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कला विशेष: एक प्रतिबद्ध चित्रकार चित्त प्रसाद की याद

चित्रकला में प्रांत और प्रदेश की संकीर्ण सीमाओं को पार कर चित्त प्रसाद भारतीय मज़दूर, किसान और कामगारों को अपने वर्ग से परिचित कराते हैं। चित्रकला में ऐसी भारतीयता पहली बार वे ही ला सके‌ थे। हालांकि इस पर महान कला आलोचकों की नज़र कभी नहीं पड़ी।
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भारत में चित्रकला की एक लंबी परंपरा रही है। वो चाहे भीम बैठका के शैलचित्रों हों या देश भर में ढेरों पहाड़ी गुफाओं में प्राचीन मानव सभ्यता के शैलचित्र। अजन्ता, बाघ और एलोरा के (म्यूरल) वॉलचित्र हों या फ़िर विभिन्न राजाओं और बादशाहों के दरबार में पनपी लघु चित्रकला (मिनिएचर) हो, जिसकी भी अनेकों शैलियां हैं। लेकिन राज्याश्रित होने के कारण अधिकांश चित्रों के विषय धार्मिक या राजा-महाराजाओं के जीवन शैली की अभिव्यक्ति हैं। अनेक भारतीय लोककलाएं ज़रूर जनजीवन से जुड़ी हुई हैं लेकिन अगर भारतीय यथार्थवादी परंपरा की शुरूआत देखी जाए तो यह रवीन्द्रनाथ ठाकुर और अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों में देखी जा सकती है। बाद के दौर में अमृता शेरगिल, रज़ा आरा, सुज़ा और एम.एफ. हुसैन प्रमुख थे परंतु आज़ादी के ठीक बाद दुर्भाग्यवश कला व्यापारियों के सुगठित साज़िशों के चलते आधुनिक भारतीय चित्रकला के जिन चित्रकारों को प्रगतिशील कहते हुए एक प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप (जिसमें रज़ा, सुज़ा और हुसैन प्रमुख थे) बनाकर विश्व बाज़ार में चित्रकला के नाम पर माल का व्यापार शुरू किया उनके उस प्रयास से राष्ट्रीय कला संस्थान समर्थ सहयोगी की भूमिका में कार्यरत है। इसके परिणामस्वरूप 6 दशकों में भारतीय चित्रकला में प्रगतिशील कलाकारों के नाम पर कुछ यौन विकृत, कुछ धर्मपरायण, कुछ तंत्रसाधक और कुछ महज़ नक्काशीकारों का ही बोलबाला था। प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के अनेक चित्रकार कम्युनिस्ट पार्टी से भी जुड़े लेकिन स्थापित होने के बाद वे उससे अलग हो गए और ‌कला बाज़ार की मांग के अनुसार चित्र बनाने लगे।

हम देखते हैं कि हज़ारों वर्षों के भारतीय चित्रकला के इतिहास में पहली बार अमृता शेरगिल और रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने राजा-रानी और देवी-देवताओं से मुक्त होते हुए आम जनता को अपने चित्रों में स्थान दिया। उस विरासत को आगे बढ़ाने में चित्त प्रसाद की कला का बहुत योगदान है। अधिकांश कला समीक्षकों ने उनकी कला की अनदेखी की और पाठ्यपुस्तकों में उनकी कला को कोई स्थान नहीं मिला। इसका कारण यह है कि वे कम्युनिस्ट पार्टी से आजीवन जुड़े रहे तथा आम जनता के सुख-दु:ख और‌ जन संघर्षों पर चित्र बनाते रहे। अधिकांश आधुनिक कला गैलरियों में उनके चित्र देखने को नहीं मिलते।

अभी हाल में एक्टिविस्ट और प्रगतिशील चित्रकार -अशोक भौमिक- जो खु़द प्रगतिशील कला आंदोलन से जुड़े हैं उनकी एक महत्वपूर्ण किताब 'चित्त प्रसाद और उनकी चित्रकला' नाम से आई है जो नवारुण प्रकाशन,गाज़ियाबाद से प्रकाशित हुई है। इससे पहले भी अशोक भौमिक चित्त प्रसाद की कला पर देश के विभिन्न भागों में गोष्ठियां, सेमिनार और कला प्रदर्शनियां करते‌ रहे हैं। चित्त प्रसाद एक जनपक्षधर चित्रकार थे उन्हें अपनी कला की प्रदर्शनी करने में कोई रुचि नहीं थी। यही कारण है कि उनके अधिकांश चित्र निजी संग्रहकर्ताओं के पास है अथवा न्यू एज तथा लोक लहर जैसी कम्युनिस्ट पार्टी की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। पुस्तक के लेखक को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने बहुत मेहनत से चित्त प्रसाद के चित्रों को एकत्र किया और बृहत पुस्तक के रूप में संकलित किया। चित्त प्रसाद के चित्र अन्य कम्युनिस्ट देशों जैसे रूस, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, बुल्गारिया आदि के कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यपत्रों में भी प्रकाशित हुए हैं परंतु पीपुल्स पब्लिकेशन हाउस (पीपीएच) द्वारा इन्हें संग्रहित और प्रकाशित न कर पाने के कारण बहुत से चित्र अब नहीं मिलते हैं।

इस पुस्तक के लेखक ने बहुत परिश्रम से उन्हें संग्रहित कर पुस्तक में प्रकाशित करने का प्रयास किया है। 12 अध्यायों में बंटी इस पुस्तक में चित्त प्रसाद के सौ से अधिक रंगीन एवं श्वेत-श्याम चित्र हैं जिनमें चित्रों के साथ-साथ रेखाचित्र भी हैं। इस पुस्तक के पहले अध्याय में 'चित्त प्रसाद होने का अर्थ' में लेखक लिखते हैं कि बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक आते-आते बुद्धिजीवियों का एक विशाल वर्ग प्रगतिशील और जनोन्मुख विचारों की ओर आकर्षित होने लगा। रूस की क्रांति तथा प्रथम विश्वयुद्ध के बाद यूरोप में हो रहे सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की पृष्ठभूमि में नये-नये वैचारिक बहसों का यह एक महत्वपूर्ण दौर था। इन सब विचारों ने बुद्धिजीवियों के लिए नये-नये रास्ते तलाशने की हिम्मत दी। राष्ट्रवादी आंदोलन भले ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद से भारतीय जनता के मुक्ति की लड़ाई हो परंतु इसके साथ ही यह लड़ाई उस सामंती व्यवस्था से भी थी जिसे भारतीय जनता हज़ारों साल से झेल रही थी। बंगाल में जो भी सुधारवादी आंदोलन चले उससे जिस जनजागरण की रोशनी मिली वह अभिजात्य वर्गों तक ही सीमित रह गई।

राष्ट्रीय आंदोलन की इन सीमाओं को देखते हुए बड़े पैमाने पर बुद्धिजीवी कम्युनिस्ट पार्टी के निकट आए। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किसान संगठन, मज़दूर संगठन और छात्र संगठन तो बने हीइस के समानांतर प्रगतिशील लेखक संघ, फासीवाद विरोधी लेखक-कलाकार संघ और इप्‍टा जैसे संगठनों ने साहित्यकारों, चित्रकारों, रंगकर्मियों और गीतकारों को एक नयी ज़मीन प्रदान की।

इस दौरान बंगाल में पड़े 1943 के भयंकर अकाल ने लोगों को कला, राजनीति और समाज से जुड़े तमाम सवालों के रूबरू खड़ा कर दिया। भारतीय कला के इतिहास में निश्चय ही यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था जिसमें प्रतिबद्ध रचनाकारों के विशाल समूह ने भूख से मरते लोगों को अपनी रचनाओं में अमर कर दिया। चित्त प्रसाद ऐसे ही दौर में बंगाल के विभिन्न प्रांतों में घूम-घूमकर अकाल की विभीषिका को अपने चित्रों में दर्ज़ कर रहे थे। ये चित्र मूलत: पार्टी के अख़बारों में रिपोर्ताज के साथ छपते थे पर इन चित्रों को महज़ इलुस्‍ट्रेशन या फोटो यथार्थ के समकक्ष मानकर उन्हें कमतर नहीं आंक सकते। अस्पताल में मरणासन्न बीमार व्यक्ति हो या सड़क के किनारे दम तोड़ता अकाल पीड़ित हो, चित्त प्रसाद ने इन्हें बनाते हुए भारतीय चित्रकला के इतिहास में एक ऐसा अध्याय रच डाला, जिसने अनेक तत्कालीन रचनाकारों को अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध रचने की सर्वथा नयी भाषा से परिचित कराया। साथ ही यह जनवादी पत्रकारिता के एक विरल अध्याय की शुरूआत थी जो अपनी सतही स्वरूप में व्यंग्यचित्र (कैरीकेचर) के क़रीब होकर भी एक मर्मस्पर्शी ज़िम्मेदारी निभाने में समर्थ रहा।

चित्त प्रसाद के अनेक चित्रों में 'भगतसिंह की शहादत, कश्मीर का जन आंदोलन, तेलंगाना का किसान विद्रोह, मुम्बई में नाविकों का विद्रोह' सब उनके चित्रों में बार-बार आते रहे हैं। उनके चित्र देश की विशाल जनता को उनके संघर्षों की समानता और प्रतिरोध की अनिवार्यता के आधार पर एक-दूसरे से जोड़ते हैं। चित्रकला में प्रांत और प्रदेश की संकीर्ण सीमाओं को पार कर चित्त प्रसाद भारतीय मज़दूर, किसान और कामगारों को अपने वर्ग से परिचित कराते हैं। चित्रकला में ऐसी भारतीयता पहली बार वे ही ला सके‌ थे हालांकि इस पर महान कला आलोचकों की नज़र कभी नहीं पड़ी। उनके चित्रों में हम बार-बार सत्ता द्वारा संचालित हिंसक पुलिस के ख़िलाफ़ जनता के सशस्त्र प्रतिरोध को देख सकते हैं। डाक-तार कर्मचारियों के आंदोलित दल फुटपाथ पर जीते काम करते और थककर कथरी ओढ़कर सो जाने वाले उन बच्चों से परिचित होते हैं जिनके लिए सैंकड़ों वर्षों से भारतीय चित्रकला के स्वर्णमहल के फ़ाटक सभी ओर से बंद रहे हैं।

भारतीय चित्रकला के लम्बे इतिहास में जहां महिलाओं के प्रति उपेक्षा या अपमान ही दिखता है, वहीं चित्त प्रसाद अपने चित्रों में उस कलंकित इतिहास की धारा को मोड़ देते हैं। महिलाओं को पुरुषों के समानांतर जीवन संघर्ष की ज़मीन पर स्वाभिमान के साथ पहली बार स्थापित करते हैं। उनके चित्रों में महिलाएं अपने बच्चों को गोद में लिए हुए राजनीतिक जलसों में शामिल होती दिखती हैं तो कहीं उन्हें हम सशस्त्र प्रतिरोध की पहली कतार में युद्धरत पाते हैं। इसी प्रकार वे अपने चित्रों में बच्चों को अपनी पूरी मासूमियत और बेबसी के साथ लाकर उनकी बदहाली के लिए पूरे समाज को कटघरे में खड़ा करते हैं। 'जिन फ़रिश्तों की कोई परीकथा नहीं' उनकी ऐसी एक बेमिसाल चित्रों की श्रृंखला है।

चित्त प्रसाद ने केवल राजनीतिक श्रृंखला के चित्र भी नहीं बनाए बल्कि जलरंगों का प्रयोग करके प्राकृतिक दृश्यों नारी जीवन की विभिन्न छवियों के भी चित्र बनाए। इस पुस्तक की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि उनके समकालीन रहे ढेरों व्यक्तियों और चित्रकारों के संस्मरण भी संग्रहित हैं, जो इसे महत्वपूर्ण बनाते हैं। 40 के दशक में अन्य चित्रकारों ने भी अनेक ऐसे ही जन पक्षधर चित्र बनाए, पर चित्त प्रसाद कभी भी चित्र ‌रचना के अपने उद्देश्य से नहीं डिगे और आजीवन जनता के लिए एवं जनता के ही चित्र बनाते रहे। बीसवीं सदी की भारतीय चित्रकला में समय और समाज का सार्थक प्रतिबिंबन उनके चित्रों से ज़्यादा अर्थपूर्ण ढंग से किसी और चित्रकार के चित्रों में नहीं हुआ।‌ चित्त प्रसाद और उनके चित्रों को जानने-समझने के प्रयासों में देर अवश्य हुई है और इसीलिए भारतीय जनता के बीच उनका बेहद अपना चित्रकार ही लम्बे समय तक अपरिचित रहा। इसी कारण यह स्वाभाविक ही था कि न तो सरकारी कला संस्थानों और अकादमियों को एवं न ही कला व्यापारियों को चित्त प्रसाद की जन्मशतीे वर्ष में उन्हें याद करने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।

साहित्य में प्रेमचंद ने पहली बार किसान, मज़दूर और श्रमजीवियों को एक नायक के रूप में प्रस्तुत किया तो चित्त प्रसाद ने पहली बार अपने चित्रों में एक क़दम आगे बढ़कर उन नायकों को मुक्ति के लिए एक नया इतिहास रचते दिखाया। निश्चित रूप से इस पुस्तक के लेखक अशोक भौमिक बधाई के पात्र हैं जिन्होंने बहुत परिश्रम से एक गुमनाम चित्रकार की कृतियों को खोजकर एक पुस्तक के रूप में प्रस्तुत किया। आज जब साहित्य विचार और पत्रकारिता का अंधा युग चल रहा है उस समय चित्त प्रसाद जैसे चित्रकारों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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