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क्या आपको पता है कि ₹23 हजार करोड़ जैसे बैंक फ्रॉड भी महंगाई के लिए जिम्मेदार है? 

“शिपयार्ड कंपनी के 23 हजार करोड़ रुपए ऐसे लोगों के हाथों में चले गए जिन्होंने 23 हजार करोड़ रुपए के बदले किसी भी तरह का उत्पादन नहीं किया। सिंपल भाषा में समझें तो यह कि पैसे का संचरण तो बढ़ा लेकिन उत्पादन नहीं बढ़ा, यानी महंगाई बढ़ी।”
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Image courtesy : The Indian Express

क्या आपने महंगाई के कारणों में कभी भ्रष्टाचार का नाम सुना है? नहीं सुना होगा। क्योंकि जिन्हें सच बताने का काम करना है वह सच छुपाने के काम में लगे हुए हैं। सच यह है कि भ्रष्टाचार की वजह से महंगाई की दशा हमेशा बनी रहती हैं। देश के इतिहास में अब तक के सबसे बड़े बैंक घोटाले की खबर आ रही है, विजय माल्या के 9000 करोड़ और नीरव मोदी के 14 हजार करोड़ से ज्यादा यानी तकरीबन 23 हजार करोड़ रुपए के बैंक घोटाले की ये खबर है। इसका मतलब यह भी है कि 23 हजार करोड़ रुपए ऐसे लोगों के हाथों में चले गए जिन्होंने 23 हजार करोड़ रुपए के बदले किसी भी तरह का उत्पादन नहीं किया। सिंपल भाषा में समझें तो यह कि पैसे का संचरण तो बढ़ा लेकिन उत्पादन नहीं बढ़ा, यानी महंगाई बढ़ी। 

शिपयार्ड कंपनी ने 28 बैंकों के साथ करीब 23 हजार करोड़ रुपए का फ्रॉड किया है। खबरों की मानें तो 7 फरवरी को सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन शिपयार्ड लिमिटेड के प्रबंध निदेशक ऋषि कमलेश अग्रवाल सहित तकरीबन 8 लोगों पर एफआईआर दर्ज की गई है। एफआईआर दर्ज करने के बाद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने प्रेस रिलीज जारी कर बताया कि साल 2013 में भी इस कंपनी का दिया गया लोन एनपीए हो गया था। मार्च 2014 में कंपनी के लोन का रिस्ट्रक्चर किया गया। यानी कंपनी का लोन चुकाने के लिए बैंक में रखे गए हमारे और आपके पैसे और टैक्स का इस्तेमाल सरकार ने कंपनी का लोन चुकाने के लिए किया। साल 2014 के बाद फिर से साल 2016 में कंपनी का लोन एनपीए हो गया। मतलब कंपनी पैसा को हजम करते गई और बैंक पैसा देते गए।

मतलब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो कंपनी साल 2013 में अपने लोन का भुगतान नहीं कर पाई, सरकार के रिस्ट्रक्चर करने के बाद भी साल 2016 में लोन का भुगतान नहीं कर पाई तो आखिर कर उस कंपनी को 28 बैंकों ने 23 हजार करोड रुपए का लोन कैसे दे दिया? जरा यह सोच कर देखिए कि क्या यह संभव है कि बैंक का कर्जा ना लौट पाने के बाद भी एक बैंक नहीं बल्कि 28 बैंक हमें कर्जा देंगे? इस तरह की सड़ांध का क्या मतलब होता है? इस तरह की सड़ांध का मतलब यह होता है कि नियम कानून की धज्जियां उड़ाकर कारोबारी बैंक प्रबंधन और नेताओं के गठजोड़ की वजह से कंपनी को लोन मिला होगा। छानबीन के बाद पता चला है कि इस कंपनी ने लोन को कहीं और खपा दिया है, फंड हड़प लिया है और विश्वास तोड़ा है। जो कि आपराधिक है। इस कंपनी के कारोबार की छानबीन करने पर ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिससे पता चलता है कि सरकार इस कंपनी पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रही है। जैसे एक उदाहरण यह है कि करीबन 1 लाख स्क्वायर मीटर की जमीन सरकार आधी कीमत पर इस कंपनी को बेचती है। ऐसे कई उदाहरण हैं जो बताते हैं कि यह कंपनी बहुत बड़े लोन लेने के काबिल नहीं है, अपनी देनदारी पूरी नहीं कर पा रही है लेकिन फिर भी इस कंपनी को लोन मिल जाता है। मतलब भ्रष्टाचार की खबर मिलने के बाद भी भ्रष्टाचार चलता रहता है। ऐसे माहौल में जहां बिना सामान और सेवाओं के उत्पादन के केवल भ्रष्ट डील करने की वजह से पैसा बनाया जाता है, वहां महंगाई कैसे रुक सकती है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि महंगाई की मार अंतरराष्ट्रीय कारणों से पड़ रही है। लेकिन वे प्रधानमंत्री होने के नाते अपनी प्रशासनिक कमियों को नहीं स्वीकार करते। ठीक यही हाल सरकार और कारोबारियों के गठजोड़ से चल रहे टीवी चैनलों और अखबारों के विश्लेषकों का भी होता है। वे भी यही कारण जनता के सामने परोसते हैं ताकि जनता असली जगह हमला ना करें। 

यह बात सही है कि महंगाई बढ़ने के लिए अंतरराष्ट्रीय कारण जिम्मेदार होते हैं। अंतरराष्ट्रीय सप्लाई चेन की गड़बड़ी की वजह से भी जीने की लागत बढ़ती है। लेकिन महंगाई बढ़ने के कारण के तौर पर जब सरकारें केवल अंतरराष्ट्रीय कारणों को दोष देने लगें तो समझ जाइए कि सरकार जनता को सच से दूर रखने की कोशिश कर रही है। भारत जैसे 140 करोड़ जनसंख्या वाले देश में जहां जीवन की बुनियादी जरूरतें पूरा करने के लिए ठीक-ठाक संसाधन मौजूद हैं वैसे देश में अगर सालों साल महंगाई रह रही है तो इसका मतलब है कि प्रशासनिक जिम्मेदारी जनता को चुपचाप लूट रही है। जनता के साथ बेईमानी कर रही है।

किताबों में महंगाई की साधारण सी परिभाषा लिखी होती है कि जब संसाधनों के दोहन से उतना उत्पादन नहीं होता जितना देशभर में मुद्रा की उपलब्धता है तो महंगाई बढ़ जाती है। लेकिन दुनिया तो किताबों के मुताबिक चलती नहीं है। इसलिए महंगाई बढ़ने के और भी ढेर सारे कारण होते हैं। मगर बुनियादी बात यही है कि जब उत्पादन और मुद्रा की मात्रा के बीच अंतर होता है तो महंगाई बढ़ती है। भारत में तो स्थिति और जटिल है। यहां बहुत बड़ी आबादी के पास खर्च करने के लिए पैसा नहीं है। मांग की कमी है। लेकिन फिर भी आमदनी के लिहाज से ऊपर मौजूद तकरीबन 20 से 30 फ़ीसदी लोगों के पास इतना ज्यादा पैसा है कि उनके पैसे को हटा दिया जाए तो भारत की अर्थव्यवस्था की तबाही पूरी दुनिया के सामने आ जाएगी। 

चंद लोगों के हाथों में मौजूद इतना ज्यादा पैसा भी महंगाई का कारण होता है। यह चंद लोग अपने पैसे से पैसा कमाते हैं। राजनीति और कारोबार के बीच का गठजोड़ वैसा पैसा कमाने की मशीन है जिसमें आम जनता के हक को मार कर कच्चे माल के तौर पर डाला जाता है दूसरी तरफ चंद लोग अकूत पैसा निकाल लेते हैं। जिसकी वजह से पैसे की मात्रा तो अर्थव्यवस्था में ज्यादा होती है लेकिन उत्पादन नहीं हो पाता है। उत्पादन होता भी है तो बहुत बड़ी आबादी के पास पैसा नहीं होता कि वह कुछ खरीद पाए। इसलिए कीमतें बढ़ती हैं। यानी भारत की अर्थव्यवस्था में बहुत गहरे रूप में अर्थव्यवस्था के हर परत में मौजूद भ्रष्टाचार भारत की कई परेशानियों के साथ भारत के महंगाई का भी कारण होता है। हाल फिलहाल की महंगाई देखिए।

जीवन जीने की लागत यानी कि खुदरा महंगाई जनवरी महीने में 6% की दर को पार कर चुकी है। यह 6% का आंकड़ा महंगाई का सहनशील आंकड़ा है। यानी किताबी तौर पर कहें तो रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का यह मानना है कि अगर महंगाई 6% की दर से ऊपर चली जाती है तो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत अधिक घातक साबित होती है। लेकिन यह महज किताबी बात है। हकीकत इससे भी ज्यादा भयावह होती है।

केवल आंकड़ों की सुनें तो बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था तकरीबन साल भर पहले से महंगाई की वजह से बीमार चल रही है। जनवरी में दर्ज की गई 6% की महंगाई दर पिछले 7 महीनों में सबसे अधिक है। पेट भर खाना खाने की कीमत पिछले 14 महीनों में सबसे अधिक है। थोक महंगाई दर पिछले 10 महीने से 10% से अधिक दर पर मौजूद है। भारत के कई राज्यों में महंगाई दर 6% से अधिक पर चल रही है। कपड़ा, इंधन, घर के सामान स्वास्थ्य सुविधाओं का खर्च, बिजली, परिवहन जैसे ढेर सारे गैर खाद्य विषयों की कीमत भी 6% से ऊपर चल रही है। कपड़े, जूते चप्पल, घर के सामान और सेवाओं की कीमत पिछले 8 सालों में सबसे अधिक है।

सरकार ने खुदरा महंगाई के लिए जो फार्मूला फिक्स किया है, उसके अंतर्गत तकरीबन 45% भार भोजन और पेय पदार्थों को दिया है और करीबन 28 फ़ीसदी भार सेवाओं को दिया है। यानी खुदरा महंगाई दर का आकलन करने के लिए सरकार जिस समूह की कीमतों पर निगरानी रखती है उस समूह में 45% हिस्सा खाद्य पदार्थों का है, 28 फ़ीसदी हिस्सा सेवाओं का है। यह दोनों मिल कर के बड़ा हिस्सा बनाते हैं। बाकी हिस्से में कपड़ा जूता चप्पल घर इंधन बिजली जैसे कई तरह के सामानों की कीमतें आती हैं।

अब यहां समझने वाली बात यह है कि भारत के सभी लोगों के जीवन में खाद्य पदार्थों पर अपनी आमदनी का केवल 45% हिस्सा खर्च नहीं किया जाता है। साथ में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओं पर अपनी आय का केवल 28% हिस्सा नहीं खर्च किया जाता है। जो सबसे अधिक अमीर हैं जिनकी आमदनी करोड़ों में है, वे अपनी कुल आमदनी का जितना खाद्य पदार्थों पर खर्च करते हैं वह उनके कुल आमदनी का रत्ती बराबर हिस्सा भी नहीं होता है।

लेकिन भारत में 80% कामगारों की आमदनी महीने की ₹10,000 से भी कम है। इनके घर में खाद्य पदार्थों पर कुल आय का 45% से अधिक हिस्सा खर्च होता है। इनके घर में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और दवाई के इलाज पर 28% से अधिक हिस्सा खर्च होता है। तकरीबन 80 से 90% हिस्सा दो वक्त की रोटी और अपने बच्चे की सरकारी स्कूल में पढ़ाई पर ही खर्च हो जाता होगा।

महंगाई को जब भ्रष्टाचार की निगाह से देखते हैं तो लगता है कि जब तक भ्रष्टाचार खत्म नहीं होता महंगाई से निजात नहीं पाया जा सकता। महंगाई को जब आम आदमी के लिहाज से देखते हैं तो हासिल करते हैं कि जब तक महंगाई रहेगी तब तक आम आदमी का जीवन आसानी से नहीं गुजरेगा। इस तरह से देखने पर सरकार की जिम्मेदारी बढ़ी हुई दिखती है। लगता है कि सरकार अपने कामों से भाग रही है। ऐसा सच सबके आंखों के सामने होता है जो सरकार को चुभता है। इसलिए महंगाई की व्याख्या करते समय कभी भी भ्रष्टाचार के बारे में नहीं बताया जाता।

अगर 23000 करोड़ रुपए का फ्रॉड हुआ है तो समझ जाइए कि पैसे वालों की तरफ से टीवी पर बैठे जानकार भले ही कुछ भी कहें  लेकिन हमारी और आपके जीवन की ढेर सारी परेशानियां कम नहीं होने वाली। महंगाई तो कतई नहीं।

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