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एम्स: महिला डॉक्टर पर हुई थी जातिगत टिप्पणी, आरोपी सीनियर पर कार्रवाई की सिफारिश

एससी-एसटी समिति की रिपोर्ट ने एक बार फिर देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में महिलाओं के साथ हो रहे यौन और जाति उत्पीड़न के मामले को उजागर कर दिया है।
AIIMS

दिल्ली का अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स एक बार फिर सुर्खियों में है। वजह कोरोना का संकट तो है ही साथ ही एक 17 पेज की रिपोर्ट भी है जिसे संस्थान के ही एससी/एसटी समिति ने पिछले महीने 24 जून को एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया को सौंपी है। इस रिपोर्ट में समिति ने एक महिला डॉक्टर के ख़िलाफ़ जातिगत टिप्पणी के आरोपों को सही पाया है। साथ ही संस्थान के आरोपी फैकल्टी सदस्य पर सख्त प्रशासनिक/कानून कार्रवाई करने को भी कहा है।

क्या है पूरा मामला?

जानकारी के मुताबिक इस साल 17 अप्रैल को एक सीनियर महिला रेजिडेंट डॉक्टर दवा की ओवरडोज के कारण अपने हॉस्टल के कमरे में बेहोश पाई गई थीं। मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि सिस्टम में कहीं भी सुनवाई न होने से परेशान महिला डॉक्टर को आत्महत्या जैसा कदम उठाने के लिए मज़बूर होना पड़ा।

बता दें कि पीड़ित महिला एम्स में डेंटल सर्जन हैं और उन्होंने अपने सीनियर फैकल्टी सदस्य पर यौन उत्पीड़न और बार-बार जातिगत टिप्पणी करने का आरोप लगाया था।

इस संबंध में 16 मार्च को हुई एक कथित घटना को लेकर दर्ज एफआईआर में पीड़ित महिला डॉक्टर ने कहा था कि पिछले दो सालों से एक फैकल्टी सदस्य उनके साथ भेदभाव कर रहा है।

अपनी एफआईआर में रेजिडेंट डॉक्टर ने आरोप लगाया था कि 16 मार्च को एक फैकल्टी सदस्य ने मरीजों और सहयोगियों के सामने उनके खिलाफ असभ्य भाषा और जातिवादी गालियों का इस्तेमाल किया था।

पीड़िता ने दावा किया कि आरोपी ने कहा था, ‘तू एससी है, अपने लेवल में रह।’ महिला ने कहा कि उन्होंने सीडीईआर प्रमुख से शिकायत की थी, लेकिन हर बार उन्हें लिखित शिकायत देने से रोक दिया गया।

एसटीएससी समिति ने अपनी रिपोर्ट में क्या कहा है?

एससी-एसटी समिति की रिपोर्ट बताती है कि इसके पर्याप्त सबूत हैं कि आरोपी द्वारा अनुचित टिप्पणी की गई थी। इसे आरोपी द्वारा स्वीकार कर लिया गया है और गवाहों द्वारा और पुख्ता किया गया है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सीडीईआर द्वारा गठित आंतरिक समिति ने मामले में सही से जांच नहीं की और पीड़िता से शिकायत वापस लेने पर दबाव डाला गया।

महिला डॉक्टर के खिलाफ की गई ‘जातिगत एवं लैंगिक’ टिप्पणी पर एससी-एसटी समिति द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट में कहा गया है कि संस्थान के एक फैकल्टी सदस्य ने एक सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर के खिलाफ ‘अपनी औकात में रहो’ जैसे शब्दों का प्रयोग कर मन में छिपे सामाजिक पूर्वाग्रह का प्रदर्शन किया है।

समिति ने कहा कि इस मामले को लेकर आंतरिक समिति ने निष्पक्ष होकर जांच नहीं की थी और महिला को अपनी शिकायत वापस लेने पर दबाव डाला जा रहा था।

इंडियन एक्सप्रेस  के मुताबिक रिपोर्ट में कहा गया, ‘यद्यपि आरोपी ने स्पष्ट रूप से पीड़िता के खिलाफ लिंग या जाति-आधारित टिप्पणी का इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन उसने ‘बिल्ली’, ‘औकात में रहो’ आदि शब्दों का इस्तेमाल किया, जो अपमानजनक, नीचा दिखाने वाला और गरिमा के खिलाफ हैं, खासतौर पर एक महिला के लिए। यह उसकी पेशेवर क्षमताओं को कम करके आंकना है।’

इस समिति की अध्यक्षता एम्स के डर्मेटोलॉजी एंड वेनेरोलॉजी के प्रोफेसर डॉ केके वर्मा ने की थी। एम्स के उप निदेशक (प्रशासन) एसके पांडा ने कहा कि उन्होंने रिपोर्ट पर कार्रवाई शुरू कर दी है।

उन्होंने एक्सप्रेस को बताया, ‘समिति ने कुछ कदमों की सिफारिश की है और उन्हें लिया जा रहा है। हम अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं, इसलिए हम कारण बताओ नोटिस जारी कर रहे हैं।’

रिपोर्ट में कहा गया है कि पीड़िता की शिकायतों को बार-बार न सुनने और उनका अपमान करने के कारण उनमें असुरक्षा की भावना पैदा हुई और लगातार न्याय से वंचित किए जाने के कारण वो काफी निराश हुईं, संभवतः जिसकी वजह से उन्होंने इस साल 17 अप्रैल को विषाक्त पदार्थों का सेवन करने जैसा चरम कदम उठाया।

समिति ने वरिष्ठ रेजिडेंट डॉक्टर, फैकल्टी सदस्य, डॉक्टर, नर्स और स्टाफ के सदस्यों के बयान दर्ज किए, जो कथित 16 मार्च की घटना के समय मौजूद थे।

एम्स प्रशासन पर उठते सवाल

मीडिया में छपी ख़बरों के मुताबिक पीड़ित महिला डॉक्टर ने अपने साथ हो रहे उत्पीड़न और जातिगत टिप्पणी का मुद्दा एम्स निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया के सामने भी उठाया था। इस संबंध में उन्होंने 16, 22 और 23 मार्च को एम्स प्रशासन को कई चिट्ठियां लिखी थीं। उन्होंने संस्थान के महिला शिकायत सेल (डब्ल्यूजीसी) और एससी-एसटी कल्याण सेल को भी चिट्ठी लिखी थी।

इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय एससी/एसटी कमीशन, दिल्ली को भी पत्र लिखकर मामले से अवगत कराया था, लेकिन इन संस्थाओं ने समय रहते तत्काल कोई कदम नहीं उठाया, शोषण का सिलसिला जारी रहा। महिला डॉक्टर लगातार प्रताड़ना का शिकार होती रहीं और उधर प्रताड़ित करने वाले पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसके बाद आखिरकार तंग आकर महिला डॉक्टर ने 17 अप्रैल को अपनी जान लेने की कोशिश की। उनके इस कदम ने देश के सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान एम्स के प्रशासन पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए।

इस मामले को लेकर रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन (आरडीए) ने 22 मार्च को एम्स के निदेशक को पत्र लिखा था। वहीं 17 अप्रैल की घटना के बाद आरडीए ने स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्ष वर्धन को पत्र लिख कर आरोप लगाया था कि कई पत्र भेजने के बाद भी इस मसले पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। प्रशासन और संस्थान कमेटी के अनदेखी की वजह से महिला डॉक्टर को आत्महत्या जैसा कदम उठाने का मजबूर होना पड़ा। आरडीए द्वारा मांग की गई कि मंत्रालय और एम्स प्रशासन मामले को जल्द से जल्द संज्ञान में लेकर तत्काल कार्रवाई करें, जिससे महिला डॉक्टर को न्याय मिल सके। साथ ही ऐसे कदम उठाए जाएं जिससे भविष्य में ऐसी घटनाएं दोबारा न हों।

रेज़िडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. आदर्श प्रताप सिंह ने मीडिया से बातचीत में कहा था, “एम्स देश का सबसे बड़ा मेडिकल संस्थान और यदि यहां पर किसी महिला डॉक्टर को यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, जातिसूचक टिप्पणी सुननी पड़ती है, तो इससे शर्मनाक कुछ नहीं है। पीड़ित डॉक्टर एक महीने से प्रशासन को कई चिट्ठियां लिखती रहीं और प्रशासन ने कुछ नहीं किया। अभी भी इस मामले पर प्रशासन की तरफ़ से कोई सख्त प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी है। इससे बुरा क्या हो सकता है?”

इस मामले पर राष्ट्रीय महिला आयोग और दिल्ली महिला आयोग ने भी संज्ञान लिया था। साथ ही स्वास्थ्य मंत्रालय की सचिव प्रीति सूडान और एम्स के निदेशक को नोटिस भेजकर जल्द से जल्द कार्रवाई की रिपोर्ट तलब की थी।

प्रतिष्ठित संस्थानों में महिलाओं के साथ यौन और जाति उत्पीड़न

गौरतलब है कि देश के प्रतिष्ठित संस्थानों में महिलाओं के साथ यौन और जाति उत्पीड़न के कई मामले देखने को मिले हैं। बीते वर्ष 2019 में मुंबई के बीवाईएल नायर हॉस्पिटल से गायनोकोलॉजी की पढ़ाई करने वाली दलित छात्रा पायल तड़वी ने सीनियर्स की रैगिंग और जातिवादी टिप्पणियों से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। पायल ने अपने सुसाइड नोट में आत्महत्या की वजहें बताई थी।

डॉक्टर पायल की चिट्ठी के कुछ अंश

“इस मुकाम पर चीजें असहनीय हो गई हैं। मैं उनके साथ एक मिनट भी नहीं रह सकती हूं। पिछले एक साल से हम उन्हें सह रहे थे, इस उम्मीद में कि एक दिन ये सब खत्म हो जाएगा। लेकिन मैं अब केवल अंत देख रही हूं। वास्तव में इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है, मुझे इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिख रहा है। मैं फंस गई हूं। ऐसा क्यों है? हम लोगों में ऐसा क्या है जिससे ये परेशानी झेलनी पड़ रही है…।”

बार-बार वही पीड़ा, वही उत्पीड़न

इसी तरह की पीड़ा का इज़हार हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी छात्र रोहित वेमुला ने किया था। अपने अंतिम पत्र में उन्होंने लिखा था- “मैं हमेशा एक लेखक बनना चाहता था। विज्ञान पर लिखने वाला, कार्ल सगान की तरह, लेकिन अंत में मैं सिर्फ़ ये पत्र लिख पा रहा हूं... एक आदमी की क़ीमत उसकी तात्कालिक पहचान और नज़दीकी संभावना तक सीमित कर दी गई है। एक वोट तक। आदमी एक आंकड़ा बन कर रह गया है। एक वस्तु मात्र। कभी भी एक आदमी को उसके दिमाग़ से नहीं आंका गया। एक ऐसी चीज़ जो स्टारडस्ट से बनी थी। हर क्षेत्र में, अध्ययन में, गलियों में, राजनीति में, मरने में और जीने में...।”

लेकिन असल सवाल यही है कि क्या हम, हमारा समाज, हमारा शासन-प्रशासन इस सबसे कोई सबक़ लेगा?

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