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अप्रैल 2020 : भारतीय स्वास्थ्य ढांचे के सामने सबसे बड़ी चुनौती

अगर ग्रामीण भारत में कोविड-19 के चलते ज़्यादा मौतें सामने नहीं आतीं, तो इसकी वजह बेहतर स्वास्थ्य प्रबंधन नहीं, बल्कि कम रिपोर्टिंग होगी।
कोविड-19
image Courtesy: The Financial Express

भारत में कोरोना संक्रमण का क्या परिदृश्य है, इस पर कई अलग-अलग रिपोर्ट हैं। कुछ रिपोर्टों में संक्रमण द्वारा अभूतपूर्व नुकसान की बात कही गई है। उच्च दर्जों के मॉडल के ज़रिए यह बताने की कोशिश की गई है कि कैसे कोरोना वायरस तीन करोड़ या इससे ज़्यादा लोगों को प्रभावित कर सकता है।

वहीं दूसरी ओर कोरोना वायरस रोकने में लॉकडाउन को लागू करने के लिए सरकार की प्रशंसा करती हुई रिपोर्ट हैं, इनमें कहा जा रहा है कि कोरोना वायरस का आंकड़ा कुछ हज़ारों तक ही सीमित रहेगा। 

दूसरी तरह की व्याख्या करने वाले जानकारों का मानना है कि कोरोना वायरस भारत में ज़्यादा गर्मी सहन नहीं कर पाएगा। न ही यह यहां की मज़बूत प्रतिरोधक क्षमता वाली युवा आबादी को बड़ा नुकसान पहुंचा पाएगा। दुनिया की पुरानी महामारियों जैसे SARS, इबोला और निफ़ा वायरस के भारत पर पड़े कम प्रभाव को इसके आधार के तौर पर दर्शाया जा रहा है। फ़िलहाल 4000 संक्रमित लोगों का आंकड़ा इस बात का समर्थन भी करता है।

हम सभी जानते हैं कि भारत एक अरब से ज़्यादा आबादी का देश है। कई इलाक़ों में भयावह ग़रीबी है। मुंबई और कोलकाता जैसे शहर बेहद घनी जनसंख्या वाले शहर हैं। भारत में लाखों लोग रोज़गार के लिए एक से दूसरे राज्य में जाते हैं। ऐसे में लॉकडाउन के चलते लाखों प्रवासी फंस गए हैं। इनमें से कई सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंचे हैं। कमजोर सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे वाले हमारे देश में महामारी का बड़े स्तर पर फैलना भयानक होगा, जिसके गंभीर परिणाम होंगे।

भारत का फ़ौरी अनुमान:

वायरस ने सबसे पहले चीन पर हमला किया, जिसके तुरंत बाद यह जापान और दक्षिण कोरिया पहुंच गया। लेकिन इन देशों में स्थिति अब नियंत्रण में है। इसके एक महीने बाद कोरोना वायरस इटली और दूसरे यूरोपीय देश पहुंचा, जहां स्थिति काफ़ी ख़राब हो चुकी है, लेकिन अब वहां संक्रमण दर का स्थायी होना शुरू हो गया है। फिर यह मध्यपूर्व और दक्षिण एशिया में भारत, पाकिस्तान, यूएई और सउदी अरब तक पहुंचा, इन देशों में अभी सबसे बुरी स्थिति आना बाकी है।

शुरुआती मार्च से सावधानी बरतने वाला दौर शुरू हो गया था, हम लॉकडाउन में कम से कम एक हफ़्ते लेट हो गए। पहले हजार केस 8 हफ़्ते में आए, दूसरे हज़ार सिर्फ़ चार दिन में। अगले हज़ार केस आने में तीन दिन लगे और अब एक-एक हज़ार केस दो दिन में आने शुरू हो रहे हैं।

दूसरे देशों की तरह भारत में भी यह वायरस शायद हवाई रास्ते से पहुंचा। लेकिन यह चीन से आने वाले लोगों के चलते नहीं हुआ। उन सभी को बहुत जल्दी क्वारंटाइन कर दिया गया था। बल्कि प्रायिकता इस बात की ज़्यादा है कि वायरस इटली से आए लोगों की वजह से फैला, इनमें ज़्यादातर पर्यटक थे। शुरूआती मामलों में बड़ी संख्या में इटालियन लोग थे। इसलिए यह तब भारत पहुंचा, जब यह इटली में फल-फूल चुका था। उस दौरान हमारे यहां टेस्टिंग भी काफ़ी कम थी। 

ऐसा अनुमान इसलिए है क्योंकि अमेरिका की तरह हमारे यहां भी शुरूआती दौर में टेस्टिंग कम की गई। इसी कम टेस्टिंग की वजह से अमेरिका में एकदम से सिएटेल जैसी कई जगहों पर कोरोना फैल गया। अभी तक यह साफ नहीं है कि भारत में कहां यह इस तरीके से फैलेगा। हालांकि तबलीगी ज़मात एक नया स्त्रोत बनकर उभरा है। इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि तापमान और आर्द्रता से वायरस के धीमा होगा।  

स्वास्थ्य ढांचा एक चुनौती है:

भारत में वायरस को बढ़ावा देने के लिए कई दूसरी समस्याएं मौजूद हैं। जैसे पूरे देश में स्वास्थ्य ढांचा और इसकी क्षमता कमजोर है। देश में दो हजार लोगों पर एक हॉस्पिटल बेड है, यह आंकड़ा काफ़ी कम है। यह ब्रिटेन की क्षमता का पांचवा हिस्सा है। ऊपर से इनपर टीबी, न्यूमोनिया, ज़्यादा प्रदूषण और धू्म्रपान से ऊपजी दूसरी श्वांस संबंधी बीमारियों को बोझ भी है। इसलिए आबादी में बीमारी की दिशा साफ नहीं हो सकती। बता दें भारत में शुरूआती स्तर पर ही 53 डॉक्टर पॉजिटिव हो चुके हैं।

ऊपर से देश के एक तिहाई युवा हायपरटेंशन का शिकार हैं। वहीं इन युवाओं का दसवां हिस्सा डॉयबेटिक भी है। इससे भी समस्या बढ़ेगी। वो तो अच्छा हुआ कि ICMR ने लक्षण वाले मरीजों की बड़े स्तर पर टेस्टिंग कराने का फैसला लिया है।

यह तय है कि कुछ समुदायों में संक्रमण फैलना शुरू हो गया है। हमने मुंबई की झुग्गियों में ऐसे मामले देखे हैं, यह दुनिया की सबसे बड़ी झुग्गी आबादियों में से एक है। लाखों लोग वहां पास-पास रहते हैं। इसके अलावा 4000 लोगों वाले तबलीगी मरकज से दिल्ली, तमिलनाडु और तेलंगाना में संक्रमण फैला। 

दिल्ली-एनसीआर से बड़ी संख्या में प्रवास, तिरूपति और अयोध्या में भक्तों की भारी भीड़ और जनता कर्फ्यू के दिन बड़े स्तर के जश्न भी जैसीं चीजें भी इसके बाद हुईं। अगले दो हफ़्तों में इसके नतीजे पता चलेंगे कि इनमें से कोई वायरस का संवाहक था या नहीं। भारत में 65 साल की आबादी से ज़्यादा वाले लोगों का समूह चीन और इटली से कम है। इससे एक तरह की सुरक्षा मिलेगी। लेकिन वायरस के दूसरे लोगों पर प्रभाव को भी फिलहाल साफ नहीं किया जा सकता।

लॉकडाउन पर विमर्श:

एक तरह से सरकार का शटडॉउन का आदेश सही लगता है, हालांकि यह देर से आया। वही दूसरी तरफ से यह नोटबंदी की तरह ही बिना सोचे समझे लागू किया गया। बता दें लॉकडाउन के पहले ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में दो दिन और सिंगापुर में तीन दिन का वक्त दिया गया था। हमारे यहां लॉकडाउन के प्रभावों पर भी गंभीरता से नहीं सोचा गया। इस लॉकडाउन का मानवीय नुकसान काफ़ी ज़्यादा है। अभी हमने इस कहानी का अंत नहीं देखा है। फ्लिच के मुताबिक़ अगली तिमाही में जीडीपी में दो फ़ीसदी की कमी आएगी। बिजनेस डेली का कहना है कि औपचारिक क्षेत्र में इसके चलते 70 लाख लोगों की नौकरियां जाएंगी। 

आमतौर पर राजनेता सक्रिय तरीके से मृत्यु को रोकने की कोशिश नहीं करते। क्योंकि उन्हें लगता है कि जनता उन्हें इसे रोकने का श्रेय नहीं देगी। शायद इसलिए भारत सरकार ने लॉकडाउनक का निर्णायक फैसला लिया। हालांकि इसकी योजना काफ़ी बुरे तरीके से बनाई गई थी और इससे बनने वाले आर्थिक हालातों के लिए भी हम तैयार नहीं हैं।

ग्रामीण चुनौतियां:

बीमारियों की सूचना देने के लिए भारत में काफ़ी कमजोर ढांचा है। इसलिए हमें ग्रामीण भारत में कोरोना के मामलों या मौतों की सही जानकारी नहीं मिलेगी, क्योंकि उन्हें रिकॉर्ड नहीं किया जाएगा। पहले ही भारत में कुल मौतों का सिर्फ पांचवा हिस्सा रिकॉर्ड किया जाता है। पूरे भारत में स्वास्थ्य मानकों में भारी अंतर है। इसके लिए राज्य सरकारों का रवैया ज़िम्मेदार है। उदाहरण के लिए केरल में स्वास्थ्य सूचक काफ़ी शानदार हैं, लेकिन बिहार के कुछ हिस्सों में अफ्रीका से भी कमजोर स्वास्थ्य सूचकांक हैं।

हम यह भी नहीं जानते कि कोरोना का ग्रामीण भारत में भूख और पोषण पर क्या असर पड़ेगा। भारत के पास अपने लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त राशन भंडार है। लेकिन  यह साफ नहीं है कि उन इलाकों में जल्दी अनाज पहुंच पाएगा या नहीं।

अब जब पूरा ढांचा कोरोना से लड़ने के काम कर रहा है, तब मलेरिया और टीबी जैसी बीमारियां भी नियंत्रण से बाहर हो सकती हैं। इबोला के वक़्त ऐसा पश्चिमी अफ्रीका में हुआ था। कई देश जो महामारी का सामना कर रहे हैं, उनके स्वास्थ्य सेवाओं पर बुरी मार पड़ी है।

भारत का बड़ा हिस्सा अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से बनता है। यह लोग कृषि पर निर्भर होते हैं। लॉकडाउन के चलते अपनी फ़सल को बेचने में नाकामयाब रहने के चलते उत्पादन पर असर पड़ा है। साथ ही यहां प्रवासियों का भार भी रहेगा, जो पहले शहरों में काम कर रहे थे और अपने घर गांव में पैसे भेज रहे थे। अब यह लोग बेरोज़गार रहेंगे। इससे ग्रामीण भार बढ़ेगा। ग्रामीण भारत पर स्वास्थ्य और आर्थिक स्तर पर बड़ी मार पड़ेगी।

यह हो सकता है रास्ता :

बड़े स्तर पर स्वास्थ्य इंफ्रास्ट्रक्चर को बनाया जाना आपात जरूरत है।  इसके तहत बड़ी संख्या में सामुदायिक तौर पर लक्षित कोरोना वायरस की जांच की जानी जरूरी है। स्वास्थ्यकर्मियों के लिए सुरक्षा सामान, पांच लाख वेंटिलेटर, लाखों मास्क और ग्लव्स, बड़ी मात्रा में दवाईयों और दूसरी चीजों की जरूरत है। भारत में निजी और सरकारी स्वास्थ्यकर्मियों, बैंककर्मियों, सफाईकर्मियों और जरूरी सामान की आपूर्ति में लगे लोगों को पूर्ण बीमा और यात्रा सुरक्षा दिए जाने की जरूरत है। 

सभी ईएमआई, किराये और निजी कर कों कम से कम तीन और ज़्यादा से ज़्यादा 6 महीनों के लिए रद्द किया जाना चाहिए। जनधन योजना धारकों और पीएम किसान के लाभार्थियों को तुरंत पांच हजार रुपये मिलने चाहिए। साथ ही मनरेगा मज़दूरों को तीन महीने का अग्रिम पैसा दिया जाना होगा। बुजुर्गों को तीन महीने का वेतन उनके अकाउंट में पहुंचाया जाना चाहिए। 

यह सब करने के लिए भारत को अपने 2।7 ट्रिलियन इकनॉमी के पांच फीसदी हिस्से को खर्च करना होगा। यह आंकड़ा करीब 9 लाख करोड़ रुपये होता है। अभी तक भारत सरकार ने सिर्फ 1।7 लाख करोड़ रुपये का आवंटन किया है। यह दूसरे देशों की तुलना में काफ़ी कम है। जर्मनी में 18 फ़ीसदी, ब्रिटेन में 14 फ़ीसदी, यूएसए में 8 फ़ीसदी और चीन में चार फ़ीसदी जीडीपी के हिस्से को कोरोना से लड़ाई में लगाया गया है।

उम्मीद है कि हम देर होने से पहले यह पाठ सीख लेंगे। 2020 में अप्रैल का महीना भारत के लिए बेहद अहम है। हमें तुरंत क़दम उठाने होंगे।

लेखक कोलकाता स्थित एडामस यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

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