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आज़ादी के 75 साल, कब महिलाओं को मिलेगा राजनीति में 50 प्रतिशत आरक्षण का अधिकार?

समाज में पितृसत्ता का बोलबाला ऐसा है कि महिलाओं के सालों पुराने मुद्दे आज भी जस के तस बने हुए हैं। महिला हितैषी होने का दावा करने वाली सरकार आखिर आज़ादी के 75 वें साल में महिलाओं को आरक्षण बिल का तोहफा क्यों नहीं दे देती।
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देश आज़ादी के 75 साल का जश्न मना रहा है। सरकार की ओर से अमृतमहोत्सव और हर घर तिरंगा जैसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। लेकिन इन सबके बीच आज भी हमारे आज़ाद देश में महिलाओं की आज़ादी सवालों के घेरे में है। समाज में पितृसत्ता का बोलबाला ऐसा है कि महिलाओं के सालों पुराने मुद्दे आज भी जस के तस बने हुए हैं। हालांकि इस बीच कुछ उपलब्धियां भी औरतों ने हालिस की है, जो निश्चित तौर पर याद करने योग्य हैं। कुछ इसी मकसद के साथ राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में महिला संगठन नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वूमेन और स्त्रीकाल ने एक परिचर्चा का आयोजन किया, जिसमें हाशिए पर खड़े समुदाय और महिलाओं से जुड़े कई अहम विषयों पर राजनीति और सामाजिक क्षेत्र से जुड़े लोगों ने अपनी बात रखी।

बता दें कि इस साल 2022 में आज़ादी के 75 साल के साथ ही संसदीय लोकतंत्र में महिलाओं की भागीदारी और महिला वकीलों की अदालत में दस्तक के 100 साल भी पूरे हो रहे हैं। इसके अलावा नागपुर की ऐतिहासिक अखिल भारतीय दलित महिला कांफ्रेस के 80 साल भी पूरे होने को हैं। ऐसे में ये साल इन सभी विषयों को समाहित कर लोकतंत्र की इन तमाम उपलब्धियों को याद करने का भी साल है, जो हमारे पूर्वजों ने बड़े संघर्षों के बाद हमें सौंपा है। कार्यक्रम के वक्ताओं ने भी अपने संबोधन में इतिहास को याद करते हुए भविष्य की राह दिखाई। साथी ही स्त्रीकाल द्वारा पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम करने के लिए द मूकनायक की संपादक मीना कोतवाल को सम्मानित भी किया गया।

महिलाओं ने अब तक क्या हासिल किया?

बेशक महिलाओं के लिए आज भी जमीनी स्तर पर बहुत कुछ खास नहीं बदला लेकिन औरतों ने इन बीते सालों में संघर्ष की जो मशाल जलाई है, वो आज भी जल रही है। कार्यक्रम की वक्ता और हिंदी अकादमी की पूर्व अध्यक्ष मैत्री पुष्पा ने समाज से लेकर साहित्य तक महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव पर अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने बताया कि कैसे साहित्य आकादमी और हिंदी अकादमी में पुरुषों का वर्चस्व है, जो किसी महिला को वहां टिकने नहीं देता। मैत्री पुष्पा ने कहा कि स्त्रियों के लिए कहीं लोकतंत्र नहीं है, उनका कोई देश, कोई जात नहीं है, वो खुद एक अलग जात की है। मैत्री का लेखन, उनका साहित्य पितृसत्ता को और उन सभी पुरुषों को जवाब है, जो महिलाओं को खुद से कमतर समझते हैं। 

वर्तमान में दिल्ली सरकार के सामाजिक कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए। उन्होंने संत रविदास, संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर को याद करते हुए अपने संबोधन में महिलाओं के राजनीति में प्रतिनित्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि महिलाओं को घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर ग्राम परिषद और पंचायतों में तो अधिकार मिल गया है लेकिन विधानसभा और लोकसभा की राह अभी दूर है, जिसके लिए महिलाओं को खुद की ताकत पहचान कर खुद ही आगे आना होगा। राजेंद्र गौतम के मुताबिक अब समय आ गया है कि महिलाएं प्रधान पति, सरपंच पति से अपनी शक्तियां वापस लेकर अपनी कुर्सी की अहमियत को समझें। वर्तमान सरकार के पीछे छुपे आरएसएस के एजेंडे और गिरफ्तारी के डर से बाहर निकलकर अपने लिए अपना आसमान तलाशें।

महिला सांसदों ने एक स्वर में उठाई महिला आरक्षण बिल की मांग

इस कार्यक्रम में शामिल कांग्रेस की राज्यसभा सांसद रजनी पाटिल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सासंद फौजिया खान और वंदना चौहान ने एक स्वर में मोदी सरकार से संसद में महिलाओं के आरक्षण बिल को पास करवाने की मांग की। इस मौके पर सभी महिला सांसदों ने कहा कि कितना अच्छा होता अगर सरकार आजादी के 75 साल में महिलाओं को आरक्षण बिल का तोहफा दे देती। 2010 में राज्यसभा से पास इस बिल को लोकसभा में लटका दिया गया। तब से अब तक एक दशक से अधिक का समय बीत गया लेकिन ये बिल पार्टियों के मेनिफेस्टो और चुनावी वादों से निकलकर एक कानून नहीं बन पाया। 

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और पूर्व सांसद डी राजा ने भी इस समय मौजूद वर्गीय भेद, जाति भेद और पितृसत्ता द्वारा बनाए गए महिला पुरुष भेद पर अपनी बात रखते हुए सत्ताधारी बीजेपी पर आरोप लगाया कि ये पार्टी आरएसएस के कंट्रोल से चल रही है, जो पूरे देश में मनुस्मृति का राज लाना चाहती है। वहीं मनुस्मृति जिसे बाबा साहेब ने जलाया था, वही मनुस्मृति जिसमें आजीवन महिलाओं को पुरुषों के अधीन रहने की बात कही गई है। 

डी राजा ने राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने केे लिए महिलाओं को एकजुट होकर सरकार से अपने अधिकारों की मांग करने का आहवाहन किया। उन्होंने कहा कि महिलाएं खुद इतनी सशक्त हैं कि वो हक़ के लिए किसी से भी बिना डरे सड़कों पर उतर सकती हैं। महिलावादी आंदोलनों और संघर्षों को याद करते हुए डी राजा ने महिलाओं को अपने खिलाफ हो रहे भेदभाव और अत्याचारों के लिए खुलकर आवाज उठाने की बात कही।

सीपीआई नेता और महिला संगठन नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वूमेन की महासचिव ऐनी राजा ने महिलाओं के आंदोलन और उनकी उपलब्धियों पर बात करते हुए करते हुए नागपुर के ऐतिहासिक अखिल भारतीय दलित महिला कांफ्रेस को भी याद किया। ऐनी ने कहा कि महिलाओँ के लिए अलग पार्टी बनाना बहुत आसान है लेकिन इस देश की व्यवस्था में इसे जीवंत रखना मुश्किल है। उन्होंने कहा कि महिलाएं आज अपने अधिकारों को समझती हैं और इसलिए अब आधी आबाधी केवल 33 प्रतिशत नहीं राजनीति में 50 प्रतिशत की हिस्सेदारी मांग रही है।

ऐनी ने दिल्ली के जंतर मंतर पर चल रहे महिलाओं के प्रदर्शन की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा कि ये सभी औरतें देश के कोने-कोने से आकर अपने अधिकारों के लिए बीते कई दिनों से सड़कों पर बैठी हैं और इन सबकी प्रमुख मांग है कि महिलाओं को अब अपना 50 प्रतिशत आरक्षण चाहिए और ये सरकार से कोई भीख नहीं, अपना हक मांग रही हैं। 

न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों की जरूरत

गौरतलब है कि न्यायपालिका में लैंगिग समानता का मुद्दा बीते काफी समय से सुर्खियों में रहा है। बीते साल हीसुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार 3 महिलाओं का जस्टिस पद के लिए शपथ लेना ऐतिहासिक रहा। कई बार देश के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण और पूर्व चीफ जस्टिस शरद बोबडे ने भी महिला वकिलों की अदालतों तक पहुंच बढ़ाने की बात कही है, जिससे न्याय व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति में सुधार हो सके। आबादी में पुरुष और महिलाओं का अनुपात क़रीब 50-50 प्रतिशत है और यह उच्च न्यायिक व्यवस्था में भी दिखना चाहिए इसके लिए कई याचिकाएं भी दाखिल हुई हैं। लेकिन वास्तविकता में आज भी लोग इस पेशे को जेंडर से अलग करके नहीं देख पाते जिस कारण महिलाओं के लिए इस क्षेत्र में आना और अपनी जगह बनाना मुश्किल है। 

मालूम हो कि अब तक केवल आठ महिलाओं को भारतीय की सर्वोच्च अदालत में न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त किया गया था। 1989 में जस्टिस फ़ातिमा बीवी सर्वोच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनी थीं। मौजूदा समय में इन नई नियुक्तियों से पहले सुप्रीम कोर्ट के 34न्यायाधीशों में जस्टिस इंदिरा बनर्जी अकेली महिला थी। देश भर के 25 उच्च न्यायालयों में केवल एक तेलंगाना हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश के तौर पर महिला न्यायाधीश हिमा कोहली थीं, जो अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुकी हैं। इन उच्च न्यायालयों में कुल 661 न्यायाधीश हैं और इनमें लगभग 72 महिलाएँ हैं। मणिपुर, मेघालय, बिहार, त्रिपुरा और उत्तराखंड की उच्च न्यायालयों में कोई महिला न्यायाधीश नहीं हैं। 

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और संघर्ष

बात अगर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी की करें तो यहां महिलाओं के प्रतिनिधित्व बढ़ाने को लेकर सरकार का अबतक गोलमोल रवैया ही रहा है। इस समय देश को पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति मिली हैं, इस पहचान को बीजेपी ख़ूब भुनाने में लगी है। बीजेपी महिलाओं के लिए पार्टी और सरकार की तरफ़ से किए गए काम की लिस्ट गिनाने से नहीं थकती। फिर चाहे उज्ज्वला योजना का लाभ हो या फिर आवास योजना में घर महिलाओं के नाम करने की बात हो। आज बीजेपी अपने अकेले के दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार चला रही है। बावजूद इसके महिलाओं की बरसों पुरानी 33 फीसदी आरक्षण की मांग को क़ानूनी जामा नहीं पहनाया गया है। महिलाओं के हक़ की अब तक की सबसे बड़ी लड़ाई- महिला आरक्षण बिल पास कराने में बीजेपी की कोई पहल नहीं दिखाई देती। 

ज्ञात हो कि साल 1996 में महिला आरक्षण बिल को पहली बार एच.डी. देवगौड़ा में नेतृत्व वाली सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया था। लेकिन देवगौड़ा की सरकार बहुमत से अल्पमत की ओर आ गई जिस कारण यह विधेयक पास नहीं कराया जा सका। फिर साल 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने लोकसभा में फिर से यह विधेयक पेश किया। लेकिन गठबंधन की सरकार में अलग अलग विचारधाराओं की बहुलता के चलते इस विधेयक को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। साल 1999, 2002 और 2003 में इस विधेयक को दोबारा लाया गया लेकिन रूढ़िवादी नतीजा टस से मस नहीं हुआ।

साल 2008 में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 फ़ीसद महिला आरक्षण से जुड़ा 108वां संविधान संशोधन विधेयक संसद के उच्च सदन राज्यसभा में पेश किया जिसके दो साल बाद साल 2010 में तमाम तरह के विरोधों के बावजूद यह विधेयक राज्यसभा में पारित करा दिया गया। लेकिन लोकसभा में सरकार के पास बहुमत होने के बावजूद यह पारित न हो 

सका। तब से लेकर अब तक यह विधेयक सरकारी पन्नों में कहीं खो गया है जिसकी जरूरत पुरुषप्रधान राजनीति में महसूस नहीं की गई। महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किए जाने के कारण यह विधेयक अभी भी जीवित है जिसमें अभी की केंद्र सरकार चाहे तो बहुत ही आसानी से इसे पास करा सकती है। लेकिन महिला सशक्तिकरण की लंबी चौड़ी बातें करने वाली बीजेपी की ऐसी कोई मंशा फिलहाल नज़र नहीं आती।

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