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7 साल: कैसे कम हुआ “शूरवीर” का पराक्रम

आर्थिक और सामाजिक अव्यवस्था और बढ़ते संकट के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने सात साल का शासन पूरा कर लिया है।
7 साल: कैसे कम हुआ “शूरवीर” का पराक्रम

दो साल पहले, 30 मई, 2019 को नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी या भाजपा के फिर से लोकसभा चुनाव जीताने के बाद दूसरी बार प्रधान मंत्री के रूप में शपथ ली थी। उससे पांच साल पहले, वह आर्थिक समृद्धि, सामाजिक एकता और समावेशी विकास का वादा करते हुए 2014 के चुनावों में सत्ता पर काबिज़ हुए थे। उनके "अच्छे दिन", "सबका साथ, सबका विकास", "एक करोड़ नौकरियां" जैसे नारों ने बड़ी संख्या में लोगों की भावनाओं को आगोश में ले लिया था और उनकी पार्टी को एक शानदार जीत मिल गयी थी। वे मादकता से भरे दिन थे, सपने बहुत बड़े थे, बड़बोलेपन का नशा था, जोश हर तरफ़ उफ़न रहा था और कैमेरे के फ़्लेश हर तरफ़ चमक रहे थे और फ़ोटो लगातर खींचे जा रहे थे।

अब आज की बात करें तो आप पायेंगे कि भारतीयों का मोहभंग हो चुका है और उनका यक़ीन दरक चुका है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने समर्थकों का एक ऐसा समूह बनाया हुआ है, जिसे आम तौर पर "भक्त" के रूप में जाना जाता है और चाहे जो भी हो, ये भक्त उनके काम और उनके प्रति निष्ठा को लेकर समर्पित हैं। लेकिन, इस मनुहार का मुखौटा तेज़ी से इसलिए उतर रहा है, क्योंकि एक बदसूरत हक़ीक़त हर किसी के सामने है। यह इस बात का एक क्लासिक अध्ययन होगा कि कैसे इस देश पर शासन करने वाले प्रधान मंत्री और उनकी पार्टी ने दो घातक, बदनाम और अभिजात्य विचारधाराओं को जोड़ दिया और देश की अर्थव्यवस्था, सामाजिक ताने-बाने, इज़्ज़त, सबको धूल-धूसरित कर दिया।

बहुत सारे लोगों का मानना था लोकसभा में पर्याप्त बहुमत वाली सरकार और कई राज्यों में भी भाजपा की नियंत्रण में चल रही सरकारों के ज़रिये मोदी अच्छा प्रदर्शन करेंगे। 2019 का चुनाव भी इस बात की पुष्टि करता दिख रहा था, क्योंकि उन्होंने भाजपा को और भी बड़ी जीत दिला दी थी। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक़ पहली बार 2014 में बीजेपी और उसके सहयोगियों को क़रीब 38 फ़ीसदी वोट मिले थे, जो 2019 में बढ़कर 43 फ़ीसदी हो गये थे। हालांकि, इससे तो यही पता चलता है कि मतदान करने वालों में से ज़्यादातर लोग तब भी भाजपा के विरोध में थे, लेकिन 'सबसे ज़्यादा मत पाने वाले की जीत' वाली इस प्रणाली में भाजपा को भारी संख्या में सीटें मिली थीं। प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में इतना ज़्यादा मसर्थन होने के बावजूद सवाल है कि चूक आख़िर हुई कहां ?

अमीर और कट्टरपंथी प्रशंसकों का पक्ष लेना

मोदी के शासन की दो निर्धारित विशेषतायें दो विचारधाराओं से निकलती हैं, जिन्हें उन्होंने और उनकी पार्टी ने एक साथ मिलाने की कोशिश की है। पहला सिद्धांत तो वह नव-उदारवादी सिद्धांत है कि अर्थव्यवस्था तभी अच्छा काम करती है, जब सरकार कॉर्पोरेट क्षेत्र के 'पैसा बनाने वालों' को सुविधा देते हुए लोगों पर कम ख़र्च करती है और हस्तक्षेप भी कम से कम करती है। दूसरा सिद्धांत यह है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है, या फिर सिर्फ़ हिंदुओं का ही राष्ट्र है। यह अजीब लगता है कि ये दोनों सिद्धांत साथ-साथ चले, लेकिन, शासकों के पास अपने शासन को स्थापित करने और बनाये रखने के विचित्र तरीक़े भी तो होते हैं।

संयोग से तीसरी दुनिया के कई देशों में व्यापक तबाही मचाने और उन्नत देशों में भी ग़ैर-बराबरी में भारी बढ़ोत्तरी करने वाली इस आर्थिक नीति की शुरुआत मोदी ने नहीं की है। यह पिछली सरकारों द्वारा लायी गयी थी। लेकिन, मोदी ने इसे टर्बो-चार्ज से लैस ज़रूर किया है और इसे उस चरम तक ले गये हैं, जो हैरान करता है।

हिंदुत्व की सामाजिक-सांस्कृतिक विचारधारा उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से आयी है, जिसके मोदी और उनके कई मंत्री लंबे समय से जुड़े हुए हैं। इसमें हिंदू 'नस्ल' या 'राष्ट्र' के महिमामंडन का आह्वान, इस्लाम जैसे 'विदेशी' धर्मों का कब्ज़ा या उससे हार का डर, और बदला लेने वाले सभी तरह के विचारों, हिंसा और अंधविश्वासों की हठधर्मिता शामिल थे। इस सिद्धांत ने एक अति-राष्ट्रवादी, देश की हिफ़ाज़त को लेकर जुझारू और साथ ही साथ विश्व नेता की बनायी गयी छवि या विश्व गुरु के रूप में भारत को आगे बढ़ाने वाले दृष्टिकोण को भी जन्म दिया। यही वह विचारधारा थी, जिसने जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए प्रेरित किया, जिसके चलते कट्टर राष्ट्रवाद की आवाज़ उठी और उस छद्म-राष्ट्रवाद को हवा मिली, जो सरकारी नीति के साथ घटता-बढ़ता रहता है।

यह विचारधारा अपने भीतर जाति के विभिन्न स्तरों वाले विचार और उसके औचित्य को एकसाथ जोड़कर चलती रही है। इसका नतीजा यह रहा है कि दलितों और आदिवासियों के ख़िलाफ़ भेदभाव और अत्याचार भी बढ़े और सामाजिक संघर्ष भी बढ़ा। सुरक्षा देने वाले क़ानूनों को कमज़ोर किये जाने पर मोदी सरकार की नीतियां शुरू में चुप रहने की रही है, या मवेशियों की तस्करी के नाम पर दलितों और आदिवासियों पर लगातार होते हमले, और इन तबकों के लिए छात्रवृत्ति जैसी ज़रूरी चीज़ों पर ख़र्च करने को लेकर अपनायी गयी कंजूसी ने इस छिपे हुए जातिवादी नज़रिये को सामने ला दिया है।

जहां आर्थिक विचारधारा ने देश के कॉर्पोरेट तबके (या उनके समर्थक बुद्धिजीवी और मीडिया में उनके पक्ष रखने वाले पत्रकारों) में ख़ुशी की लहर पैदा कर दी, वहीं आरएसएस वाली कट्टर विचारधारा ने सामाजिक हिंसा, दंगों, मॉब लिंचिंग, अल्पसंख्यकों की घेरेबंदी की, यहां तक कि इस तरह की गतिविधियों का रास्ता साफ़ करने के लिए राज्य मशीनरी का इस्तेमाल भी किया जाता रहा है। असल में यह सब लोगों को प्रबंधित करने वाली रणनीति का ही हिस्सा था, यानी लोगों को विभाजित करने और आर्थिक तबाही से ध्यान हटाने का यह सामाजिक हथियार था।

किस तरह तबाह हुई अर्थव्यवस्था

पिछले सात सालों में मोदी सरकार ने बड़े-बड़े अमीरों को फ़ायदा पहुंचाने के लिए भारत के श्रमिक वर्गों के शोषण के लिए एक क्रूर तंत्र स्थापित कर दिया है। 2016 में नोटबंदी और 2017 में वस्तु और सेवा कर (जीएसटी), निजी ख़रीदारों को सार्वजनिक क्षेत्र की औद्योगिक संपत्तियों की ताबड़तोड़ बिक्री, कोयला खदानों से लेकर रक्षा उत्पादन तक हर चीज़ में निवेश करने के लिए विदेशी पूंजी की स्वतंत्रता, कॉर्पोरेट संस्थाओं को दी गयी राहत और करों में मिली छूट (पिछले साल 6 लाख करोड़ रुपये की राशि), कॉर्पोरेट कर की दर में भारी कटौती, जिससे संभावित रूप से सरकारी राजस्व को 1.45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ, स्वास्थ्य सेवा से लेकर रेलवे तक के कई सार्वजनिक सेवाओं का निजीकरण जैसे इसके कुछ प्रमुख आर्थिक फ़ैसले इस नीति के कुछ उदाहरण हैं।

मानों इतना ही काफ़ी नहीं था। 2019 के चुनावों में अपनी जीत के बाद मोदी सरकार इतनी बेशर्म हो गयी कि वह कृषि के निगमीकरण के लिए अब कुख्यात काले क़ानून भी ले आयी और साथ ही साथ वे चार श्रम क़ानून भी ले आये, जो श्रमिकों को सुरक्षा देने वाले श्रम क़ानूनों को खत्म कर देते हैं और श्रमिकों को नियोक्ताओं की दया के हवाले कर देते हैं।

इन नीतियों के चलते मांग में गिरावट आयी, क्योंकि आम लोगों के हाथ में क्रय शक्ति बची नहीं थी, और चाहे जितनी भी छूट दे दी जाये, बड़े-बड़े अमीरों की तरफ़ से किये जा रहे ख़र्च के आधार पर पूरी अर्थव्यवस्था को नहीं चलाया जा सकता।

इसलिए, महामारी से पहले, यानी 2019 में ही अर्थव्यवस्था मंदी के हवाले हो गयी थी, बेरोज़गारी लगातार बढ़ती जा रही थी, आम मज़दूरों के पगार थम गये थे और खेतिहर मज़दूरों के मामले में मूल्य समायोजित शर्तों में भी गिरावट आ गयी थी। यह एक दुष्चक्र बन गया और वित्त मंत्रालय चलाने वाले अधिकारी सरकारी ख़र्च में कटौती करते हुए कॉर्पोरेट क्षेत्र को अधिक ढील देने जैसी ग़लतियां दोहराने के अलावा कोई दूसरा रास्ता सोच ही नहीं सकते थे। यह आग में घी डालने जैसा था।

इसके बाद महामारी और लॉकडाउन का दौर आया। इस देश (या दुनिया) में दशकों में आये संकंटों में इस बदतरीन संकट से निपटने में एक ग़लत और कुप्रबंधित नीति अख़्तियार की गयी, जिस चलते नीचे जाती अर्थव्यवस्था को और चोट पहुंची। सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में पिछले वित्त वर्ष में ऐतिहासिक 8% की गिरावट आयी और अप्रैल, 2020 में बेरोज़गारी 24% के अनसुने स्तर पर पहुंच गयी। इस समय देश में कोविड-19 की दूसरी लहर चल रही है और बेरोज़गारी दर फिर से दोहरे अंकों में होने की सूचना है। खपत में इसलिए गिरावट आ रही है, क्योंकि कमाई से वंचित परिवार अपना पेट भरने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

मोदी सरकार ने कॉरपोरेट सेक्टर की 'ज़िंदादिली' पर अपना भरोसा रखने की उसी पुरानी नीति को आगे बढ़ाना जारी रखे हुआ है, सरकार इस व्यर्थ उम्मीद में सस्ते क़र्ज़ और ज़्यादा रियायतों की पेशकश कर रही है कि कॉर्पोरेट सेक्टर निवेश करेगा और इससे ज़्यादा रोज़गार पैदा होंगे। मगर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अपनी नव-उदारवादी हठधर्मिता में क़ैद यह सरकार लोगों को आर्थिक सहायता देने पर उस ख़र्च को बढ़ाने से इनकार कर दिया है, जिससे कि मांग बढ़ जाती और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह होती कि अनकही परेशानियों में कमी आती। सरकार की वही पुरानी नीति इस सयम भी जारी है, जबकि दूसरी लहर में देश के ज़्यादातर हिस्सा अघोषित लॉकडाउन की ज़द में है।

लोकतंत्र और संस्थाओं की तबाही

मोदी के सात साल के शासन का कोई भी लेखा-जोखा लोकतांत्रिक संस्थाओं को हुए भारी नुकसान का ज़िक़्र किये बिना पूरा नहीं होगा। संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग आदि जैसी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल, विपक्ष की राज्य सरकारों में तोड़-फोड़, संस्थानों में आरएसएस से जुड़े लोगों को भरना, बिना किसी बहस के संसद के ज़रिये क़ानून को आगे बढ़ाना, राज्य सरकारों के कामकाज में असंवैधानिक रूप से हस्तक्षेप करने के लिए राज्यपालों का इस्तेमाल, राज्यों को अनिवार्य वित्तीय हस्तांतरण को रोकना, विरोध करने वालों को जेल में बंद करने, उन्हें परेशान करने के लिए ग़ैरक़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम या यूएपीए जैसे कठोर कानूनों का इस्तेमाल या शारीरिक रूप से हमले-इन तमाम तरह की गतिविधियों ने संविधान के दो स्तंभों-लोकतंत्र और संघवाद को कुचलकर रख दिया है। धर्मनिरपेक्षता पहले ही काफ़ूर कर दी गयी है, संविधान की आत्मा अब ख़तरे में है।

यह दृष्टिकोण ज़रूरत और अहंकार से पैदा हुआ है क्योंकि मोदी सरकार की नीतियों ने लोगों के बीच ग़ुस्से को बढ़ा दिया है और अहंकार के पीछे ज़ोर-शोर से रखे जाने वाली वह मान्यता है कि उन्हें लोगों का समर्थन हासिल है।

हालांकि, जैसा कि पिछले सात सालों में विरोध और हड़तालों के साथ-साथ राज्य सरकार के लिए होने वाले चुनावों के सामने आते परिणामों की श्रृंखला तो यही दर्शाती है कि मोदी की लोकप्रियता बहुत तेज़ी से घट रही है और महामारी से निपटने, ख़ास तौर पर टीकाकरण कार्यक्रम की नाकामी ने उनकी इस लोकप्रियता को काफ़ी नुकसान पहुंचाया है।

आने वाले दिनों में मोदी सरकार को पूरे देश में बढ़ रहे असंतोष का सामना करना पड़ेगा। शायद इसे लेकर भाजपा को अहसास भी है। यही वजह है कि उन्होंने सात साल के शासन के समारोह को "सेवा ही संगठन" के रूप में मनाया जाने का आह्वान किया है, जिसका अर्थ है कि सेवा के ज़रिये ही संगठन का निर्माण होता है। वे लोगों की मास्क और सैनिटाइज़र मुहैया कराने की 'सेवा' शुरू करने और रक्तदान शिविर आयोजित करने की योजना बना रहे हैं। दूसरे लोगों की तरह आपका संशय भी अपनी जगह सही है कि क्या यह 'सेवा' भाजपा को बचाने में मददगार साबित हो पायेगी ?

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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