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विलफुल डिफाल्टर्स के लोन राइट ऑफ : ये क़र्ज़ माफ़ी है या जनता की आंखों में धूल झोंकना!

बकायेदारों की इस सूची में टॉप पर है मेहुल चोकसी की घोटाले से प्रभावित कंपनी गीतांजलि जेम्स लिमिटेड। लेकिन इस सूची में रूचि सोया कंपनी का नाम सबसे अधिक चौंकाने वाला है। इसे कुछ ही महीने पहले पतंजलि ने खरीदा है।
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टॉप 50 विलफुल डिफाल्टर के 68,607 करोड़ रुपये के क़र्ज़ को बैंकों ने राइट ऑफ कर दिया है। बैंकिंग नियम -कानून में विलफुल डिफॉल्टर का मतलब होता है यानी ऐसे क़र्ज़दार जो क़र्ज़ चुकाने के हैसियत में थे लेकिन जानबूझकर अपना क़र्ज़ नहीं चुका रहे थे। अब अगर इन क़र्ज़दारों का क़र्ज़ राइट ऑफ कर दिया गया यानी बट्टा खाते में डाल दिया गया है तो इसका मतलब है कि इन क़र्ज़दारों से पैसा मांगना बैंकों ने छोड़ दिया है। बैंकों को नहीं लगता कि पैसे की वसूली हो पायेगी। इसलिए राइट ऑफ कर दिया है। यह जानकारी भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने सूचना के अधिकार के तहत दिए गए जवाब में दी है। इन टॉप 50 विलफुल डिफाल्टर में आईटी, बुनियादी ढांचे, बिजली, सोने-हीरे के आभूषण, फार्मा आदि सहित अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टर से जुड़े कारोबारी भी शामिल हैं।

आरटीआई कार्यकर्ता साकेत गोखले ने मीडिया में बताया कि उन्होंने यह आरटीआई इसलिए दायर की क्योंकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने 16 फरवरी को कांग्रेस सांसद राहुल गांधी द्वारा पूछे गए प्रश्न का जवाब संसद में देने से इनकार कर दिया था। उनकी इस आरटीआई का जवाब देकर आरबीआई के केंद्रीय जनसूचना अधिकारी अभय कुमार ने वह कर दिखाया जो सरकार ने नहीं किया। आरबीआई ने कहा कि 68,607 करोड़ रुपये की बकाया राशि 30 सितंबर, 2019 को बैंकों ने राइट ऑफ कर दिया।

राइट ऑफ करने का मतलब है कि अब बैंक इस क़र्ज़ को अपने बैलेंस शीट में नहीं दिखाएंगे। यानी बैंक इस क़र्ज़ को अपने उन खातों में नहीं दिखाएँगे जिसके जरिये कोई व्यक्ति बैंक की वित्तीय स्थिति का आकलन करता है।  

जानकारों का कहना है कि बैंकों को जब लगता है कि क़र्ज़ लौटकर आने वाला नहीं है और इसकी मौजूदगी से बैंकों की स्थिति खराब दिख रही है तो बैंक कोशिश करते हैं कि ऐसे क़र्ज़ को खाते से हटा दे। ताकि बैंक की स्थिति ठीक दिखे और बाज़ार में बैंक की साख कमजोर न हो।  

बकायेदारों की इस सूची में टॉप पर है मेहुल चोकसी की घोटाले से प्रभावित कंपनी गीतांजलि जेम्स लिमिटेड (5492 करोड़ रुपये की क़र्ज़दार), इसकी अन्य कंपनियों जैसे गिली इंडिया लिमिटेड और नक्षत्र ब्रांड्स लिमिटेड ने क्रमशः 1,447 करोड़ रुपये और 1,109 करोड़ रुपये का क़र्ज़ लिया था। इस श्रेणी में अन्य कंपनियों में कुडोस कीमी, पंजाब (2,326 करोड़ रुपये), बाबा रामदेव और बालकृष्ण की समूह कंपनी रूची सोया इंडस्ट्रीज लिमिटेड, इंदौर (2,212 करोड़ रुपये), और जूम डेवलपर्स प्राइवेट लिमिटेड, ग्वालियर (2,012 करोड़ रुपये) शामिल हैं। हरीश आर मेहता की अहमदाबाद स्थित फॉरएवर प्रेशियस ज्वैलरी एंड डायमंड्स प्राइवेट लिमिटेड (1962 करोड़ रुपये) और फरार शराब कारोबारी विजय माल्या की निष्क्रिय किंगफिशर एयरलाइंस लिमिटेड (1,943 करोड़ रुपये) जैसे कुछ प्रमुख नाम भी हैं।

आरटीआई कार्यकर्ता साकेत गोखले का कहना है कि खुलासे में आए इन नामों के बारे में पहले से ही अंदेशा था कि इनका क़र्ज़ राइट ऑफ कर दिया गया होगा। लेकिन रूचि सोया कंपनी का नाम सबसे अधिक चौंकाने वाला है। रूचि सोया कंपनी सोयाबीन का कारोबार करती थी। कुछ ही महीने पहले पतंजलि ने इस कंपनी को खरीदा है। तब से इस कम्पनी के शेयर प्राइस बढ़ते जा रहे हैं। तो इस तरह से कहीं न कहीं पतंजलि की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह बकाया क़र्ज़ को लौटा दे। इसके साथ साकेत गोखले यह भी कहते हैं कि इस लिस्ट को अगर आप बहुत ध्यान से देखेंगे तो समझेंगे कि अगर भारत सरकार चाहती तो इनसे पैसा वसूल कर सकती थी। इन्हें देश से बाहर भागने से रोक सकती थी।

चूँकि यह खबर कोरोना के समय आई है तो आगे चलकर बहुत सारे लोग ऐसा कह सकते हैं कि कोरोना की वजह से आर्थिक नुकसान हो रहा था, कंपनियां अपनी क़र्ज़ चुकाने में सक्षम नहीं थी, इसलिए कंपनियों के क़र्ज़ को राइट ऑफ कर दिया गया। लेकिन ऐसी बात नहीं है। पहली बात तो यह है कि  आरबीआई के मुताबिक क़र्ज़ को 30 सितम्बर 2019 को ही राइट ऑफ कर दिया गया था। दूसरी बात यह कि नॉर्मल डिफ़ॉल्टर और विलफुल डिफॉल्टर में अंतर होता है। कोरोना के दौरान बैंक जिन क़र्ज़ को आपदा मानकर राइट ऑफ करेंगे, वह नार्मल डिफाल्टर होंगे लेकिन विलफुल डिफाल्टर वे होते हैं जिनके बारे में बैंक से लेकर तमाम तरह की नियामक संस्थाएं यह मानती हैं कि ये लोग क़र्ज़ चुका सकते थे, लेकिन क़र्ज़ चुका नहीं रहे हैं। जानबूझकर क़र्ज़ नहीं लौटा रहे हैं। यानी इस खबर का कोरोना के संकट से कोई लेना देना नहीं है।  

मेहुल चौकसी और नीरव मोदी का पंजाब नेशनल घोटाले का खुलासा साल 2018 में हुआ था। केवल दो साल में ही यह मान लेना कि इनकी कंपनियां अपना पैसा नहीं चुका पाएंगी, यह बात हजम नहीं हो रही है। इस तथ्य की वजह से दो संभावनाएं बनती हैं। पहली यह है कि बैंक से लेकर तमाम तरह की वित्तीय नियामक संस्थाओं ने यह मान लिया है कि चाहे कुछ भी हो जाए ये कंपनियां अपना पैसा नहीं चुका पाएंगी, इसलिए इन्हें राइट ऑफ कर दिया जाए। दूसरा यह कि कहीं सरकारी दबाव तो नहीं बनाया गया कि इन कंपनियों के क़र्ज़ को राइट ऑफ़ कर दिया जाए।  

कुछ लोग यह पूछ रहे हैं कि सीबीआई, ईडी यानी इंफोर्स्मेंट डाइरेक्टोरेट जैसी संस्थाएं क़र्ज़दारों के यहां छापे भी मारती है, वह पैसा कहाँ जाता है? जैसे नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के दुकाने पर छापे मारने की ख़बर आती थी। ये पैसा कहाँ गया? इस पर जानकारों का कहना है कि विलफुल डिफॉल्टर से जुड़े मामलों के अध्ययन से यह बात निकल कर आयी है कि ऐसे मामलों में नेताओं, उद्योगपतियों और बैंकों के मैनेजरों का आपसी गठजोड़ बहुत मजबूत होता है। शो रूम्स, दुकानों और किसी भी तरह के कारोबारी जगहों की तालशी और वसूली के बाद पता चलता है कि सबकुछ बैंक के क़र्ज़ पर ही खड़ा है। यानी बैंक के पैसे से ही शोरूम खोला गया है। बैंक से ही दुकानें खोली गयी हैं और बैंक के पैसे से विलासिता से भरे सारे काम किए जा रहे हैं। ऐसे में जो भी वसूली होती है उसका असली कीमत न के बराबर होती है।  

अब इस पूरी खबर को मोटे तौर पर समझते हैं। बैंकों में आम आदमी पैसा जमा करवाता है। उस पैसे का इस्तेमाल बैंक क़र्ज़ देने में करते हैं। अगर क़र्ज़ वापस लौटकर नहीं आया तो इसका मतलब है कि आम आदमी की गाढ़ी कमाई बर्बाद हो गयी। अभी हाल-फिलाहल बैंकों की स्थिति ऐसी है कि वे सामान्य बचत दर भी अपने ग्राहकों के लौटाने की स्थिति में नहीं है। ऐसे यह ख़बर आना कि विलफुल डिफॉल्टर का क़र्ज़ माफ़ कर दिया गया है। बैंकिंग व्यवस्था के जर्जर हालत को दिखाता है। बैंकिंग व्यवस्था की ऐसी कमज़ोरी पर देश से बाहर बैठा कोई भी व्यापारी यह सोच रहा होगा कि भारतीय बैंकों को आसानी से ठगा जा सकता है। 

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