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दो टूक: क्या पांव तले खिसकती ज़मीन को मेगा-इवेंट्स की चकाचौंध बचा पाएगी?

मोदी सरकार की 9 साल में कोई ठोस उपलब्धि नहीं।  "विश्वगुरु और हिन्दूराष्ट्र" के उन्माद के सहारे 2024 की वैतरणी पार करने की तैयारी।
New Parliament
फ़ोटो साभार: PTI

9 साल के शासन में कोई भी चुनाव-जिताऊ उपलब्धि show-case कर पाने में विफल मोदी सरकार mega-events के सहारे 2024 की वैतरणी पार करने की उम्मीद में है। गुरु (आडवाणी) से बेहतर कौन समझ सकता था शिष्य को, जिन्होंने बहुत पहले आगाह कर दिया था,"नरेन्द्र भाई अच्छे इवेंट मैनेजर हैं।"

कर्नाटक चुनाव की हालिया crushing defeat  से ब्रांड मोदी को हुए नुकसान की  भरपाई के लिए पापुआ न्यू गिनी से लेकर आस्ट्रेलिया तक जो पैर छूने और ऑटोग्राफ से लेकर " अहो रुपं, अहो ध्वनिः " का तमाशा हुआ, वह आने वाले दिनों का बस ट्रेलर है।

मोदी जी ने प्रयास करके तमाम ग्लोबल इवेंट्स को चुनाव वर्ष के लिए भारत में line-up कर दिया है। Rotational अध्यक्षता वाले  G 20 शिखर सम्मेलन को भारत को 2021 में host करना था। लेकिन भारत ने इटली से अदला बदली करते हुए तब कहा कि आजादी के 75वें वर्ष में वह 2022 में इसे host करेगा। बाद में फिर उसे इंडोनेशिया से swap करके भारत अब 2022 की बजाय 2023 के लिए host बन गया है। आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ से अधिक महत्वपूर्ण आखिर चुनाव का साल जो ठहरा!

अभी Quad बैठक में हिरोशिमा गए प्रधानमंत्री ने अगला शिखर सम्मेलन भारत में करने का प्रस्ताव कर उसका मौका भी झटक लिया है। इस तरह जुलाई में SCO, सितंबर में G 20,  और फिर चुनाव वर्ष 2024 में Quad summit ! 

क्या विश्वगुरु बनने में अब भी कुछ बाकी रह जाता है?

इसी के साथ देश के अंदरूनी मामलों पर इवेंट्स को जोड़ दिया जाय तो 28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन से लेकर (बकौल अमित शाह) 1 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन तक मेगा events की झड़ी लगी रहेगी।

कर्नाटक चुनाव के बाद चमक खो चुके ब्रांड मोदी को कृत्रिम ढंग से चमकाने का उतावलापन ऐसा कि इसके लिए न संवैधानिक लोकतंत्र की परम्पराओं की कद्र की जा रही है, न आदिवासी महिला राष्ट्रपति के अपमान और उससे होने वाले राजनीतिक नुकसान की चिंता है (याद कीजिये कैसे उदात्त तर्कों के साथ उन्हें राष्ट्रपति पद पर आसीन किया गया था।), न ही समूचे संसदीय विपक्ष की राय और उसके विरोध की परवाह (करीब करीब सम्पूर्ण विपक्ष ने 28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार का ऐलान कर दिया है।)

कुछ शातिर सत्ता-समर्थक विश्लेषक बता रहे हैं कि मोदी द्वारा उद्घाटन पर कानून-संविधान कोई रोक नहीं लगाता है और पहले के प्रधानमंत्रियों ने भी समय समय पर ऐसा किया है। सन्दर्भ-प्रसंग से काट कर देखा जाय तो सचमुच एक भवन का उद्घाटन कोई भी कर दे, क्या फर्क पड़ता है। 

पर यह उतना innocent मामला नहीं है।

आखिर, हिन्दूराष्ट्र के आदि सिद्धांतकार, राष्ट्रपिता गांधी की हत्या के आरोपी सावरकर जिनकी साम्राज्यवाद-विरोधी भारतीय राष्ट्रवाद में न आस्था थी, न संविधान और लोकतन्त्र में, उनके जन्मदिन पर ही यह आयोजन क्यों किया जा रहा है?

हिन्दू राजतन्त्रों के युग के सत्ता-हस्तांतरण के प्रतीक सेंगोल को म्यूजियम से निकालकर  नए संसद भवन में मोदी के हाथों स्थापित करके क्या सन्देश दिया जा रहा है? 

क्या यह subtle ढंग से हिन्दू राष्ट्र के नायक के हाथ सत्ता हस्तांतरण की प्रतीकात्मक messaging है जिसे 1 जनवरी, 2024 को ( बकौल अमित शाह ) अयोध्या में राममंदिर के उद्घाटन के साथ पूर्णता तक पहुंचा दिया जाएगा? क्या इसके बाद हिन्दू राष्ट्र की घोषणा की सिर्फ औपचारिकता बच जाएगी, 2024 का चुनाव जिसके final show-down का मंच बना दिया जाएगा ?

सावरकर के जन्मदिन का अवसर, हिन्दू राजतंत्र के सत्ता-हस्तांतरण के पारम्परिक प्रतीक सेंगोल की नए संसद में मोदी के हाथों स्थापना, आदिवासी महिला राष्ट्रपति का अपमान, लोकतान्त्रिक मर्यादा का निषेध कर संसद के शीर्ष राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति उपराष्ट्रपति को बिना आमंत्रित किये सीधे नई संसद का सीधे मोदी जी के हाथों उद्घाटन- यह सब महज संयोग नहीं हो सकता !

इस आयोजन का संदेश बिल्कुल स्पष्ट है- यह धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र की कब्र पर हिन्दूराष्ट्र की स्थापना के इरादे और संकल्प का ऐलान है। यह आम चुनाव के पूर्व विश्वगुरु के पद पर आसीन हिन्दूराज के उन्माद की नई लहर पैदा करने और हर हाल में सत्ता पर काबिज रहने की आक्रामक रणनीति है।

हाल ही में, जनता द्वारा निर्वाचित दिल्ली सरकार के हाथ से अधिकारियों की transfer-posting के न्यूनतम अधिकार को भी छीन लेने के लिए जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय तक के फैसले को अध्यादेश द्वारा पलट दिया गया, वह इस बात का ठोस संकेत है कि मोदी-शाह सत्ता पर अपने कब्जे और उसके चरम केंद्रीकरण के रास्ते में आने वाले सारे संवैधानिक अवरोधों -न्यायपालिका समेत-को कुचल देने पर आमादा हैं।

स्तम्भकार प्रताप भानु मेहता ने ठीक कहा है कि यह सब इस बात का संकेत है कि वे आसानी से सत्ता नहीं छोड़ेंगे, " भाजपा ने दिखा दिया है कि वह दिल्ली में किसी अन्य राजनीतिक दल का शासन बर्दाश्त नहीं कर सकती। क्या ऐसी राजनीतिक पार्टी, जब एक आसन्न हार की संभावना का सामना करेगी, तो क्या उसके आसानी से सत्ता छोड़ने की संभावना है?

"दिल्ली में जो कुछ हो रहा है वह पूरे भारतीय लोकतंत्र पर आसन्न खतरे की एक चेतावनी है। हमारे पास केंद्र में सत्ता में एक ऐसी पार्टी है जो कानून, संवैधानिकता, समझबूझ वाले प्रशासनिक आचरण और चुनावी राजनीति के निष्पक्ष नियमों का सम्मान नहीं करेगी। इसकी यह निर्लज्जता इस बात का संकेत है कि यह किसी भी कीमत पर सत्ता पर काबिज रहने की कोशिश करेगी।"

इस पूरी लड़ाई को रंग यह दिया जाएगा कि यह हिन्दू राष्ट्र को बचाने की लड़ाई है ! जनता को इसके लिए आहुति देने-अपने रोजी-रोटी, महंगाई, खुशहाल जीवन जैसी दुनियावी आकांक्षाओं को भूल जाने को कहा जायेगा!

क्या 9 साल से "अच्छे दिन" के नाम पर धोखा खाती जनता इसे स्वीकार करेगी ? 

क्या हवा-हवाई मेगा-इवेंट्स जनता के जीवन के मूलभूत सवालों को दरकिनार कर  जनादेश के निर्धारक ( determining factor ) बन जाएंगे ?

क्या विपक्ष ऐसा होने देगा ? 

कर्नाटक के नतीजों पर सारे credible surveys ने निर्विवाद ढंग से इस बात को स्थापित कर दिया है कि सोशल पिरामिड के निचले हिस्से का भाजपा से अलगाव बढ़ा है। इसके पीछे मूल कारण भाजपा राज की नीतियों द्वारा हुआ socio-economic exclusion है, जिसके बरख़िलाफ़ आर्थिक राहत और सामाजिक न्याय के  आश्वासन ने लोगों को कांग्रेस के पक्ष में मोड़ दिया और वह सत्ता में पहुंचने में सफल हो गयी। यह तब हुआ जब मोदी ने चुनाव पूरी तरह अपने चेहरे पर लड़ा और मोदी-शाह-योगी-हिमंता चौकड़ी ने सांप्रदायिक उन्माद भड़काने तथा आरक्षण से छेड़छाड़ कर सोशल इंजीनियरिंग के शातिर खेल में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।

कर्नाटक में जनता के voting pattern का यह जो crux है, वह कर्नाटक का कोई स्थानीय मामला नहीं है, बल्कि यही विकासमान राष्ट्रीय परिघटना है। यह मोदी के 9 साला कारपोरेट-परस्त, सामाजिक अन्याय पर आधारित जनविरोधी राज के खिलाफ जनता के संचित आक्रोश की अभिव्यक्ति है।

क्या एकताबद्ध विपक्ष इस टेम्पलेट को राष्ट्रीय स्तर पर develop करते हुए संघ-भाजपा के " विश्वगुरू हिन्दूराष्ट्र " निर्माण के अंधराष्ट्रवादी उन्माद  के फर्जी नैरेटिव के खिलाफ लोककल्याण और समावेशी विकास पर आधारित प्रगतिशील राष्ट्रवाद का सशक्त काउंटर-नैरेटिव खड़ा कर पायेगा?  येन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज़ रहने के फासीवादी मंसूबे को क्या विपक्ष जनता की सड़क पर लामबंदी के बल पर चुनौती दे पाएगा?

2024 का फैसला और हमारे गणतंत्र का भविष्य इसी पर निर्भर है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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