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‘Stop Killing Us’ अभियान के 50 दिन और ओमप्रकाश वाल्मीकि की याद

पचास दिनों में अभियान दिल्ली, उत्तराखंड, राजस्थान, हरियाणा, चंडीगढ़, तेलांगना, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, केरल से होता हुआ झारखण्ड पहुंच गया।
stop killing us

सफाई कर्मचारी आंदोलन के ‘Stop Killing Us’ यानी हमें मारना बंद करो अभियान के 29 जून 2022 को 50 दिन पूरे हो गए। इन पचास दिनों में अभियान दिल्ली, उत्तराखंड, राजस्थान, हरियाणा, चंडीगढ़, तेलांगना, आन्ध्र प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, केरल से होता हुआ झारखण्ड पहुँच गया। लेकिन ये अभियान अभी और अन्य राज्यों में जारी रहेगा। 75 वें दिन 24 जुलाई 2022 इसका समापन दिल्ली में होगा।

सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेज़वाडा विल्सन के निर्देशन में इस अभियान का एक उद्देश्य तो सीवर और सेप्टिक टैंक में सफाई करते समय हो रही सफाई कर्मचारियों की हत्याओं (मौतों) को रोकना है। दूसरा यह कि यह सत्ता में बैठे और प्रशासन के उन लोगों तक अपनी आव़ाज पहुँचाना है जो इन मौतों पर कोई संज्ञान नहीं लेते। उन्हें यह भी बताना है कि ऐसे खतरनाक कामों से सफाई कर्मचारियों की सुरक्षा कितनी जरूरी है ताकि वे उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करें। उनका गरिमामय पेशों में पुनर्वास कराएं। और मैला ढोने के नियोजन का प्रतिषेध तथा उनका पुर्नवास अधिनियम 2013 (M.S. Act 2013) को लागू करने और  सुप्रीम कोर्ट के 27-3-2014 के आदेश की पालना करें।

ग़ुलामी की ज़िंदगी जीते हुए कैसे मनाएं आज़ादी का जश्न

जिस समय देश में आजादी की 75वीं जयंती अमृत महोत्सव के रूप में  धूमधाम से मनायी जा रही है, उस समय भी देश के कई हिस्सों में महिलाएं शुष्क शौचालय साफ करने को मजबूर हैं। देश के कई राज्यों में आज भी ऐसे शौचालय हैं, जहां औरतों व पुरुषों को हाथ से मैला (टट्टी) उठाना पड़ता है। वे सुबह-सुबह टोकरी, टीना आदि लेकर घरों से मानव मल को इकट्ठा करती हैं और दूर जाकर फैंकतीं हैं। व्यवस्था ने इन्हें अपना गुलाम बना कर ये अमानवीय कार्य करने पर मजबूर कर दिया है। यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है। ऐसा करवाना मानव गरिमा के खिलाफ और मानवता पर कलंक तो है ही, गैर-कानूनी भी है। इसी प्रकार सीवर-सेप्टिक टैंकों में सफाई कर्मचारियों की हत्याएं (मौतें)  हो रही हैं। इन्हें रोकना बेहद जरूरी है।

इस आधुनिक युग में भी जातिवादी मानसिकता के कारण देश में मैला प्रथा जारी है। सीवर और सेप्टिक टैंक में लोग सफाई के नाम पर जान गवां रहे हैं। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री ने इस अमानवीय प्रथा  पर और सीवर-सेप्टिक टैंकों में  होने वाली मौतों  पर चुप्पी साध रखी है।

सिर्फ़ क़ानून बना देने से समस्या का समाधान नहीं होता

कहने को तो भारत सरकार ने सफाई कर्मचारियों के पुर्नवास और अमानवीय मैला प्रथा के उन्मूलन हेतु दो-दो कानून (1993 और 2013) बना रखे हैं। पर सिर्फ क़ानून बना देने से समस्या का समाधान नहीं होता। उसका सख्ती से कार्यान्वयन होना जरूरी होता है जो सरकार नहीं कर रही है। सरकार द्वारा उपेक्षा और राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव के कारण ही आज इक्कीसवीं सदी में भी यह अमानवीय प्रथा और सफाई कर्माचारियों की मौतों का सिलसिला जारी है। गौरतलब है कि देश का कानून (वर्ष 2013 का कानून), मैला उठवाने, सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई करवाने  को कानूनी तौर पर जुर्म मानता है और साफ-साफ कहता है कि ऐसा काम किसी भी भारतीय नागरिक से करवाना अपराध है और इसके लिए एक साल की जेल व 1 लाख रुपये का जुर्माना- दोनों का प्रावधान है।

पर दुखद है कि एक दो को अपवादस्वरूप सज़ा हुई हो तो हो वरना इस कानून के तहत दोषियों को दण्डित नहीं किया जाता, जैसे यह कोई अपराध ही न हो।

मैला प्रथा और दलित साहित्य की भूमिका

संसद में बनाए गए कानूनों का भले कार्यान्वयन न हो पर अघोषित सामाजिक कानूनों का पालन जरूर होता है। वे बाई-डिफ़ॉल्ट होते हैं। जैसे जाति हमारे ऊपर जन्म से थोप दी जाती है। जाति जन्म से जो एक बार जुड़ती है फिर वो मरने तक पीछा नहीं छोड़ती। और फिर जाति के हिसाब से हमारे पेशे निर्धारित हो जाते हैं। मानव मल ढोने जैसी अमानवीय मैला प्रथा हमारे पेशे के रूप में स्वतः जुड़ जाती है।

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसे समझा था और इस समुदाय को इन गंदे पेशों को छोड़ने को कहा था। उन्होंने तो गांवों को जाति के कारखाने बताते हुए गाँव छोड़ने को भी कहा था।

बाबा साहेब की विचारधारा से प्रेरणा लेकर दलित साहित्य रचा गया। इसमें हिंदी दलित साहित्यकारों में एक प्रख्यात नाम ओमप्रकाश वाल्मीकि का है। प्रसंगवश बता दें कि आज 30 जून को उनका जन्मदिन  है। “जूठन” उनकी चर्चित आत्मकथा है। जूठन में मैला ढोने की प्रथा का जीवंत चित्रण हुआ है।

मुझे याद है जब ओमप्रकाश वाल्मीकि ने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में “मैला प्रथा और दलित साहित्य की भूमिका” विषय पर अपना प्रभावी भाषण दिया था। जिस पर बहस हुई थी। ओमप्रकाश वाल्मीकि एक अच्छे वक्ता थे। दरअसल वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने कविता, कहानियां, नाटक, लेख आदि अनेक विधाओं में लिखा।

मैला प्रथा भी जाति व्यवस्था की देन है। इसलिए उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से निरंतर जाति प्रथा पर प्रहार किया है। वे अपनी पुस्तक “मुख्यधारा और दलित साहित्य” में लिखते हैं –“भारतीय समाज में जाति व्यवस्था मौजूद है, जो लगातार घृणा और द्वेष का विस्तार कर रही है। इस पर चर्चा करना क्यों जरूरी नहीं है? क्यों हिंदी जगत के विद्वान्, आलोचक, लेखक कन्नी काटते नजर आते हैं। और इस पर बात करना तुच्छता समझते हैं।”

जो लोग कहते हैं कि अब जाति कहां है उनको सटीक जवाब देते हुए वे इसी पुस्तक में लिखते हैं –“अनेक शिक्षा संस्थानों में आज भी दलित छात्रों के साथ भेदभाव पूर्ण रवैया अपनाया जाता है। परीक्षा में कम अंक देना, उनकी हीनता को बढ़ाना, प्रताड़ित करना, कार्यालयों में दलित कर्मचारियों, अधिकारियों के प्रति पूर्वाग्रही दृष्टिकोण अपनाना, उन्हें अयोग्य मानना, दलित डॉक्टर के  प्रति, संस्कारजन्य मानसिक पूर्वाग्रह रखना, किसी दलित को मकान किराये पर न देना, नौकरियों में उनकी गोपनीय रिपोर्ट खराब करना, स्कूलों में मिड डे मील के दौरान दलित बच्चो को अलग बिठाना, दलित स्त्रियों के हाथ का बना खाना खाने से इनकार करना, मंदिरों में प्रवेश न करने देना आदि ऐसे व्यवहार हैं जो इस समस्या की गंभीरता की ओर संकेत करते हैं।”

उनकी “अम्मा” कहानी मैला ढोने वालों के जीवन का आईना है।

ओमप्रकाश वाल्मीकि चूंकि खुद सफाई कर्मचारी समुदाय से थे इसलिए उन्होंने जाति प्रथा का दंश झेला था। उन्होंने इस समुदाय पर “सफाई देवता” नाम से एक शोधपरक पुस्तक लिखी।

अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे सफाई कर्मचारी आंदोलन से भी जुड़े और आन्दोलन की पत्रिका का संपादन करना चाहते थे। किन्तु असमय उनका निधन होने से यह हो न सका।

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर की संस्था, साहित्य चेतना मंच ने उनके नाम पर “ओमप्रकाश वाल्मीकि स्मृति साहित्य सम्मान” की शुरुआत 2020 की है।

...पर आवाज़ उठाना लाज़िम है

एक्शन-2022 के माध्यम से हम सफाई कर्मचारी अपने प्रति हो रहे अन्याय, अत्याचार, हमारी सुरक्षा के प्रति घोर उपेक्षा के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। सरकार पुलिस भेजकर हमारी आवाज दबाने की कोशिश करती है। जबकि हम अपने संवैधानिक अधिकार के तहत शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते हैं। सरकार तानाशाही रवैया अपनाती है। हमारी बात सुनने और समस्या का समाधान करने की बजाय उसे दबा देना चाहती है। क्या सीवर और सेप्टिक टैंको में मौतों से देश की छवि खराब नहीं होती? सरकार सीवर और सेप्टिक टैंको का मशीनीकरण क्यों नहीं कराती?

आजकल जिस तरह जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम पर नफरत की राजनीति की जा रही है। बुलडोजर से न्यायाधीश का काम लिया जा रहा है। सरकार के इस न्यू नॉर्मल दौर में हमारे प्रति संवेदनशीलता न दिखना कोई नई बात नहीं है। पर हम अपनी आव़ाज बुलंद करते रहेंगे। क्योंकि अपने हक़-अधिकार के लिए आवाज उठाना लाजिम है।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

इसे भी पढ़ें : हाथ से मैला ढोने की समस्या के समाधान के लिए सरकार को स्वतंत्र इकाई का गठन करना चाहिए : बेजवाड़ा विल्सन

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