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भारतीय लोक जीवन में कला और कलाकार: अतीत और वर्तमान

आधुनिक विज्ञान के नये अविष्कारों द्वारा  जहाँ मानव जाति ने नये प्रतिमान स्थापित किये हैं, लेकिन उनकी कला और सौंदर्य के प्रति अभिरुचि को विरूपित ही किया है। अब देश और  समाज में कलाकारों को वैसा सम्मान और संरक्षण प्राप्त नहीं है।
बुद्ध और अंगुलीमाल
बुद्ध और अंगुलीमाल, चित्रकार: मंजु प्रसाद

आधुनिक भारत  में भारतीय कला की पाश्चात्य देशों की कला से प्रमुदित और प्रभावित भारतीय अभिजात द्वारा घोर उपेक्षा की गयी। फलस्वरूप भारत की शास्त्रीय और परम्परागत कला और कलाकारों  की स्थिति दयनीय और सम्मान रहित हो गयी। ऐसे में  स्वतंत्रता पूर्व ही हिन्दी भाषा के कई विद्वान हुए  जिन्होंने  अपने लेखन से भारतीय कला की गरिमा से विश्व और भारतीय जनों को रूबरू कराया।

रायकृष्ण दास ने अपनी पुस्तक भारत की  चित्रकला  में भारतीय समाज में  कला की उपयोगिता के बारे में लिखा- "ऐतिहासिक दृश्यों का संरक्षण, जीवन की घटनाओं का संरक्षण, कुल के पूर्वजों , देश के महापुरुषों का समृति चित्रण, ,प्रेम की अभिव्यक्ति, रस का चित्रण, वर-वधु चयन एवं सगाई रस्म, तथा विवाह संस्कार के लिए, धार्मिक कार्यों  के लिए अलंकरण। इन चित्रों में प्रतीकों से  भी सम्बद्ध विषयों की अभिव्यक्ति की जाती थी।"

प्राचीन  भारत में  मूर्ति और स्थापत्य कला की महान परंपरा रही है। कला राजा और सामंतो के साथ-साथ जनता के भी जीवन का अंग थी। चाणक्य के अर्थशास्त्र के अनुसार,  'शिल्पियों की अपनी  पंचायतें होती थीं। वे मिल कर कर काम करते थे'। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार, 'शिल्पकारों, चित्रकारों, बढ़ई, कर्मकार, चर्मकार आदि के अलग-अलग गांव होते  थे और बड़े नगरों में एक एक मुहल्ला होता था।' जिनका अपना महत्व होता  था। राज्यों में इन्हे सम्मान और संरक्षण प्राप्त था। तभी तो उन्होंने कठोर परिश्रम से पत्थरों को काट कर सुन्दर और अद्भुत मूर्ति शिल्पों और स्थापत्य -निर्माण किया जो आज भी विश्व धरोहर के रूप में संरक्षित है।

मथुरा के परखम नाम के गांव विशाल यक्ष  मूर्ति, मथुरा से प्राप्त मनसा की मूर्ति और पटना के दीदारगंज से चांवरधारिणी (चंवर डुलाने  वाली) मूर्तियां ई. पू. छठी शती  इतनी मानवीय और मांसल है  कि सादृश्य मूर्तण  सदृश मानी जा सकती हैं। ये मूर्तियां चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल की मानी  जा सकती हैं।

मूर्तिकला और स्थापत्य कला  एक दूसरे पर निर्भर  रहने वाली कलाएं हैं। भारत में मूर्तिकला का वास्तु (इमारत) से विशेष संबंध रहा है, क्योकि सभी भवनों पर मूर्तियां और नक्काशी अवश्य  रहती थी; दूसरी ओर मूर्तियों की स्थापना के लिए विशाल व उच्च कोटि के भवनों का निर्माण किया जाता था (रायकृष्ण दास ,भारतीय मूर्ति कला)।

चंद्रगुप्त ने विशाल और कलात्मक भवनों का निर्माण कराया था। जिनका वर्णन  दरबार  में रह  रहे  ग्रीक राजदूत  मेगास्थनीज ने  किया है। जिसके लेखन के कुछ अंश प्राप्त हैं। उसके अनुसार  'वे काष्ठ निर्मित भवन और प्रस्तर मूर्ति शिल्प का प्रयोग, स्थापत्य कला   में  उत्कृष्ट और श्रेष्ठ  उदाहरण हैं।

सम्राट अशोक बौद्ध धर्म के प्रबल अनुयायी थे उनके राज्य काल भारतीय स्थापत्य और मूर्ति कला का स्वर्णिम युग था। अशोक के कलिंग विजय का इतिहास सबको ज्ञात है। इस युद्ध के दौरान लाखों मनुष्य मारे गए और घायल हुए। यह विजय अशोक के लिए मानसिक यंत्रणा  एवं पश्चाताप  का कारण बन गये। दोनों पक्षों के अंग-भंग हुए  घायल शरीर और क्षत-विक्षत सैनिकों के शव देख अशोक घोर दुःख तथा गहन विषाद से घिर गये। युद्ध की विभीषिका में वे वितृष्णा से भर गये। प्रायश्चित बोध से उद्वेलित हो एक महा हृदय परिवर्तन के फलस्वरूप सम्राट अशोक  भगवान  बुद्ध के दिखाए मार्ग के अनुगामी बन गये। उन्होंने बुद्ध के उपदेशों को अपने कुशल शिल्पियों और मूर्तिकारों द्वारा पहाड़ों, विशालकाय चट्टानों और प्रस्तर स्तंभों पर मूर्तियों और अर्ध मूर्तियों (रिलिफ वर्क) के साथ सुन्दर लिपि में खुदवाया। जिन्हे वे धम्मलिपि कहते थे। इन धम्म लिपियों में संदेश है कि अब रक्तपात वाली लड़ाई नहीं होगी,सभी जीवों के प्रति  प्रेम व दया भाव  हो। अशोक ने अपने संतानों और भावी पीढ़ी को शिक्षा दी कि वे रक्तपात वाले विजय न प्राप्त करें, धर्म द्वारा विजय ही वास्तविक विजय है। उन्होंने  लोकहित  को जीवन का ध्येय बना लिया। अशोक स्वयं बौद्ध धर्मावलंबी होते हुए, वे सभी पंथों को एक दृष्टि से देखते थे और उनका प्रयत्न रहता था कि विभिन्न पंथ वाले परस्पर प्रेम ,आदर और सहिष्णु ढंग से रहे।

अशोक कालीन विशालकाय शिला स्तंभों पर बुद्ध के उपदेश कलात्मक ढंग से उत्कीर्ण हैं, जो भारतीय अक्षरांकण कला (कैलीग्राफ़ी) के बेहतरीन  उदाहरण हैं। इन लाठों (पीलर)  पर बनी मूर्तियां संसार भर में अपनी उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध हैं। ये सभी स्तंभ  चुनार के पत्थरों  से बने हैं। इनकी चमक अनोखी है, ऐसा माना जाता है कि इन पर वज्रलेप लगाया गया है। ज्यादातर स्तंभों पर पशु आकृतियाँ जैसे सिंह, हाथी, बैल या घोड़ा  धम्म चक्र के साथ बनी हैं। सारनाथ में पाया गया  सिंह की मूर्तियों वाला स्तंभ श्रेष्ठ माना गया है।

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सांची स्तूप का प्रवेश द्वार। साभार : ‘क’ पत्रिका

सम्राट अशोक को बहुत बड़ा वास्तु निर्माता माना जाता है। उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं के लिये बहुत सारे  स्तूप बनवाये। जिसके बारे में  प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान (पांचवी शती ) ने भी लिखा है। सांची का बौद्ध स्तूप (120 फुट -54 फुट ) अभी भी मौजूद है। इस स्तूप के चारों  तरफ प्रदक्षिणाएं बनी हैं। जिन पर  प्रवीण शिल्पियों ने बुद्ध  के जीवन से संबंधित और बोधिसत्व के जीवन  से संबंधित, और मानव जीवन में प्रेम, वात्सल्य, रौद्र, आध्यात्मिक, युद्ध  आदि  आठ रसों को कठोर प्रस्तर के अर्द्ध मूर्ति शिल्पों में अत्यंत सजीव ढंग से उत्कीर्ण किया है।  जिसमें से कई स्थापत्य मूर्ति कला के उदाहरण भारत की भूमि पर मौजूद हैं। जो  आज भी विश्व भर के बौद्ध धर्मावलंबियों के उपासना स्थल तो हैं ही साथ ही विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। जहाँ उन्हें स्थानीय कलाकारों द्वारा बनाए गए  परंपरागत शैली के चित्र, मूर्तियां, और शिल्प कला के नमूने मिल जाते हैं।

परन्तु अब देश और  समाज में कलाकारों को वैसा सम्मान और संरक्षण प्राप्त नहीं है। कलाकारों और शिल्पकारों को उनकी कलाकृतियों के सही मूल्य भी नहीं प्राप्त होते हैं। बस बिचौलियों को ही फायदा पहुंच रहा है। तो ऐसे में स्तरीय कला, सृजन की संभावनायें क्षीण होती हैं।

आधुनिक विज्ञान के नये अविष्कारों द्वारा  जहाँ मानव जाति ने नये प्रतिमान स्थापित किये हैं, लेकिन उनकी कला और सौंदर्य के प्रति अभिरुचि को विरूपित ही किया है। खासकर प्लास्टिक के प्रचलन के कारण चित्र, मूर्तियां उनके पसंद की चीज नहीं रह गयीं। फलस्वरूप भारतीय भी अपने घरों की साज सज्जा में प्लास्टिक की मूर्तियां या अन्य डेकोरेशन  करते हैं। यहाँ तक कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक  महंगे प्लास्टिक रंगों से अपने घरों के दीवारों तक को रंग कर गौरान्वित होते हैं।

(लेखक डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।) 

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