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ख़्वाजा अहमद अब्बास: सियासत के बिना कोई भी अदबी काम नामुमकिन है

अब्बास को भले ही फ़िल्मकार के तौर पर अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली हो, लेकिन बुनियादी तौर पर वे एक बेहतरीन अदीब थे। उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा। आज 7 जून उनके जन्मदिवस के मौके पर विशेष आलेख-
Khwaja Ahmad Abbas
फ़ोटो साभार: Google Arts & Culture

तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े हुए क़लमकारों और कलाकारों की फ़ेहरिस्त में ख़्वाजा अहमद अब्बास का नाम बहुत अदब से लिया जाता है। तरक़्क़ीपसंद तहरीक के वे रहबर थे और राही भी। भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा के वे संस्थापक सदस्यों में से एक थे।

मुंबई में जब 25 मई, 1943 को इप्टा का स्थापना सम्मेलन हुआ, तो उन्हें संगठन के कोषाध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी सौंपी गई, जिसे उन्होंने कई बरसों तक बख़ूबी निभाया। इप्टा का दूसरा और तीसरा राष्ट्रीय सम्मेलन भी साल 1944 और 1945 में मुंबई में ही हुआ। इस दरमियान ख़्वाजा अहमद अब्बास ने इप्टा की सांगठनिक समितियों में अहम भूमिका निभाई। इप्टा के उस केन्द्रीय दल के हिस्सा बने, जिसमें उदय शंकर, शांति बर्धन, बिनय राय, प्रेम धवन, रवि शंकर, चित्तप्रसाद, शंभु मित्रा, गुलबर्धन, बलराज साहनी और अली अकबर ख़ान आदि एक से बढ़कर एक शख़्सियात शामिल थीं।

हरफ़नमौला शख़्सियत के धनी अब्बास साहब फ़िल्म निर्माता, निर्देशक, कथाकार, पत्रकार, उपन्यासकार, नाटककार, पब्लिसिस्ट और देश के सबसे लंबे समय तक़रीबन बावन साल तक चलने वाले नियमित स्तंभ ‘द लास्ट पेज़’ के स्तंभकार थे। देश में समानांतर या नव-यथार्थवादी सिनेमा की जब भी बात होगी, अब्बास का नाम फ़िल्मों की इस मुख़्तलिफ़ धारा के रहनुमाओं में गिना जाएगा।

ख़्वाजा अहमद अब्बास ने उस वक़्त लिखना शुरू किया जब देश अंग्रेज़ों का ग़ुलाम था। पराधीन भारत में लेखन से समाज में अलख जगाना, उस वक़्त सचमुच एक चुनौतीपूर्ण काम था, पर उन्होंने यह चुनौती क़बूल की और ज़िंदगी के आख़िर तक अपनी क़लम को ख़ामोश नहीं होने दिया।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अब्बास जिस सबसे पहले अख़बार से जुड़े, वह ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ था। इस अख़बार में बतौर संवाददाता और फ़िल्म समीक्षक उन्होंने साल 1947 तक काम किया। अपने दौर के मशहूर साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ से उनका नाता लंबे समय तक रहा। इस अख़बार में प्रकाशित उनके कॉलम ‘लास्ट पेज़’ ने उन्हें देश भर में काफ़ी शोहरत दिलाई। अख़बार के उर्दू और हिंदी संस्करण में भी यह कॉलम क्रमशः ‘आज़ाद क़लम’ और ‘आख़िरी पन्ने’ के नाम से प्रकाशित होता था। अख़बार में यह कॉलम उनकी मौत के बाद ही बंद हुआ।

‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ और ‘ब्लिट्ज’ के अलावा ख़्वाजा अहमद अब्बास ने कई दूसरे अख़बारों के लिए भी लिखा। मसलन ‘क्विस्ट’, ‘मिरर’ और ‘द इंडियन लिटरेरी रिव्यू’। एक पत्रकार के तौर पर उनकी राष्ट्रवादी विचारक की भूमिका और दूरदर्शिता का कोई सानी नहीं है। अपने लेखों के जरिए उन्होंने समाजवादी विचार लगातार लोगों तक पहुंचाए। उनके लेखन में समाज के मुख़्तलिफ़ पहलुओं का तफ़्सील से ब्यौरा मिलता है। अपने दौर के तमाम अहमतरीन मुद्दों पर उन्होंने अपनी क़लम चलाई।

तरक़्क़ीपसंद तहरीक का अब्बास के विचारों पर काफ़ी असर रहा। मुंबई में विक्टोरिया गार्डन के नज़दीक उनके छोटे से कमरे में प्रगतिशील लेखक संघ की लगातार बैठकें होतीं थीं। जिसमें हिंदी, मराठी, उर्दू, गुजराती और कभी-कभी कन्नड़ एवं मलयालम के जाने-माने लेखक शरीक होते। मुंबई में हुए प्रगतिशील लेखक संघ के चौथे राष्ट्रीय सम्मेलन में उन्हें कृश्न चंदर के साथ संयुक्त सचिव चुना गया।

अपनी स्थापना के कुछ ही दिन बाद, इप्टा का सांस्कृतिक आंदोलन जिस तरह से पूरे मुल्क में फैला, उसमें ख़्वाजा अहमद अब्बास का अहम रोल है। उस ज़माने में इप्टा के जो भी बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रम बने, उसमें उनका अमूल्य योगदान है। अब्बास, ने इप्टा के संगठनात्मक कामों के अलावा उसके लिए ख़ूब नाटक लिखे। यही नहीं कई नाटकों का निर्देशन भी किया। ‘यह अमृता है’, ‘बारह बजकर पांच मिनिट’, ‘ज़ुबैदा’ और ‘चौदह गोलियां’ उनके मक़बूल ड्रामे हैं। अब्बास उन नाटककारों में शामिल हैं, जिनके नाटकों की वजह से भारतीय रंगमंच में यथार्थवादी रुझान आया। यथार्थवादी रंगमंच को प्रतिष्ठा मिली। अब्बास के नाटकों में उन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हालात के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की राह मिलती है, जिसकी वजह से इंसान ग़ुलाम बना हुआ है।

वे अब्बास ही थे, जिन्होंने मशहूर अभिनेता, लेखक बलराज साहनी को इप्टा और फ़िल्मों से जोड़ा। अपनी किताब ‘बलराज साहनी : एक आत्मकथा’ में बलराज ने ख़ुद इस बात को माना है कि ‘‘बंबई में, कलाकारों की पंक्ति में खड़े होने की जगह मुझे अब्बास ने ही दिलाई थी।’’ अब्बास के नाटक ‘ज़ुबैदा’ के जब निर्देशन की बारी आई, तो उन्होंने ही इसके निर्देशन के लिए बलराज का नाम सुझाया था। कहना ना चाहिए, इस नाटक के निर्देशन के बाद बलराज साहनी की जैसे ज़िंदगी ही बदल गई। नाटक कामयाब रहा और बलराज साहनी इप्टा के हो गए।

बलराज साहनी, अब्बास की फ़िल्मों के बनिस्बत नाटकों से ज्यादा प्रभावित थे। अब्बास के नाटकों के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘‘अब्बास के नाटकों में एक मनका होता है, एक अनोखापन, एक मनोरंजक सोच, जो मैंने हिंदी-उर्दू के किसी और नाटककार में कम ही देखा है।’’ इप्टा द्वारा साल 1946 में बनाई गई पहली फ़िल्म ‘धरती के लाल’ ख़्वाजा अहमद अब्बास ने ही निर्देशित की थी। कहने को यह फ़िल्म इप्टा की थी, लेकिन इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका अब्बास ने ही निभाई थी। फ़िल्म के लिए लाइसेंस लेने से लेकर, तमाम ज़रूरी संसाधन जुटाने का काम उन्होंने ही किया था।

बंगाल के अकाल पर बनी यह फ़िल्म कई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में समीक्षकों द्वारा सराही गई। इस फ़िल्म में जो प्रमाणिकता दिखलाई देती है, वह अब्बास की कड़ी मेहनत का ही नतीजा है। बंगाल के अकाल की हक़ीक़ी जानकारी इकट्ठा करने के लिए उन्होंने उस वक़्त बाक़ायदा अकालग्रस्त इलाक़ों का दौरा भी किया।

अब्बास को भले ही फ़िल्मकार के तौर पर अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली हो, लेकिन बुनियादी तौर पर वे एक बेहतरीन अदीब थे। उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा। अब्बास की कहानियों की तादाद सौ से ऊपर है। उन्होंने अंग्रेज़ी, उर्दू और हिंदी तीनों ज़बानों में जमकर लिखा। अब्बास उर्दू में भी उतनी ही रवानी से लिखते थे, जितना अंग्रेज़ी में। दुनिया की तमाम भाषाओं में उनकी कहानियों के अनुवाद हुए।

अब्बास की कहानियों में वे सब चीज़ें नज़र आती हैं, जो एक अच्छी कहानी में बेहद ज़रूरी हैं। सबसे पहले एक शानदार मा'नी-ख़ेज़ कथानक, किरदारों का हक़ीक़ी चरित्र-चित्रण और ऐसी क़िस्सागोई कि कहानी शुरू करते ही, ख़त्म होने तक पढ़ने का जी करे। एक अहम बात और, उनकी कहानियों में कई बार ऐसे मोड़ आते हैं, जब पाठकों को लाजवाब कर देते हैं। वह एक दम हक्का-बक्का रह जाता है।

कहानी संग्रह ‘नई धरती नए इंसान’ की भूमिका में अब्बास लिखते हैं, ‘‘साहित्यकार और समालोचक कहते हैं, ख़्वाजा अहमद अब्बास उपन्यास या कहानियां नहीं लिखता। वह केवल पत्रकार है। साहित्य की रचना उसके बस की बात नहीं। फ़िल्म वाले कहते हैं, ख़्वाजा अहमद अब्बास को फ़िल्म बनाना नहीं आता। उसकी फ़ीचर फ़िल्म भी डाक्यूमेंटरी होती है। वह कैमरे की मदद से पत्रकारिता करता है, क़लम की रचना नहीं। और ख़्वाजा अहमद अब्बास ख़ुद क्या कहता है ? वह कहता है-‘‘मुझे कुछ कहना है..’’ और वह मैं हर संभावित ढंग से कहने का प्रयास करता हूं। कभी कहानी के रूप में, कभी ‘ब्लिट्ज’ या ‘आख़िरी सफ़ा’ और ‘आज़ाद क़लम’ लिखकर। कभी दूसरी पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों के लिए लिखकर। कभी उपन्यास के रूप में, कभी डाक्यूमेंटरी फ़िल्म बनाकर। कभी-कभी स्वयं अपनी फ़िल्में डायरेक्ट करके भी।’’

ख्वाजा अहमद अब्बास के समस्त लेखन को यदि देखें, तो यह लेखन स्वछन्द, स्पष्ट और भयमुक्त दिखलाई देता है। इस बारे में ख़ुद अब्बास का कहना था कि ‘‘मेरी रचनाओं पर लोग जो चाहे लेबल लगाएं, मगर वो वही हो सकती हैं, जो मैं हूं, और मैं जो भी हूं, वह जादू या चमत्कार का नतीजा नहीं है। वह एक इंसान और उसके समाज की क्रिया और प्रतिक्रिया से सृजित हुआ है।’’ यही वजह है कि अब्बास की कई कहानियां विवादों की शिकार भी हुईं। विवादों की वजह से उन्हें अदालतों के चक्कर भी काटने पड़े, लेकिन फिर भी उन्होंने अपने लेखन में समझौता नहीं किया।

इस बारे में उनका साफ़-साफ़ कहना था कि ‘‘वह किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि इंसान को इंसान की तरह देखकर लिखते और संबंध गांठते हैं।’’ कहानी ‘एक इंसान की मौत’ और ‘अबाबील’ पर उनके विचारधारा की स्पष्ट छाप दिखलाई देती है। ‘लाल और पीला’, ‘एक लड़की’, ‘ज़ाफ़रान के फूल’, ‘अजंता’, ‘एक पावली चावल’ और ‘बारह बजे’ उनकी चर्चित कहानियां हैं।

ख़्वाजा अहमद अब्बास, पंडित जवाहर लाल नेहरू के बड़े प्रशंसक थे। वे उनके समाजवादी विचारों से पूरी तरह से इत्तिफ़ाक़ रखते थे। अपने लेखों और कहानियों के मार्फ़त यही काम अब्बास कर रहे थे। उन्हें लगता था कि नेहरू की रहबरी में मुल्क अच्छी तरह से महफ़ूज़ है। लेकिन जब-जब भी अब्बास के सपने और उम्मीदें टूटीं, वे उनकी कहानियों और लेखों में भी बयां हुईं। एक तटस्थ आलोचक की तरह अब्बास, तत्कालीन सरकार की नीतियों की आलोचना करने से बाज़ नहीं आए। उन्होंने वही लिखा, जो सच है। आख़िरकार उनकी जवाबदेही अपने मुल्कवासियों, पाठकों के संग थी। जिनसे वे बेशुमार मुहब्बत करते थे। यदि उनका अपने मुल्क और समाज से सरोकार नहीं होता, तो वे क्यों अदब और पत्रकारिता में आते?

एक वक़्त ऐसा भी था, जब उनका नाम फ़िल्मों में कामयाबी की ज़मानत होता था। उन्हें फ़िल्मी दुनिया में मुंह मांगी रकम मिलने लगी थी। बावजूद इसके उन्होंने अदब और पत्रकारिता से अपना नाता नहीं तोड़ा। कहानी संग्रह ‘नई धरती नए इंसान’ की भूमिका में वे लिखते हैं,‘‘मैं इन तमाम हिन्दुस्तानियों से प्रेम करता हूं। सबसे सहानुभूति रखता हूं। सबको समझने का प्रयास करता हूं। इसलिए कि वह मेरे हमवतन, मेरे साथी, मेरे समकालीन हैं। मैं अपनी कहानियों में उनके चेहरे एवं चरित्र दर्शाना चाहता हूं। न केवल औरों को बल्कि ख़ुद उनको। मनुष्य को समाज का दर्पण दिखाना भी एक क्रांतिकारी काम हो सकता है, क्योंकि आत्मप्रवंचना नहीं बल्कि आत्मदर्शन स्वयं की वास्तविकता जानना, अपने व्यक्तित्व को समझना भी सामाजिक और मनोवैज्ञानिक बदलावों को बड़ी गति में ला सकता है।’’

मशहूर तरक़्क़ीपसंद फ्रांसीसी विद्वान ज्यां-पाल सार्त्र का कहना था कि ''अदब में ज़िंदगी को आईना दिखाना भी एक इंक़लाबी काम है।'' उनकी ये बात सही भी है। रचनात्मक साहित्य के मार्फ़त यह इंक़लाबी काम दुनिया के अनेक साहित्यकारों ने किया है और आज भी ऐसे अनेक साहित्यकार मिल जाएंगे, जो अपने साहित्य से समाज को जगाने का काम कर रहे हैं। ख़्वाजा अहमद अब्बास भी उन्हीं में से एक थे। उनकी कहानियां इस क़दर यर्थाथवादी होती हैं कि लगता है कि मानो उन्होंने समाज का पूरा ख़ाका खींच दिया हो। जैसा देखा, वैसा बयान कर दिया। बावजूद इसके अब्बास की कोई भी कहानी उठाकर देख लीजिए, विचार उसमें ज़रूर होगा। उनकी सभी कहानी बामक़सद हैं, बेमक़सद नहीं। अपनी ज़िंदगी में उन्होंने जिस विचार को ओढ़ा और बिछाया, वही विचार उनके साहित्य और सिनेमा में भी दिखलाई देता है। एक पल भी यह विचार उनकी ऑंखों से कहीं ओझल नहीं होता। अब्बास ने अपनी कहानियों में विविध विषयों को छुआ। समाज में हाशिये पर पड़े तमाम ऐसे लोगों को अपनी कहानियों का अहम किरदार बनाया, जिन पर कई कहानीकार लिखने से बचते हैं।

अब्बास ने अपनी कहानियों में इन किरदारों को एक गरिमा बख़्शी। कहानी संग्रह ‘नई धरती नए इंसान’ की भूमिका में वे इसके मुतअल्लिक़ लिखते हैं,‘‘मेरी इन कहानियों में आपको अपने जैसे समकालीन हिन्दुस्तानी मिलेंगे। नए किसान (‘नया शिवाला’ और ‘हनुमानजी का हाथ’), नए हरिजन (‘तीन भंगी’ और ‘टेरलीन की पतलून’), नए अमीर (‘पानी की फॉंसी’), नए गरीब (‘यह भी ताजमहल है’ और ‘चट्टान और सपना’), नई औरतें (‘भोली’), नए पढ़े-लिखे नौजवान (‘सब्ज मोटरकार’) और साथ में उन सामाजिक शक्तियों का विश्लेषण भी मिलेगा, जो इन व्यक्तियों को, उनके चरित्र और उनके ‘भाग्य’ को बदल रही हैं। उनके जीवन में इंक़लाब ला रही हैं।’’ एक इंसान—दोस्त अदीब का यह काम भी है कि वह अपने अदब में न सिर्फ़ उन परिस्थितियों का ज़िक्र करे, जो किसी की बदहाली और शोषण की वजह है, बल्कि आख़िर में एक पैग़ाम भी दे, जिससे सारी इंसानियत को फ़ैज़ पहुंचे।

ख़्वाजा अहमद अब्बास के अफ़सानों को बाज़ आलोचक यह कहकर ख़ारिज करते हैं कि इन अफ़सानों में सियासत के सिवाय कुछ नहीं। इन अफ़सानों में सियासी नारेबाजी है। अब्बास यह सब बातें अच्छी तरह से जानते थे।

अदब में सियासत के दख़ल पर उनका कहना था, ‘‘इसके बिना कोई भी अदबी काम नामुमकिन है।’’ अब्बास का ख़याल था कि ‘‘हर चीज़ कहानी का मौज़ू हो सकती है। चाहे वह आर्थिक हो या राजनीतिक, भौगोलिक हो या यौनिक। कहानी का विषय कुछ भी हो सकता है। लेकिन शर्त यह है कि पढ़ने में रोचक हो और इंसानियत से खाली न हो।’’ इंसान की ज़िंदगी बेहतर हो और उसमें इंसानियत बाक़ी रहे, अब्बास की अपने अफ़सानों में ये कोशिश होती थी। ख़्वाजा अहमद अब्बास के लिए समाजवाद केवल किताबों और अध्ययन तक ही सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने तमाम दुख-परेशानियां और ख़तरे झेलते हुए इसे अपनी ज़िंदगी में भी ढालने की कोशिश की। वह दूसरों के लिए जीने में यक़ीन करते थे। समाजवाद उनके जीने का सहारा था और आख़िरी समय तक उन्होंने इस विचार से अपनी आस नहीं छोड़ी। ‘देश में समाजवाद आए’, इस बात का उनके दिल में हमेशा ख़्वाब रहा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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