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71 प्रतिशत भारतीय को नहीं नसीब होता संपूर्ण पोषण: रिपोर्ट

विश्व पर्यावरण दिवस के दिन जारी सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट यानी सीएसई और डाउन टू अर्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट में डरा देने वाले आंकड़े सामने आए हैं।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: PTI

बीते दिनों उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें पंजाब छोड़ सभी राज्यों में भाजपा ने जीत हासिल की। उत्तर प्रदेश में तो भाजपा ने इतिहास ही रच दिया। कहा गया कि भाजपा की इस जीत में प्रधानमंत्री राशन वितरण योजना का अहम रोल रहा है। यही नहीं, भारतीय जनता पार्टी समय-समय पर देश के हर राज्य में गरीबी दूर करने और मुफ्त राशन से मिलने वाले लाभों को गिनाने में पीछे नहीं हटती। लेकिन पिछले दिनों सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट यानी सीएसई और डाउन टू अर्थ पत्रिका की ओर से जारी एक रिपोर्ट ने भाजपा की राशन वितरण योजना और गरीबी खत्म करने जैसे दावों की पोल खोलकर रख दी।

रिपोर्ट में कहा गया कि संपूर्ण पोषण नहीं मिलने और इसके कारण वजन घटने से होने वाली बीमारियों की वजह से हर साल भारत में करीब 1.7 मिलियन से ज्यादा लोगों की मौत हो जाती है।  

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट यानी सीएसई और डाउन टू अर्थ पत्रिका की ओर से भारत में भूख से मरने वाले के ये आंकड़े विश्व पर्यावरण दिवस के दिन यानी 5 जून को जारी किए गए थे।

रिपोर्ट के मुताबिक शरीर के मुताबिक संपूर्ण पोषण नहीं मिलने के कारण वज़न कम होने लगता है, सांस संबंधी बीमारियां, मधुमेह, कैंसर, स्ट्रोक और हृदय संबंधी रोग होने की संभावनाएं बढ़ जाती है।

जबकि रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि एक मनुष्य को अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए यह फलों, सब्जियों, साबुत अनाज, मांस, रेड मीट और शर्करा युक्त पेय पदार्थों का इस्तेमाल करना चाहिए। ताकि किसी भी व्यक्ति का न तो वज़न कम हो न ही ज्यादा।

रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की 42 प्रतिशत आबादी स्वस्थ आहार का खर्च नहीं उठा सकती है- जबकि भारत के लिए यह आंकड़ा 71 प्रतिशत है। जिससे यह साफ होता है कि एक औसत भारतीय के आहार में पर्याप्त फल, सब्जियां, फलियां, नट और साबुत अनाज नहीं होते हैं। यही कारण है कि हर साल लोग अलग-अलग तरह की बीमारियों का शिकार होकर मर जाते हैं।

खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक, एक पौष्टिक आहार को एक भारतीय के खर्च की क्षमता के दायरे में नहीं रखा जा सकता, जब इसकी कीमत एक व्यक्ति की आय के 63 फीसदी से अधिक हो। भारत में 20 साल और इससे अधिक उम्र का वयस्क हर दिन मात्र 35.8 ग्राम फल खाता है जबकि रोजाना 200 ग्राम फल खाने की ज़रूरत होती है।

इसी तरह से वयस्क व्यक्ति को रोजाना कम से कम 300 ग्राम सब्जियां खानी चाहिए लेकिन वह मात्र 168.7 ग्राम ही खाता है। इसी तरह से वह हर दिन 24.9 ग्राम फलियां और 3.2 ग्राम मेवा खाता है जोकि रिपोर्ट में बताई गई मात्रा से बेहद कम है।

हालांकि रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वस्थ आहार के मामले में थोड़ी प्रगति हुई है, लेकिन आहार पौष्टिक नहीं हो पा रहा है। साथ ही देश में कुपोषण का भी अस्वीकार्य स्तर बना हुआ है। पौष्टिक आहार नहीं मिल पाने की स्थिति में यदि हम किसी काम को करने में विफल रहते हैं तो हमें इसकी अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी।

CSE और डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पिछले एक साल में उपभोक्ता खाद्य मूल्य सूचकांक में 327 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। इसी के कारण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में भी 84 प्रतिशत का उछाल आया है। भारत में अप्रैल महीने की खुदरा महंगाई दर 7.79 प्रतिशत रही है।

रिपोर्ट में बताया गया कि खाद्य मुद्रास्फीति का वर्तमान उच्च स्तर का कारण उत्पादन की बढ़ती लागत, अंतर्राष्ट्रीय फसल की कीमतों में बढ़ोत्तरी और अत्यधिक मौसम संबंधी व्यवधान हैं। वास्तव में, क्रिसिल डेटा के हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि मार्च-अप्रैल 2022 में शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य कीमतों में उच्च दर से वृद्धि हुई है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट यानी सीएसई और डाउन टू अर्थ पत्रिका की रिपोर्ट उन तमाम चीज़ों की पोल खोलती है, व्यक्ति की आय, उसके काम और उसे मिलने वाले भोजन से जोड़ कर देखा जा सकता है। रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि 71 प्रतिशत भारतीय अपने संपूर्ण पोषण वाले भोजन का इंतज़ाम नहीं कर सकता है। यानी इस अगर आप भीषण बेरोज़गारी से और काम करने वाले को उसकी मेहनकत से कम आय से जोड़कर देखेंगे तो ग़लत नहीं होगा।

आपको बता दें कि पिछले साल 2020 में जब कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन की घोषणा की गई तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में मुसहर समाज के लोगों को घास खाते हुए देखा गया। इस मामले में वाराणसी के दो पत्रकारों मे रिपोर्ट की, हालांकि बाद में उन्हें सरकारी नोटिस का सामना करना पड़ा और सरकार ने इस मामले को पूरी तरह से दबा दिया। कहने का अर्थ ये है कि जिन रुपयों से हमें खुद के लिए भरपेट खाने की ज़रूरत है, दरअसल सरकारें वहीं रुपया हमारी जेब में हाथ डालकर निकाल लेती है, फिर चाहे वो नोटबंदी के बहाने हो, जीएसटी के बहाने हो या फिर महंगाई के बहाने।

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