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कला जगत के बिसारे हुए गुरु कला मर्मज्ञ: चित्रकार रामचंद्र शुक्ल

उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई क्योंकि वे प्रसिद्धि पाने की होड़ में नहीं थे बल्कि सरल ढंग से कला की राह में चल रहे थे - नया सृजन करने को और नये कला सिद्धांत गढ़ने को।
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आधुनिक सामाजिक जन आंदोलनों के दौरान कला और साहित्य में भी बदलाव आया जिस की वजह से कला साहित्य में भी विश्व आंदोलनों से जुड़ने की कोशिश होती रही। विभिन्न विचारधाराओं का असर कला पर भी पड़ा। भारत में भी शिक्षित कलाकारों की एक पीढ़ी आई जिनका उद्देश्य ही था कि कला-कौशल, तकनीक के साथ चिंतन और लेखन पर उनकी पकड़ हो। इन कलाकारों ने समय समय पर अपनी लेखनी से कलाकृतियों और दर्शकों के बीच दूरी को कम किया। कला छात्रों में भी कला के प्रति वैचारिक समझ पैदा करने की कोशिश की। ये देश के कला गुरु ही थे।

भारतीय कला जगत में अनगिनत ऐसे कला गुरुओं को बिसार दिया गया तथा उन्हें ज्यादा तवज्जो भी नहीं दी गई क्योंकि वे प्रसिद्धि पाने की होड़ में नहीं थे बल्कि सरल ढंग से कला की राह में चल रहे थे - नया सृजन करने को और नये कला सिद्धांत गढ़ने को। इन्हीं में से एक थे - चित्रकार रामचंद्र शुक्ल।

स्नेहिल सरल स्वभाव और छात्रों की मदद हेतु हमेशा तैयार रहते थे - चित्रकार प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल। हिंदी साहित्य के आचार्य रामचंद्र शुक्ल और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के दृश्य कला संकाय में चित्रकला के विभागाध्यक्ष रह चुके कला गुरु रामचंद्र शुक्ल मूल रूप से बस्ती उत्तर प्रदेश के ही थे। बस इनका जन्म स्थल बस्ती के अलग अलग गांवों में था। चित्रकार प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल का जन्म 1 मार्च 1925 को शुक्ल पुर्वा गांव, हरैया नगर, बस्‍ती जनपद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने 1943 में स्नातक किया। बाद में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे। बी.एच.यू. से सेवानिवृत्त होने के बाद चित्रकार रामचंद्र शुक्ल इलाहाबाद में ही रहने लगे थे। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अपनी कला प्राध्यापक वरिष्ठ चित्रकार मृदुला सिन्हा से प्रो॰ राम चंद्र शुक्ल के बारे में हमेशा सुनती आई हूं। 

कलाकृति -प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल, साभार: डाॅ॰ मृदुला सिन्हा

वे हमेशा उनकी तारीफ करती रही हैं। मेरा प्रोफेसर शुक्ल से साक्षात्कार लेने के दौरान इलाहाबाद में कई बार मिलना हुआ है। रामचंद्र शुक्ल एक उत्कृष्ट चित्रकार, कला समीक्षक के साथ ही कुशल कला आचार्य भी थे। उन्होंने कई कला शैलियों को अपनाया जो यूरोपीय चित्र कला शैली पर भी आधारित थीं। उन्होंने समीक्षावाद करके एक चित्रकला शैली भी चलाई। उस कला शैली की हिंदी भाषी कला जगत के एकाध महत्वपूर्ण लोगों ने हंसी भी उड़ाई। मजे की बात यह है कि जिन लोगों ने रामचंद्र शुक्ल की हंसी उड़ाई थी वे अभी उन्हीं रास्ते पर कला सृजन को उतारू हैं (जो स्तरीय नहीं है) और लोगों की वो वाहवाही पा रहे हैं जो महत्वपूर्ण कला संस्थानों से प्रशिक्षित होकर निकले कलाकारों को भी बीसों वर्षों तक तूलिका घिसने के बावजूद हासिल नहीं है।

दरअसल शुरूआती दौर में हिंदी भाषा भाषी क्षेत्र के कलाकारों पर जल्दी किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। क्योंकि अंग्रेजी भाषा का बोलबाला था। हिंदी भाषी कलाकार अपनी बात हिंदी में ही रख सकते थे और पिछड़े माने जाते थे। ऐसे में प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल जैसे चित्रकारों ने कला पर उत्कृष्ट लेखन किया और अपनी बात गवंई, कस्बाई क्षेत्रों से आए कला छात्रों तक संप्रेषित की।

 कलाकृति, प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल,साभार : डाॅ॰ मृदुला सिन्हा

राम चंद्र शुक्ल ने कला पर कई पुस्तकें भी लिखीं। आधुनिक कला समीक्षावाद, चित्रकला का रसास्वादन, कला दर्शन, कला प्रसंग, रेखावली, कला और आधुनिक प्रवृतियां, आधुनिक भारतीय शिक्षण पद्धति आदि इनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। मेरे साक्षात्कार में वर्तमान समय में कला लेखन और कला पुस्तकों के प्रकाशन संबंधी एक प्रश्न के जवाब में शुक्ल जी ने कहा, "आज जो प्रकाशक हैं उनको वह चीज चाहिए जो‌ हाॅट केक की तरह बिकती है या कोर्स में पढ़ाई जाती हो। चित्रकला की कोई पुस्तक हाई स्कूल और इंटर के कोर्स में नहीं पढ़ाई जाती है। इसीलिए कला पर जो पुस्तकें निकलतीं हैं बड़ी मुश्किल से निकलती हैं, उनके लिए प्रकाशक नहीं मिलते हैं। वे कहते हैं इसमें पैसा भी लगता है चित्र भी पड़ते हैं। उसे बेचना भी मुश्किल है। इसीलिए हिंदी में बहुत कम ही पुस्तकें बिकती हैं।" प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल से यह साक्षात्कार मैंने 2001 में इलाहाबाद स्थित उनके आवास में जाकर लिया था। बहरहाल हिंदी कला लेखन और प्रकाशन की स्थितियां पहले जैसी ही बनी हुई है।

रामचंद्र शुक्ल मूल रूप से खुद को चित्रकार ही मानते थे। उन्होंने निरंतर चित्र सृजन किया है। विभिन्न माध्यमों में उन्होंने चित्र बनाए। प्रारंभ में शुक्ल जी ने जलरंग वाश चित्रण किया। इसके बाद के उनके चित्र, लोक चित्रकला विशेष कर बनारस की लोक चित्रण शैली और भारत की लघु चित्रण शैली से प्रभावित हैं। अपने इस दौर की चित्रकला में चित्रकला शैली को काशी शैली नाम दिया था। एक समय में उनके द्वारा चित्रकला में चलाया गया आंदोलन, समीक्षावाद देश में चर्चा का विषय बना। दरअसल शुक्ल जी के समीक्षावाद चित्र आंदोलन का उद्देश्य था तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक अव्यवस्था और भ्रष्टाचार को चित्रों में प्रतीकात्मक और व्यंग्यात्मक ढंग से दर्शाना इसके लिए रामचंद्र शुक्ल ने आम लोगों के समझ में आने वाले व्यंग्य पूर्ण चित्र बनाएं।

कलाकृति , प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल, साभार: डाॅ॰ मृदुला सिन्हा

प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल के कुछ शिष्यों ने समीक्षावाद के तहत चित्र अंकित किए। अच्छे उद्देश्य से शुरु किया गया यह कला आंदोलन ज्यादा समय नहीं चला।

प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में 1948 से 1985 तक अध्यापन किया और छात्रों को कला की बेहतर शिक्षा प्रदान की। उत्तर प्रदेश के कला भूषण पुरस्कार के अतिरिक्त उन्हें और कई अन्य पुरस्कार मिले।
मेरी उनसे अंतिम मुलाकात 2006 में उनके इलाहाबाद स्थित आवास में हुई थी। उन्होंने बहुत ही उत्साह से अपने नव सृजित चित्र दिखाए। उस समय वे पोस्टकार्ड पर मार्कर पेन से अमूर्त चित्रांकन करते थे जो वास्तव में चटख रंगों में अनोखे बन पड़े थे। उनके पोस्ट कार्ड पर लिखे अनेकों पत्र मुझे मिले जिसमें प्रोफेसर रामचंद्र शुक्ल मुझे हमेशा प्रोत्साहित ही करते थे।

(लेखिका स्वयं चित्रकार हैं। आप इन दिनों पटना में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिंदी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)

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