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लचर पुलिस व्यवस्था और जजों की कमी के बीच कितना व्यावहारिक है 'आंध्र प्रदेश दिशा बिल’?

न्याय बहुत देर से हो तो भी न्याय नहीं रहता लेकिन तुरत-फुरत, जल्दबाज़ी में कर दिया जाए तो भी कई सवाल खड़े होते हैं। यही वजह है कि आंध्र प्रदेश दिशा बिल, 2019 पर भी सवाल उठ रहे हैं कि क्या इससे वाकई पीड़त महिलाओं को इंसाफ़ मिल पाएगा?
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Image courtesy: Twitter

आंध्र प्रदेश विधानसभा ने शुक्रवार, 13 दिसंबर, को एक ऐतिहासिक बिल पास किया। इसे आंध्र प्रदेश दिशा बिल, 2019 (आंध्र प्रदेश आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2019) नाम दिया गया है। इसके अनुसार औरतों के ख़िलाफ़ आपराधिक मामलों के निपटारे की समयसीमा को मौजूदा चार महीने से घटाकर 21 दिन कर दिया गया है। इस विधेयक को महिलाओं के खिलाफ जारी हिंसा को रोकने की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है जो इस बिल की व्यावाहरिकता पर कई सवाल खड़े कर रहा है।

क्या है आंध्र प्रदेश दिशा बिल, 2019?

हैदराबाद दुष्कर्म पीड़िता को दिए काल्पनिक नाम पर बने इस बिल के तहत दुष्कर्म और सामूहिक दुष्कर्म करने वाले अपराधियों को 21 दिनों के अंदर ट्रायल पूरा करके मौत की सजा दी जा सकेगी। वर्तमान में दुष्कर्म के आरोपी को एक निश्चित जेल की सजा दी जाती है जो बढ़कर उम्र कैद या मौत की सजा तक हो सकती है। दिशा विधेयक के तहत दुष्कर्म के मामलों में जहां पर्याप्त निर्णायक सबूत होंगे उनमें अपराधी को मौत की सजा दी जाएगी। यह प्रावधान भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376 में संशोधन करके दिया गया है।

इस नए क़ानून के तहत ऐसे मामलों में जहां संज्ञान लेने लायक साक्ष्य उपलब्ध हों, उसकी जांच सात दिनों में और ट्रायल को 14 कार्यदिवसों में पूरा करना होगा। सारी प्रक्रियाओं को 21 दिन में पूरा करना होगा। निर्भया अधिनियम, 2013 और आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2018 के अनुसार फैसला सुनाने की समयसीमा चार महीने है। इसके लिए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 173 और धारा 309 में संशोधन किया गया और अधिनियम में अतिरिक्त धाराएं लागू की गईं।

इस बिल में आईपीसी की धारा 354(e) और 354 (f) और 354 (g) को जोड़ा गया है। सोशल मीडिया सेफ्टी के लिए कानून के तहत सेक्शन 354(e) के अनुसार अगर कोई शख़्स ई-मेल, सोशल मीडिया और किसी भी डिजिटल प्लेटफार्म पर कुछ ऐसी पोस्ट या तस्वीरें डालता है, जिससे किसी महिला के सम्मान को आघात पहुंचता है तो ये अपराध की श्रेणी में होगा। अगर कोई शख़्स ऐसा पहली बार कर रहा है तो दो साल की सज़ा और दूसरी बार चार साल की सज़ा का प्रावधान है। सोशल मीडिया के महिलाओं के उत्पीड़न को फिलहाल भारतीय दंड संहिता में कोई प्रावधान नहीं है। इसके लिए भारतीय दंड संहिता, 1860 में एक नई धारा 354(ई) को जोड़ा जाएगा।

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इसमें 354 (f) धारा में बाल यौन शोषण के दोषियों के लिए दस से 14 साल तक की सज़ा का प्रावधान है। अगर मामला बेहद गंभीर और अमानवीय है तो उम्र क़ैद की सज़ा भी दी जा सकती है। मौजूदा वक़्त में ऐसे अपराधों के लिए पॉक्सो एक्ट के तहत 3-5 साल तक के लिए जेल की सज़ा का प्रावधान रहा है। पॉक्सो अधिनियम, 2012 के तहत बच्चों के साथ छेड़छाड़/ यौन उत्पीड़न के मामलों में न्यूनतम सजा तीन साल से लेकर अधिकतम सात साल के कारावास तक होती है। बच्चों पर होने वाले यौन हमले के लिए भारतीय दंड संहिता 1860 में नई धारा 354 (एफ) और 354 (जी) को जोड़ा जाएगा।

इस बिल के तहत महिलाओं और बच्चों के अपराधियों के लिए एक रजिस्ट्री बनाई जाएगी। इससे पहले भारत सरकार ने नेशनल रजिस्ट्री ऑफ सेक्शुअल ऑफेंडर्स का एक डाटाबेस शुरू किया था जो डिजिटाइज्ड नहीं है और न ही लोग इसे देख सकते हैं। वहीं दिशा विधेयक में राज्य सरकार एक रजिस्टर बनाएगी जो इलेक्ट्रॉनिक प्लेटफार्म होगा और इसे वूमेन एंड चिल्ड्रन ऑफेंडर्स रजिस्ट्री नाम दिया गया है। यह रजिस्ट्री सार्वजनिक होगी और कानूनी एजेंसियां इसे देख सकेंगी।

दिशा विधेयक के अनुसार राज्य सरकार त्वरित न्याय के लिए हर जिले में एक विशेष अदालत बनाएगी। ये अदालतें विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों, बलात्कार, एसिड हमलों, घूरने, बर्बरता, महिलाओं का सोशल मीडिया के जरिए उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न और पॉक्सो अधिनियम के तहत सभी मामलों से निपटेंगी। राज्य सरकार ने इसके लिए आंध्र प्रदेश स्पेशल कोर्ट फॉर वूमेन एंड चिल्ड्रन एक्ट, 2019 को प्रस्तावित किया है।

वर्तमान में, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ दुष्कर्म के मामलों से संबंधित अपील मामलों के निपटान की अवधि छह महीने है। दिशा विधेयक के तहत दुष्कर्म के मामलों से संबंधित अपील मामलों का निपटान तीन महीने में किया जाएगा। जिसके लिए दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 374 और 377 में संशोधन किए जा रहे हैं।

दिशा विधेयक के तहत सरकार हर जिले में विशेष पुलिस की टीमें बनाएगी जिन्हें 'जिला विशेष पुलिस बल' कहा जाएगा। महिलाओं और बच्चों से संबंधित अपराधों की जांच के लिए इसका नेतृत्व पुलिस उप अधीक्षक करेंगे। सरकार प्रत्येक विशेष अदालत में एक विशेष सरकारी वकील की भी नियुक्त करेगी।

आंध्र प्रदेश ऐसा पहला राज्य है जो इस तरह का बिल लाया है। भले ही इस बिल को महिला सुरक्षा के लिहाज़ से काफ़ी सख़्त और त्वरित बनाने की कोशिश कई गई है और कई लोग इसकी तारीफ़ कर रहे हो, लेकिन कुछ लोग मौजूदा हालात में इसकी व्यावहारिकता पर भी सवाल उठा रहे हैं।

इस बिल पर उठने वाले सवाल

इस बिल के संबंध में आंध्र प्रदेश बार काउंसिल के सदस्य मुपल्ला सुब्बाराव ने बीबीसी से कहा, ''बिना समस्या की जड़ को समझे बिना सिर्फ़ भावनाओं के आधार पर क़ानून बना देना कोई समझदारी की बात नहीं है। त्वरित न्याय को लेकर कई आयोगों और संसदीय समिति की ओर से सिफ़ारिशें मिलीं हैं। नेशनल लॉ कमीशन के अनुसार प्रति दस लाख की आबादी पर कम से कम 50 जज होने चाहिए। लेकिन मौजूदा समय में सिर्फ़ 13 हैं। कई पद खाली हैं। आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट में 24 जज होने चाहिए। लेकिन हैं सिर्फ़ 13। ऐसे में ये कैसे संभव होगा कि 21 दिन के भीतर फ़ैसला सुना दिया जाए?"

वे कहते हैं, "रेप के मामले में फॉरेंसिक लैब की रिपोर्ट आने में ही काफी वक़्त लग जाता है। इस वजह से चार्जशीट फ़ाइल करने में ही एक सप्ताह का वक़्त चाहिए होता है। ऐसे में ये संभव भी कैसे है? ऐसे में अच्छा तो यही होगा कि इस बिल पर एक बार फिर से विचार कर लिया जाए।"

दिशा बिल पर अपनी राय रखते हुए दिल्ली बार काउंसिल की सदस्य आस्था जैन ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में बताया, ‘हमारी पुलिस व्यवस्था की हालत बहुत अच्छी नहीं है, इसी तरह न्यायपालिका में भी जजोंं की स्थिति अच्छी नहीं है। यहां जजों पर बहुत अतिरिक्त बोझ है। पुलिस और जुडिश्यरी दोनों में बड़ी संख्या में पद खाली हैं, करोड़ों मामले लंबित हैैं। ऐसे में क्या कुछ हो पाता है देखना होगा?’

उन्होंने आगे कहा, ‘ जांच का एक पूरा प्रोसेस होता है, जिसे आप जल्दबाज़ी में पूरा नहीं कर सकते हैं। कई बार पीड़ित और आरोपी के सैंपलों की जांच होती है। कपड़ों से लेकर मौका-ए-वारदात पर मिली एक-एक वस्तु का बारिकी से निरीक्षण होता है। ऐसे में ये कानून कैसे व्यावहारिक होगा ये देखना होगा। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम न्याय को कहीं जल्दबाज़ी में अनदेखा कर दें।'

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महिला अधिकारों के संघर्षरत वृंदा सिंह कहती हैं, ‘हमें समस्या के हल की शुरूआत उसके जड़ से करने की जरूरत है। सबसे पहले समाज फिर पुलिस और न्याय की ओर देखना पड़ेगा, सिर्फ भावनाओं के वेग में हम कानून बनाकर जिम्मेदारियों से पल्ला नहीं झाड़ सकते। क्या आज जब कोई महिला मुसिबत में होती है तो उसे जरूरी समय पर मदद मिल पाती है, इसका जवाब नहीं है क्योंकि न तो समाज के लोग और न ही पुलिस व्यवस्था इतनी दुरूस्त है कि उसे सही समय पर सही सहायता मिल पाए। आपको हैरानी होगी की पुलिस के पास पर्याप्त स्टाफ नहीं है, सड़कों पर स्ट्रीट लाइट नहीं है। आप पुलिस के पास जाओ केस दर्ज करवानेे तो वहां जेंडर सेंसिटाइजेशन नाम की कोई चीज़ नहीं मिलती। ऐसे में आप किससे किस बात की उम्मीद करते हो।'

उन्होंने आगे कहा की इस बिल में ऑनर कीलिंग, घरेलू हिंसा, महिलाओं के अपहरण आदि बातों का कोई उल्लेख ही नहीं है, जिनके मामले कहीं अधिक हैं। हम हमेशा अपराध होने के बाद ही क्यों जागते हैं, अपराध की शुरुआत या उसकी सुगबुगाहट पर क्यों नहीं जागते? महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों से कैसे बचें, उन क़दमों का इस नए क़ानून में कोई ज़िक्र ही नहीं है।

इस मामले में अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संगठन की राष्ट्रीय सचिव डी रमा देवी का कहना हैं कि यह बेहद ज़रूरी है कि अपराध की गंभीरता के अनुसार ही दंड दिया जाए लेकिन इस बिल में इसके लिए ज़रूरी तत्व नज़र नहीं आते हैं। आज हकीकत ये है कि अगर कोई 100 नंबर डायल करता है तो उसे सुनकर प्रतिक्रिया देने के लिए भी पर्याप्त स्टाफ़ नहीं है। इस तरह के मुद्दों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। न्यायपालिका में रिक्तियों के मुद्दे के उल्लेख का भी मामला है। महिलाओं के अपहरण के मामले में आंध्र प्रदेश सूची में चौथे स्थान पर है। इनमें से किसी भी मुद्दे का इसमें कोई उल्लेख नहीं है।"

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