॉक्टर और साहित्यप्रेमी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता फ़िदा हुसैन ने किया है। अनुवाद पठनीय और दिलचस्प है। क़रीब 400 पेज की इस किताब का हिंदी अनुवाद करना आसान काम न था। फ़िदा हुसैन ने यह काम बख़ूबी किया है। किताब का दस्तावेज़ी महत्व है, ख़ासकर हिंदी-उर्दू पट्टी के लिए। किताब में ‘प्रजातंत्र’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है, जबकि इसे ‘लोकतंत्र’ होना चाहिए था।

पत्रकार और वामपंथी ट्रेड यूनियन व मानवाधिकार कार्यकर्ता विजय चावला की पुस्तिका ‘मज़दूर वर्ग के आर्थिक और राजनैतिक संघर्ष’ (जन मीडिया प्रकाशन, दिल्ली) की मुख्य चिंता यह है कि ‘मज़दूर अपनी वर्गीय चेतना खोता जा रहा है’ और वह ‘एक चेतन इकाई से असंगठित होते हुए एक भीड़ में परिवर्तित होता जा रहा है’। मज़दूर कैसे एक चेतन इकाई बने और लगभग समाप्तप्राय मज़दूर संगठन कैसे पुनर्जीवित हों, यह पुस्तिका इन सवालों पर चर्चा करती है। इस नाते यह उपयोगी है।

‘एक बनिहार का आत्मनिवेदन’ (1980) कहानी से चर्चा में आये कहानीकार सुरेश कांटक के नये कहानी संग्रह ‘अनावरण’ (सर्व भाषा ट्रस्ट, दिल्ली) में 15 कहानियां हैं। बिहार के भोजपुर/बक्सर इलाक़े का ग्रामीण परिवेश—ख़ासकर सामाजिक-राजनीतिक वर्गीय परिवेश—सुरेश कांटक की कहानियों का आम तौर पर आधारबिंदु रहा है। जिसे ग्रामीण सर्वहारा कहा जाता है—भूमिहीन किसान (खेतिहर मज़दूर) और अन्य ग़रीब-वंचित तबके—उसके नज़रिए से सुरेश कांटक ग्रामीण यथार्थ को देखते-परखते हैं। इस चेतना के पीछे निश्चय ही अतीत के भोजपुर क्रांतिकारी किसान आंदोलन का हाथ रहा है, और इसे कहानीकार ने व्यंजित भी किया है।

लेकिन, ऐसा लगता है, आज का ग्रामीण समाज जिस नये, जटिल यथार्थ और उसकी बहुस्तरीय संभावनाओं से रूबरू हो रहा है—उसे ये कहानियां नहीं पकड़ पा रही हैं। विषय/थीम का चुनाव, उसे बरतने का ढंग, भाषा व शिल्प—सबमें पुरानापन, पुराना रंग-ढंग दिखायी देता है। नया कथा प्रयोग नहीं मिलता। प्रेमचंद वाली सीधी-सपाट कहन शैली से काम नहीं चलने वाला।

कहानीकार और उपन्यासकार मदनमोहन का नया उपन्यास ‘आहत नाद’ (सेतु प्रकाशन, नोएडा, उ.प्र.) मौजूदा राजनीतिक ढांचे को, जो आतंक और हिंसा पर आधारित है, कठघरे में खड़ा करता है। यह सताये गये, आहत हुए लोगों के नाद/पुकार/विलाप को आक्रोश में बदलते हुए दिखाता है। उपन्यास की पृष्ठभूमि उत्तर प्रदेश का शहर गोरखपुर और उससे सटा ग्रामीण इलाक़ा है। इस माने में उपन्यास काफ़ी हद तक यथार्थपरक है।

इस उपन्यास के साथ बड़ी दिक़्क़त या वैचारिक समस्या यह है कि इसमें अन्याय के ख़िलाफ़ दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के संघर्ष का नेतृत्व ‘ऊंची’/सवर्ण जाति के व्यक्ति (शंभू तिवारी) के हाथ में दिखाया गया है। उपन्यास जिस तरह से आगे बढ़ता है, उसमें दलितों व अन्य पिछड़ी जातियों के प्रति सरपरस्ती का भाव (patronising tone) गूंजता रहता है। यह समझने की ज़रूरत है कि दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों की लड़ाइयां एक जैसी, एक तरह की नहीं हैं। उपन्यास का ताना-बाना पुराने ढंग का है, उसमें नयापन नहीं है।

‘आहत नाद’ पढ़ते समय मुझे अनायास ही किरण सिंह की बेहद मंजी हुई, पावरफ़ुल कहानी ‘यीशू की कीलें’ की याद आयी। यह कहानी डरावने राजनीतिक पतन की निर्मम शिनाख़्त करती है। काश, ‘आहत नाद’ भी ऐसा कर पाता! (जबकि इसकी पूरी संभावना थी।)

लेखक और ‘कथांतर’ पत्रिका के संपादक राणा प्रताप के गद्य संग्रह ‘यथार्थ के रंग’ (विकल्प प्रकाशन, दिल्ली) को ‘विचार कथा’ कहा गया है। यानी, ऐसी ‘कथाएं’ जिनमें कोई विचार या आइडिया हो, सूक्त वचन/आदर्श वचन हों, नैतिक उपदेश या प्रवचन हों। खलील जिब्रान-टाइप शैली में एक-एक पेज में लिखी गयीं ये ‘कथाएं’ कभी ईसप की कहानियों की याद दिलाती हैं, कभी पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियों की। ये ‘कथाएं’ उपदेशक की भूमिका में खड़ी हो जाती हैं—समाज को ‘सुधारने’ या उसे ‘सही दिशा’ में लाने के लिए। अब इसकी कितनी उपयोगिता है, कहना मुश्किल है। तथाकथित पवित्रता और तथाकथित सदाचार मनुष्य की फ़ितरत है ही नहीं। कुफ़्र हमेशा मनुष्य को अपनी ओर खींचता रहा है। किताब में भाषा/व्याकरण/स्पेलिंग की ग़लतियां कई हैं।

पंजाबी कहानीकार गुरमीत कड़ियालवी के कहानी संग्रह ‘वक़्त के पंख से बंधी वफ़ा’ (हंस प्रकाशन, दिल्ली) में दस कहानियां हैं। इन कहानियों का मूल पंजाबी से हिंदी अनुवाद लेखक-अनुवादक राजेंद्र तिवारी ने किया है। किताब की भूमिका हिंदी आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने लिखी है। उन्होंने दलित मूल के लेखक गुरमीत कड़ियालवी को ‘ग्लानिबोध का कथाकार’ कहा है। दलित कथा लेखन में नये मनुष्य के निर्माण की चिंता गुरमीत की कहानियों में झलकती है। ‘वक़्त के पंख से बंधी वफ़ा’, ‘अलविदा बिक्कर सिंह’ और ‘क़ीमत’ शीर्षक कहानियां मर्मस्पर्शी हैं। गुरमीत की कहानियों में कम्युनिस्ट संदर्भ भी आते हैं।

अगर हम हिमाचल प्रदेश की पांगी घाटी में रह रहे आदिवासियों के जीवन और समाज के बारे में जानना चाहते हैं, तो ‘इरावती’ पत्रिका के संपादक और लेखक राजेंद्र राजन का उपन्यास ‘मौन से संवाद’ (विजया बुक्स, दिल्ली) कुछ मदद कर सकता है। इसे ‘पांगी के जनजीवन पर पहला उपन्यास’ बताया गया है। शंपा, शरद, चमन, चंदू काका और नरमू- जैसे चरित्रों के माध्यम से पांगी घाटी के जनजीवन की दुश्वारियों का, और ख़ुद इन चरित्रों के व्यक्तित्व की जटिलताओं का, चित्रण किया गया है। इसमें लेखक को एक हद तक सफलता मिली है।

लेकिन राजेंद्र राजन स्त्री-पुरुष यौन संबंध, सहजीवन (लिव-इन) और विवाह को लेकर ख़ासे दुविधाग्रस्त—नैतिक संकटग्रस्त—दिखायी देते हैं। स्त्री-पुरुष यौन संबंध में नैतिकतावाद/शुद्धतावाद को जितनी जल्दी तिलांजलि दे दी जाये, उतना ही बेहतर। देहसुख को हिक़ारत की नज़र से क्यों देखा जाये! इस दृष्टि से यशपाल का उपन्यास ‘दादा कॉमरेड’ (1941) आज भी मील का पत्थर बना हुआ है।

इन किताबों के अलावा कुछ और किताबें हैं, जिन पर अगले अंक में मैं लिखूंगा।

इस साल (2023) कुछ नयी किताबें आनेवाली हैं, जिनके बारे में मैं बताना चाहूंगा।

कहानीकार रूपा सिंह का पहला कहानी संग्रह और कवि उषा राय, मुकुल सरल और विपिन चौधरी के नये कविता संग्रह इस साल आ रहे हैं। किरण सिंह का नया उपन्यास ‘महुआ डाबर’ आधार प्रकाशन से आने वाला है। इस उपन्यास का लंबे समय से इंतज़ार है। नाटककार राजेश कुमार का नया नाटक (‘द लास्ट सैल्यूट’) इस साल आयेगा।

इस बीच, नया साल शुरू होते-होते, लेखक-ऐक्टिविस्ट अंजली देशपांडे और नंदिता हक्सर की किताब ‘फ़ैक्टरी जापानी, प्रतिरोध हिंदुस्तानी’ मीडिया स्टडीज़ ग्रुप (दिल्ली) से छप कर आ गयी है। यह मानेसर (गुड़गांव) के मारुति सुजुकी मज़दूरों के संघर्ष पर केंद्रित है।

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