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9 अगस्त को देश भर में किसान और मज़दूर करेंगे 'जेल भरो' आंदोलन

जन आंदोलनों के नेताओं ने चेतावनी दी कि अगर सरकार अपनी जन विरोधी नीतियों नहीं पलटती तो किसान -मज़दूर एकता सरकार को पटल देगी। 
workers protest
Image Courtesy: NDTV.com

वामपंथी ट्रेड यूनियन Center for Indian trade unions (CITU ) और अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) केंद्र सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ 9 अगस्त को देश भर में जेल भरो आंदोलन करेगी । CITU के महासचिव तपन सेन ने रविवार को पत्रकारों से बात करते हुए आंदोलन के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि आंदोलन का मकसद मोदी सरकार की मज़दूर और किसान विरोधी नीतियों को बेनक़ाब करना है। तपन सेन ने  कहा कि देश के विभिन्न हिस्सों में मज़दूरों और किसानों पर लगातार हमले हो रहे हैं और सरकार कुछ भी नहीं कर रही। साथ ही उनका कहना था कि मोदी और उनकी सरकार ने लोगों को बहुत वादे किये थे, लेकिन उन्हें पूरा नहीं किया गया और इसके बजाये सरकार लगातार आम लोगों की एकता तोड़ने के प्रयास में है।  

कुछ ही दिन पहले अखिल भारतीय किसान सभा ने इस जेल भरो आंदोलन को करने का ऐलान किया था और कल CITU ने भी इसमें शामिल होने की बात कही। इस विरोध प्रदर्शन के लिए 9 अगस्त के दिन को इसीलिए चुना गया है क्योंकि इसी दिन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुवात हुई थी। किसान और मज़दूर नेताओं का कहना है कि ये आंदोलन देश भर में हर ज़िले में किया जायेगा। हर ज़िले में बड़ी संख्या में गिरफ्तारयाँ दी जाएंगी , इसके साथ 10 करोड़ लोगों के हस्ताक्षरों को इक्कठा करके ज़िला प्रमुख के ज़रिये प्रधानमंत्री मंत्री को भेजा जायेगा। दरअसल ये पिछले कुछ समय से किसानो और मज़दूरों के आंदोलनों की कड़ी में एक और विरोध प्रदर्शन है। 

इसे 5 सितम्बर को दिल्ली में होने वाली 'किसान मज़दूर संघर्ष रैली' की तैयारी की तरह देखा जा रहा है , मज़दूर और किसान नेताओं का कहना है कि इस रैली में देश भर से 5 लाख लोग हिस्सा लेंगे। कहा जा रहा है कि ये रैली ऐतिहासिक होगी क्योंकि हाल के सालों में ऐसा पहली बार होगा कि इतनी  बड़ी संख्या में मज़दूर और किसान साथ में रैली करेंगे। आंदोलन के नेताओं का कहना है कि ये विरोध प्रदर्शन किसानों और मज़दूरों के बीच के मज़बूत एकता कायम करेगी। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर सरकार अपनी जन विरोधी नीतियों को नहीं पलटी तो यही एकता सरकार को पटल देगी। 

दरअसल नवउदारवाद के उदय के बाद से ही लगातार सजन आंदोलनों के नेताओं ने कहा है रकारें बाज़ार के दबाव में किसान और मज़दूर विरोधी नीतियाँ अपना रही हैं।  जन आंदोलन से जुड़े नेताओं का कहना है कि पिछले चार सालों से ये नीतियाँ आम जन के लिए और भी क्रूर हो गयी हैं। आम लोग कुछ इस तरह के मुद्दों जो झेल रहे हैं -

फैक्टरियों में लगातार बढ़ता ठेकाकरण , न्यूनतम वेतन को लागू न किया जाना , विभिन्न क्षेत्रों में निजीकरण जिससे सरकारी नौकरियों का कम होना , निश्चित अवधि रोज़गार का नियम आने से कभी भी रोज़गार ख़तम हो जाने का खतरा बढ़ जाना , श्रम कानूनों को जानभूझकर कमज़ोर किया जाना और भूमि अधिग्रहण की नीति से आम लोगों की ज़मीन को छीना जाना। पेट्रल डीज़ल के बढ़ते दाम , लगातार बढ़ती महंगाई , GST और नोटबंदी की वजह से आर्थिक नुक्सान , बेरोज़गारी का लगातार बढ़ना ,नए रोज़गार पैदा नहीं किये जाना , रीटेल और कृषि क्षेत्र में 100 %FDI को लाया जाना जिससे छोटे व्यापारी और किसानों की बारबारी का रास्ता खुल जाना।  इन के आलावा  किसानों के मुद्दे जैसे उपज  का 50 % गुना दाम न मिलना , क़र्ज़  माफ़ी का न किया जाना , न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलना , स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिशों को लागू न किया जाना ,मवेशी बेचने और खरीदने पर रोक लगाना , गौ रक्षकों द्वारा फैलाया जा रहा आतंक और लगातार गाय के नाम पर कत्लेआम।

 इन सभी मुद्दों की वजह से आम लोगों में लगातार रोष बढ़ रहा है। ये देखा गया है कि मुद्दों को सुलझाए जाने के बजाये सत्ताधारी दाल और उससे जुड़े सांप्रदायिक संगठन जनता की एकता को तोड़ने के लिए उन्हें हिन्दू -मुस्लिम की धार्मिक पहचानों में बाँट रहे हैं।  इससे जनता की एकता तो टूट ही रही है साथ ही समाज में भी भय का माहौल और इससे गंगा जमुनी तहज़ीब की हमारी सांझी विरासत को  खतरा बढ़ता जा रहा है।  

जन आंदोलन के नेताओं कहना है कि इसी का जवाब देने के लिए और जनता के सामने एक वैकल्पिक राजनीती पेश करने के लिए ये विरोध प्रदर्शन  किये जा रहा हैं। इससे पहले नवंबर 2017 में हज़ारों किसानों ने देश की राजधानी दिल्ली में एक ऐतिहासिक किसान संसद की थी। इससे कुछ ही दिन पहले नवंबर में ही हज़ारों मज़दूरों ने भी दिल्ली के संसद मार्ग पर 'मज़दूर महापड़ाव ' किया था और अपनी मांगों को रखा था। इसके बाद इस साल 40000 किसानों ने महाराष्ट्र  के नासिक से मुंबई तक एक 'लॉन्ग मार्च ' निकाला था , जिसके बाद महाराष्ट्र  सरकार को उनकी मांगे माननी पड़ी थी।लेकिन ये सिलसिला दिल्ली में बीजेपी के सत्ता में काबिज़ होने के 1 साल बाद ही शुरू हो गया था ,जब 2015  में देश भर के लाखों मज़दूरों ने अपने अपने राज्यों में हड़ताल की थी।  

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