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अफ़ग़ानिस्तानः क्या मोदी और भाजपा अपनी ही विदेश नीति के ख़िलाफ़ हैं?

हमारी विफलता का अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, लेकिन अफ़ग़ान संकट पर हो रहे अंतरराष्टीय स्तर के सलाह-मशविरों में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत इतना महत्वहीन कभी नहीं था।
मोदी

काबुल एयरपोर्ट के बम धमाकों और अफगानिस्तान के तेजी से बिगड़ते हालात से यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि यह इलाका आतंकवादी गुटों और महाशक्तियों का नया रणक्षेत्र बनने वाला है। इसमें भी कोई शक नहीं रहा कि अमेरिकी ने अपनी सेना की वापसी का जो तरीका अपनाया है वह पूरी दुनिया के लिए, पूरी दुनिया की शांति के लिए खतरनाक साबित होने वाला है।  भारत उन देशों में से है जिस पर अफगानिस्तान की घटनाओं का बहुत ज्यादा असर पड़ेगा। लेकिन क्या हम वास्तव में हालात को गंभीरता से देख रहे हैं? हमारी विफलता का अंदाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, लेकिन अफगान संकट पर हो रहे अंतरराष्टीय स्तर के सलाह-मशविरों में हमारे लिए कोई जगह नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत इतना महत्वहीन कभी नहीं था। यह सिर्फ हमारी कूटनीतिक पराजय नहीं है बल्कि दुनिया में अपनी हैसियत गिर जाने का संकेत है।

अगर हम काबुल से जुड़ी घटनाओं पर नजर डालें तो यह अंदाजा हो जाएगा कि अफगानिस्तान की परिस्थितियों को आंकने में हम बुरी तरह फेल हुए। उस मुल्क में जहां हम  विकास की कई परियोजनांएं चला रहे हैं और जो सुरक्षा कारणों से हमारे लिए एक बेहद महत्वपूर्ण मुल्क है,  हमें यही पता ही नहीं चला कि तालिबान इतनी जल्दी काबुल को हथिया लेगा और हमें जल्दी जल्दी में अपना दूतावास खाली करना पड़ेगा। कुछ लोग यह तर्क देंगे कि जब अमेरिका को अंदाजा नहीं हो पाया तो हम क्या थे। यह एक बेहूदा तर्क है। हमारे खुफिया विभाग की नाकामी को यह कह कर नहीं ढंका जा सकता है कि अमेरिका भी फेल रहा। वैसे भी, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि अमेरिका को इसका अंदाजा नहीं था। यह भी संभव है कि अमेरिका और नाटो देशों ने अफगानिस्तान से निकलने के पहले सत्ता को तालिबान के हाथों में जाने दिया।

विदेश नीति के मामले में मोदी सरकार की विफलताओं के पीछे असली कारण क्या हैं? क्या उसकी कूटनीतिक विफलता प्रशासनिक वजह यानी सही अधिकारियों को तैनात नही करने की वजह से है? इसके उत्तर आसानी से मिल जाएंगे, अगर हम प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक शैली पर नजर डालेंगे। हमें यह देखना चाहिए कि अफगानिस्तान के मामले में हमारे लगातार महत्वहीन हो जाने के बावजूद इस मामले में देश की जनता को विश्वास में नहीं ले रहे हैं। यह किसी भी लोकतांत्रिक  देश की पहली जरूरत होती है। अगर हम काबुल में तालिबानी चरमपंथियों के आने के बाद से वाशिंगटन, लंदन, बर्लिन समेत यूरोप के अन्य देशों में सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की ओर नजर डालें तो हमें प्रधानमंत्री मोदी के सोचने-समझने में समाई हुई बुनियादी कमजोरियों का अंदाजा हो जाएगा। घटना के तुरंत बाद से राष्ट्रपति जो बाइडन से ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन तक मीडिया के सामने आने लगे और पल-पल की जानकारी लोगों के साथ साझा कर रहे हैं। यह वैसे हालात में हो रहा है जब पश्चिमी मीडिया सेना वापसी के अमेरिकी कदम की तीखी आलोचना कर रहा है। पत्रकारों के सवालों का जवाब जिस धैर्य के साथ ये राष्ट्राध्यक्ष दे रहे हैं, वह देखने लायक है। सवाल भी वैसे नहीं हैं जो हमारे यहां के गोदी पत्रकार पूछते हैं। दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिकी का राष्ट्रपति, विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार लोगों के सामने हैं। उनकी आलोचना करने वालों में विपक्ष ही नहीं सत्ताधारी पक्ष के लोग भी शामिल हैं।  

हमें यह भी देखना चाहिए कि सरकार को किन मुद्दों पर घेरा जा रहा है। ज्यादातर सवाल मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की आजादी और औरतों, बच्चों के अधिकरों, भुखमरी आदि के बारे में हैं। उनकी संवेदनशीलता आपके मन को छू लेती है। तालिबान के आने के बाद आम लोगों के सपने टूट जाने ,खासकर औरतों में फैली निराशा का बयान जो पश्चिमी मीडिया कर रहा है, उसकी जितनी सराहना की जाए वह कम है।

उसकी तुलना हम हमारे यहां हो रही प्रतिक्रियाओं से करें तो मामला साफ हो जाएगा। सबसे बचकाना तो विदेश मंत्री का यह शुरुआती ट्वीट था जिसमें कहा गया कि भारत सरकार अफगानिस्तान के हिंदुओं और सिखों के संपर्क में है। अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस और कनाडा की सरकारें अपने नागरिकों के साथ अफगान नागरिकों को निकालने की बात कर रही थीं और हमने इसमें धर्म को घुसा दिया। सरकार का इशारा पाते ही हमारा मीडिया सक्रिय हो गया और मुल्क की गली-मुहल्लों में तालिबान समर्थक ढूंढने लगा। फिर भाजपा शासित राज्यों की पुलिस भी सक्रिय हो गई। कुछ जगह तालिबान समर्थक नारे लगाने के आरोप में मुकदमे भी दर्ज हो गए। भाजपा नेता विरोधियों को तालिबान समर्थक बताने लगे और अफगानिस्तान  जाने की सलाह देने लगे। उनके साथ नकली कुश्ती करने वाले मुस्लिम नेता भी मैदान में आकर उनकी मदद करने लगे। यही नहीं, भाजपा का आईटी सेल इस प्रचार में भी लग गया कि अफगानिस्तान के हिंदुओं-सिखों को लाने में नागरिकता संशोधन कानून कितना सहायक साबित हो रहा है और यह कानून कितना जरूरी था। इसका विरोध करने वाले विपक्ष को कठघरे में खड़ा करने लगा। यह सब इसके बावजूद हो रहा है कि भारत ने आधिकारिक तौर पर तालिबान को आतंकवादी संगठन नहीं घोषित किया है। वह तालिबान से अपने संबंधों के फैसले पर सोच-विचार में लगा है। जहां तक अफगास्तिान से भारत आने वालों का सवाल  है इसमें हिंदुओं और सिखों के साथ मुसलमान भी हैं।

यह दिखाता है कि सत्ताधारी पार्टी भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस किस तरह अपनी ही विदेश नीति के खिलाफ काम कर रहे हैं। अफगानिस्तान के मुद्दे पर जयशंकर ने 19 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की नीति स्पष्ट की। उन्होंने कहा हम आतंकवाद को किसी धर्म, सभ्यता, राष्ट्रीयता या समुदाय से जोड़ कर नहीं देखते हैं। उन्होंने आतंकवाद को लेकर चीन तथा पाकिस्तान की दोहरी नीति को निशाना बनाया। जयशंकर के बयान और भारत की विदेश नीति को प्रधानमंत्री मोदी ने किस तरह अफ्रगानिस्तान के मुद्दे पर मुंह खोले बगैर खारिज कर दिया, यह देखने लायक है। उन्होंने एक दिन बाद ही जयशंकर के इस बयान की हवा निकाल दी कि धर्म और आतंकवाद को आपस में नहीं जोड़ना चाहिए। उन्होंने इसके लिए सोमनाथ मंदिर के साथ जुड़ी परियोजनाओं के उद्घाटन का कार्यक्रम चुना।

उन्होंने आरएसएस और भाजपा का जाना-पहचाना तरीका अपनाया और सोमनाथ के भाषण में अफगानिस्तान और मुसलमानों का नाम लिए बिना आतंकवाद के हिदुत्ववादी नजरिए को पेश कर दिया जो भारतीय विदेश नीति के विपरीत है। ...ऐसे मौके पर एक आतंकवादी संगठन ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया है, हजार साल पहले गजनी से आए मुस्लिम हमलावर को की याद दिलाना कहां तक उचित है। क्या यह हिंदु भावनाओं को भड़काने के लिए इतिहास का इस्तेमाल नहीं है? प्रधानमंत्री के भाषण में शब्दों का चातुर्य है, लेकिन एक स्पष्ट हिंदूवादी  संदेश है और इस्लाम को आंतकवाद से जोड़ने की साफ कोशिश है।

‘‘जो तोड़ने वाली शक्तियाँ हैं, जो आतंक के बलबूते साम्राज्य खड़ा करने वाली सोच है, वो किसी कालखंड में कुछ समय के लिए भले हावी हो जाएं लेकिन, उसका अस्तित्व कभी स्थायी नहीं होता, वो ज्यादा दिनों तक मानवता को दबाकर नहीं रख सकती। ये बात जितनी तब सही थी जब कुछ आततायी सोमनाथ को गिरा रहे थे, उतनी ही सही आज भी है, जब विश्व ऐसी विचारधाराओं से आशंकित है’’, प्रधानमंत्री मोदी ने कहा।

वह आगे कहते हैं, ‘‘हमारी सोच होनी चाहिए इतिहास से सीखकर वर्तमान को सुधारने की, एक नया भविष्य बनाने की। इसीलिए, जब मैं ‘भारत जोड़ो आंदोलन’ की बात करता हूँ तो उसका भाव केवल भौगोलिक या वैचारिक जुड़ाव तक सीमित नहीं है। ये भविष्य के भारत के निर्माण के लिए हमें हमारे अतीत से जोड़ने का भी संकल्प है। इसी आत्मविश्वास पर हमने अतीत के खंडहरों पर आधुनिक गौरव का निर्माण किया है, अतीत की प्रेरणाओं को सँजोया है।’’

जाहिर है अतीत के ये खंडहर सोमनाथ और अयोध्या में हैं और सांप्रदायिक गोलबंदी के केंद्र बन चुके हैं।

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहीं हिंदू धर्म का नाम नहीं लिया, लेकिन 12 ज्योतिर्लिंगों, 56 शक्तिपीठों और चार धामों को भारत की एकता का आधार बताया। वह रामायण और भगवान बुद्ध से जुड़े तीर्थस्थलों को जोड़ने के अभियान की चर्चा करते हैं। जाहिर है कि इस आख्यान  में मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों के तीर्थों या सूफी मत, इस्लाम, ईसायत या जरथुस्त्र मतों की चर्चा नहीं है। भारत की आधुनिकता को अतीत से जोड़ने के इस अभियान में राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, पेरियार, ज्योतिबा फुले से लेकर महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर भी नहीं हैं जिन्होंने अश्पृश्यता, सती प्रथा, स्त्रियों के शोषण समेत अनेक बीमारियों से भारतीय समाज को मुक्त कराने के अथक प्रयास किए।

मोदी और संघ परिवार का यह आख्यान संविधान के खिलाफ तो है ही, भारतीय विदेश नीति के मूल आधार को भी नष्ट करने वाला है। चुनाव जीतने और सत्ता में किसी तरह बने रहने के लोभ के कारण मोदी बाकी राष्ट्राध्यक्षों की तरह देश के लोगों के सामने आतंकवाद के खिलाफ मजबूती से अपनी बात रखने से बच रहे हैं। वह लोगों को यह नहीं कहना चाहते है कि आतंकवाद का किसी मजहब से कोई संबंध नहीं है। यह कहने के बदले वह संकेतों तथा संदेशों के जरिए हिंदुत्व के एंजेंडे को प्रसारित करने में लगे हैं। इस काम में हर बार की तरह गोदी मीडिया उनके साथ खड़ा है। यह देखने लायक है कि भारत के किसी भी मीडिया हाउस ने काबुल में अपने रिपोर्टर की तैनाती नहीं की है और विदेशी मीडिया से खबरें ले रहा है। वह सांप्रदायिकता का तेल डाल कर लोगों को चनाचूर बेच रहा है। तकलीफ की बात यह है कि मीडिया या सत्ताधारी पार्टी से कोई यह पूछने की हिम्मत नहीं कर रहा है कि उन्हें अपनी ही विदेश नीति और संविधान के खिलाफ काम करने में उसे हिचक क्यों नहीं होती?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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