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दुनिया भर की: चुनाव बार-बार हों तो होते रहें, नेतन्याहू को क्या फ़र्क पड़ता है!

इस्राइल में दो साल में चार चुनाव लेकिन गतिरोध कायम, अब फिर से चुनाव कराने का हो रहा विरोध।
दुनिया भर की: चुनाव बार-बार हों तो होते रहें, नेतन्याहू को क्या फ़र्क पड़ता है!
इस्राइल में नेतन्याहू के ख़िलाफ़ प्रदर्शन। फोटो साभार

इस्राइल में पिछले दो साल में चार आम चुनाव हो चुके हैं और इसी मार्च में हुए चौथे चुनाव के बाद उपजी स्थितियों का मूल्यांकन करने वाले मान रहे हैं कि जल्दी ही पांचवी बार चुनाव होने की तैयारी है। बार-बार चुनाव की नौबत इसलिए आन पड़ रही है क्योंकि किसी भी पार्टी को सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिल रहा और न ही साथ मिलकर सरकार चलाने को तैयार पार्टियों का कोई गठबंधन बन पा रहा है। लेकिन साथ ही दूसरी तरफ पिछले कुछ दिनों से इस्राइल में पांचवी बार चुनाव कराने के खिलाफ़ और प्रधानमंत्री नेतन्याहू के विरोध में प्रदर्शन तेज हो रहे हैं।

वैसे इस्राइल के इतिहास में कभी किसी एक पार्टी को चुनाव में बहुमत नहीं मिला हैइसलिए वहां हमेशा गठबंधन सरकारें ही सत्ता में रही हैं। वहां की निर्वाचित संसद यानी कनेसेट में 120 सीटें हैं और उसकी सीटें समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर तय होती हैंयानी जिस पार्टी को मतदान में जितने प्रतिशत वोट हासिल होते हैंउसी अनुपात में उसे संसद में सीट मिलती हैं। कनेसेट का कार्यकाल चार साल का होता है।

बहरहालपिछले चार चुनावों में लिकुड पार्टी के नेता और मौजूदा प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू सरकार बनाने के लिए कोई गठबंधन तैयार करने में नाकाम रहे हैं। नेतन्याहू 2009 से ही प्रधानमंत्री हैं और वह इस कुर्सी पर सबसे लंबा समय बिताने वाले इस्राइली नेता हैं।

डोनाल्ड ट्रंपव्लादिमीर पुतिन और ब्राजील के जेयर बोलसोनारो की ही कतार में इस्राइल के नेतन्याहू भी दुनिया के उन नेताओं में से एक रहे हैं जिनको लेकर लोगों की राय में बहुत तीखी नफरत और खालिस अंधभक्ति के ही दो पाले अक्सर रहे हैं। बीच का मत यानी तटस्थ भाव रखने वाले कम ही होंगे। यह केवल संयोग या कूटनीतिक जरूरत का तकाजा नहीं है कि इनमें से सभी से गहरी दोस्ती का ढोल हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पीटते रहे हैं।

खैरइस्राइल में अब हाल यह है कि नेतन्याहू खुद तो सरकार बना नहीं पा रहे हैं और किसी दूसरे की सरकार वह बनने नहीं दे रहे हैं। भले ही उनकी लिकुड पार्टी को चुनावों में सबसे ज्यादा सीटें मिल जा रही होंलेकिन वह बाकी पार्टियों में से इतनों को अपने साथ लेकर नहीं आ पा रहे हैं कि सरकार बना सकें। हर बार वह सत्ता संभालते हैंहर बार सरकार गिर जाती है और फिर से चुनाव करा लिए जाते हैं।

अब सबसे बड़ी विडंबना देखिए। 2015 में बनी सरकार के चार साल पूरा होने के बाद अप्रैल 2019 में जब निर्धारित रूप से चुनाव हुएतो नई सरकार को चार साल काम करना था। वह तो हुआ नहींइसलिए सितंबर 2019 मेंफिर मार्च 2020 में और अब मार्च 2021 में फिर से चुनाव हुए। अब अगर फिर से कोई बहुमत वाली सरकार नहीं बन पाती है तो कुछ समय बाद फिर से चुनाव होंगे। (नेतन्याहू के पास करीब 42 दिन इसके लिए हैं।) लेकिन इस सारे दौरान इस्राइल के प्रधानमंत्री और सुप्रीम नेता नेतन्याहू ही बने रहे। यानी सरकार बनाने लायक बहुमत न जुटा पाने के बावजूद प्रधानमंत्री पद की कुर्सी व सत्ता पर वह काबिज रहे। और मुमकिन है कि कुछ महीने बाद चुनाव हों तोफिर से चुनाव होने और उनके नतीजे आने और जोड़-तोड़ होने तक वह डटे रहें।

मतलब यह है कि अप्रैल 2019 में अगर कोई सरकार चार साल के कार्यकाल के लिए सत्ता में आती तोउसके चार में से दो साल तो नेतन्याहू पहले ही बहुमत जुटाए बगैर कुर्सी पर गुजार चुके हैं और कुछ समय और निश्चित तौर पर गुजार लेंगे। फिर भला उन्हें चुनावों की क्या परवाह! हर पांच-सात महीने में होते हैं तो होते रहेंसरकार वह चलाते रहेंगे। और यह कोई कामचलाऊ सरकार नहीं है,  सारे महत्वपूर्ण फैसले लेने वाली सरकार है।

पिछले कुछ समय में इस्राइल ने एक तरफ तो खाड़ी के देशों को लुभाकर उनसे पहली बार विमान सेवाएं शुरू करने के लिए रिश्ते बना लिए हैं। दूसरी तरफ वह एक के बाद एक ईरान के ठिकानों को निशाने पर ले रहा है। फिलस्तीन के मसले पर भी उसका अड़ियल रवैया कायम है और अभी कुछ ही दिन पहले उसने फिलस्तीन में युद्ध अपराधों की पड़ताल कर रहे अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय (आईसीसी यानी इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट) की हैसियत को स्वीकार करने से साफ मना कर दिया। मजेदार बात यह है कि खाड़ी देशों को लुभाकर आर्थिक हित साधने की कोशिश करने वाले नेतन्याहू यामिना जैसी घोर दक्षिणपंथीअरब-विरोधी पार्टियों से हाथ मिलाने की फिराक में हैं जो यह मानती हैं कि अरब लोगों की पार्टियों की इस्राइल में कोई जगह नहीं है।

नेतन्याहू का मसला इसलिए भी संगीन है क्योंकि उनके और उनके परिवार के खिलाफ़ भ्रष्टाचार के मामलों की छानबीन चल रही है। वह पहले प्रधानमंत्री हैं जिनके खिलाफ पद पर रहते हुए इस तरह की पड़ताल चल रही है। लेकिन कई सालों से चल रही यह पड़ताल किसी नतीजे पर नहीं पहुंच रही है। वह उन तमाम सिद्धांतों को जूते की नोंक पर रखे हुए हैं जिनकी दुहाई दे-देकर उन्होंने 2009 में एहुद ओल्मर्ट की सरकार गिरवाई थी।

 

शनिवार को पूरे इस्राइल में नेतन्याहू के खिलाफ प्रदर्शन हुएअलग-अलग जगहों पर- जिनमें नेतन्याहू का सरकारी व निजी निवास भी शामिल था। प्रधानमंत्री के सरकारी आवाज से राष्ट्रपति के आवास तक मार्च निकाले गए। लोगों की मांग थी कि वह पद से इस्तीफा दें और उनके अलावा किसी और पार्टी की सरकार बने क्योंकि लोग पांचवी बार चुनाव नहीं चाहते हैं।पिछले चार चुनाव यह साबित कर चुके हैं कि लोग बदलाव चाहते हैं। आपको बता दें कि पिछले साल कोरोना संकट के बीच में गर्मियों में तेल अवीव व यरुशलम में हजारों लोगों ने नेतन्याहू के खिलाफ प्रदर्शन किए थे। लेकिन तमाम विरोध नेतन्याहू के जुगाड़ के आगे बेअसर साबित हो जा रहे हैं।

यही वजह है कि कई स्वतंत्र इस्राइली प्रेक्षक यह मानते हैं कि नेतन्याहू के अधीन इस्राइल की लोकतांत्रिक व्यवस्था लगातार छीज रही है और उन्हीं के लफ़्ज़ों में कहा जाए तो इस्राइली लोकतंत्र की प्रतिरोधक क्षमता यानी इम्युनिटी खत्म होती जा रही है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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